हकीकत का अगर अफसाना

 हकीकत का अगर अफसाना बन जाए तो क्या कीजे

 गले मिलकर भी वो बेगाना बन जाये तो क्या कीजे


 हमें सौ बार तर्क-ए-मयकशी मंजूर है लेकिन

नज़र उसकी अगर मयखाना बन जाए तो क्या कीजे


नज़र आता है सजदे में जो अक्सर शैख़ साहिब को

वो जलवा जलवा-ए-जानाना बन जाए तो क्या कीजे


तेरे मिलने से जो मुझको हमेशा मना करता है

अगर वो भी तेरा दीवाना बन जाये तो क्या कीजे


खुदा का घर समझ रखा है अब तक हमने जिस दिल को

कहीं उसमे भी इक बुतखाना बन जाए तो क्या कीजे 

दर्द से मेरे है तुझको बेकरारी - राहत फतेह आली ख़ान

 दर्द से मेरे है तुझको बेकरारी - राहत फतेह आली ख़ान 


दर्द हो दिल में तो दवा कीजे

दिल ही जब दर्द हो तो क्या कीजे

हमको फरियाद करनी आती है

आप सुनते नहीं तो क्या कीजे

रंज उठाने से भी ख़ुशी होगी

पहले दिल दर्द आशना कीजे

मौत आती नहीं कहीं ग़ालिब

कब तक अफ़सोस जीस्त का कीजे


दर्द से मेरे है तुझ को बे-क़रारी हाए हाए 

क्या हुई ज़ालिम तेरी ग़फ़लत-शिआरी हाए हाए 


शेर-

अपनी हस्ती ही से हो जो कुछ हो 

आगही गर नहीं ग़फ़लत ही सही  


दर्द से मेरे है तुझ को बे-क़रारी हाए हाए 

क्या हुई ज़ालिम तेरी ग़फ़लत-शिआरी हाए हाए  


तेरे दिल में गर न था आशोब-ए-ग़म का हौसला 

तू ने फिर क्यूँ की थी मेरी ग़म-गुसारी हाए हाए 


क्यूँ मेरी ग़म-ख़्वार्गी का तुझ को आया था ख़याल 

दुश्मनी अपनी थी मेरी दोस्त-दारी हाए हाए 


उम्र भर का तू ने पैमान-ए-वफ़ा बाँधा तो क्या 

उम्र को भी तो नहीं है पाएदारी हाए हाए 


ज़हर लगती है मुझे आब-ओ-हवा-ए-ज़िंदगी 

यानी तुझ से थी इसे ना-साज़गारी हाए हाए 


शेर - 

ज़िंदगी अपनी जब इस शक्ल से गुज़री 'गालिब' 

हम भी क्या याद करेंगे कि ख़ुदा रखते थे 


गुल-फ़िशानी-हा-ए-नाज़-ए-जल्वा को क्या हो गया 

ख़ाक पर होती है तेरी लाला-कारी हाए हाए


शर्म-ए-रुस्वाई से जा छुपना नक़ाब-ए-ख़ाक में 

ख़त्म है उल्फ़त की तुझ पर पर्दा-दारी हाए हाए 


ख़ाक में नामूस-ए-पैमान-ए-मोहब्बत मिल गई 

उठ गई दुनिया से राह-ओ-रस्म-ए-यारी हाए हाए 


इश्क़ ने पकड़ा न था 'गालिब' अभी वहशत का रंग 


शेर-

इश्क़ मुझ को नहीं वहशत ही सही 

मेरी वहशत तेरी शोहरत ही सही 


इश्क़ ने पकड़ा न था 'गालिब' अभी वहशत का रंग 

रह गया था दिल में जो कुछ ज़ौक़-ए-ख़्वारी हाए हाए 



दर्द से मेरे है तुझको बेकरारी हाय हाय


दिल से तेरी निगाह - राहत फतेह आली खान

दिल से तेरी निगाह - राहत फतेह आली खान 


जब जोफ़ बड़ा तो खुशबयानी आई

तब बहर-ए-तबियत में रवानी आई

जितनी बढती गई पीरी ग़ालिब

उतनी मेरे शेरो पे जवानी आई


दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गई


ज़ख़्म ने दाद न दी तंगी-ए-दिल की या रब 

तीर भी सीना-ए-बिस्मिल से पर-अफ़्शाँ निकला 


दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गई


कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीर-ए-नीम-कश को 

ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता 


दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गई


हम थे मरने को खड़े पास न आया न सही 

आख़िर उस शोख़ के तरकश में कोई तीर भी था 


दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गई


वो निगाहें क्यूँ हुई जाती हैं या-रब दिल के पार 

जो मेरी कोताही-ए-क़िस्मत से मिज़्गाँ हो गईं 


दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गई

दोनों को इक अदा में रजामंद कर गई


वो बादा-ए-शबाना की सरमस्तियाँ कहाँ 

उठिए बस अब कि लज्जत-ए-ख्वाब-ए-सहर गई


उड़ती फिरे है खाक मेरी कू-ए-यार में

 खाक मेरी कू-ए-यार में

 खाक मेरी कू-ए-यार में

 खाक मेरी कू-ए-यार में


सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं 

ख़ाक में क्या सूरतें होंगी कि पिन्हाँ हो गईं 


खाक मेरी कू-ए-यार में

खाक मेरी कू-ए-यार में


उड़ती फिरे है ख़ाक मिरी कू-ए-यार में 

बारे अब ऐ हवा हवस-ए-बाल-ओ-पर गई 


देखो तो दिल-फ़रेबी-ए-अंदाज़-ए-नक़्श-ए-पा 

नक़्श-ए-पा , अंदाज-ए-नक़्श-ए-पा

नक़्श-ए-पा , अंदाज-ए-नक़्श-ए-पा


जहाँ तेरा नक्श-ए-कदम देखते हैं 

ख़ियाबां-ख़ियाबां इरम देखते है


नक़्श-ए-पा , अंदाज-ए-नक़्श-ए-पा

नक़्श-ए-पा , अंदाज-ए-नक़्श-ए-पा


देखो तो दिल-फ़रेबी-ए-अंदाज़-ए-नक़्श-ए-पा 

मौज-ए-ख़िराम-ए-यार भी क्या गुल कतर गई 


नज़्ज़ारे ने भी काम किया वाँ नक़ाब का 

मस्ती से हर निगह तेरे रुख़ पर बिखर गई 


मारा ज़माने ने असदुल्लाह ख़ाँ तुम्हें 

वो वलवले कहाँ वो जवानी किधर गई 


वो वलवले कहाँ वो जवानी किधर गई 

वो वलवले कहाँ वो जवानी किधर गई 


कोई दिन गर जिंदगानी और है

अपने जी में हम ने ठानी और है

हो चुकीं 'गालिब' बलाएँ सब तमाम 

एक मर्ग-ए-ना-गहानी और है 


वो वलवले कहाँ वो जवानी किधर गई 

वो वलवले कहाँ वो जवानी किधर गई 


दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गई