दबे पैरों से उजाला आ रहा है

 दबे पैरों से उजाला आ रहा है

फिर कथाओं को खँगाला जा रहा है


धुंध से चेहरा निकलता दिख रहा है

कौन क्षितिजों पर सवेरा लिख रहा है

चुप्पियाँ हैं जुबाँ बनकर फूटने को

दिलों में गुस्सा उबाला जा रहा है


दूर तक औश् देर तक सोचें भला क्या

देखना है बस फिजाँ में है घुला क्या

हवा में उछले सिरों के बीच ही अब

सच शगूफे सा उछाला जा रहा है


नाचते हैं भय सियारों से रँगे हैं

जिधर देखो उस तरफ कुहरे टँगे हैं

जो नशे में धुत्त हैं उनकी कहें क्या

होश वालों को सँभाला जा रहा है


स्थगित है गति समय का रथ रुका है

कह रहा मन बहुत नाटक हो चुका है

प्रश्न का उत्तर कठिन है इसलिए भी

प्रश्न सौ.सौ बार टाला जा रहा है


सेंध गहरी नींद में भी लग गई है

खीझती सी रात काली जग गई है

दृष्टि में है रोशनी की एक चलनी

और गाढ़ा धुआँ चाला जा रहा है

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