दिल पे ज़ख्म खाते है
जान से गुजरते है
जुर्म सिर्फ इतना है
उनको प्यार करते है
एतबार बढ़ता है और भी मोहब्बत का
जब वो अनजबी बन कर पास से गुजरते है
उनकी अंजुमन भी है तार भी रसन भी है
देखना है दीवाने अब कहाँ ठहरते है
उनके एक तगाफुल से टूटते है दिल कितने
उनकी एक तवज्जो से कितने जख्म भरते है
जो पले है जुम्लत में क्या सहर को पहचाने
तीरगी के सैदाई रौशनी से डरते है
लाख वो गुरेज़ां हो लाख दुश्मन-ए-जान हो
दिल तो क्या करे साहिब हम उन्ही पे मरते है
दिल पे ज़ख्म खाते है
जान से गुजरते है
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