यह कौन नहीं चाहेगा उसको मिले प्यार

यह कौन नहीं चाहेगा उसको मिले प्यार

 

यह कौन नहीं चाहेगा भोजन-वस्त्र मिले

 

यह कौन न सोचेगा हो छत सर के ऊपर

 

बीमार पड़ें तो हो इलाज थोड़ा ढब से

 

बेटे-बेटी को मिले ठिकाना दुनिया में

 

कुछ इज़्ज़त हो, कुछ मान बढ़े, फल-फूल जाएँ

 

गाड़ी में बैठें, जगह मिले, डर भी न लगे

 

यदि दफ़्तर में भी जाएँ किसी तो न घबराएँ?

 

अनजानों से घुल-मिल भी मन में न पछताएँ।

 

कुछ चिंताएँ भी हों, हाँ कोई हरज नहीं

 

पर ऐसी नहीं कि मन उनमें ही गले घुने

 

हौसला दिलाने और बरजने आस-पास

 

हो संगी-साथी, अपने प्यारे, ख़ूब घने।

 

पापड़-चटनी, आँचा-पाँचा, हल्ला-गुल्ला

 

दो-चार जशन भी कभी, कभी कुछ धूम-धाँय

 

जितना संभव हो देख सकें, इस धरती को

 

हो सके जहाँ तक, उतनी दुनिया घूम आएँ

 

 

यह कौन नहीं चाहेगा?

 

 

पर हमने यह कैसा समाज रच डाला है

 

इसमें जो दमक रहा, शर्तिया काला है

 

वह क़त्ल हो रहा, सरेआम चौराहे पर

 

निर्दोष और सज्जन, जो भोला-भाला हे

 

किसने आख़िर ऐसा समाज रच डाला है

 

जिसमें बस वही दमकता है, जो काला है?

 

मोटर सफ़ेद वह काली है

 

वे गाल गुलाबी काले हैं

 

चिंताकुल चेहरा-बुद्धिमान

 

पोथे क़ानूनी काले हैं

 

आटे की थैली काली है

 

हर साँस विषैली काली हे

 

छत्ता है काली बर्रों का

 

वह भव्य इमारत काली है

 

कालेपन की वे संतानें

 

हैं बिछा रहीं जिन काली इच्छाओं की बिसात

 

वे अपने कालेपन से हमको घेर रहीं

 

अपना काला जादू हैं हम पर फेर रहीं

 

बोलो तो, कुछ करना भी है

 

या काला शरबत पीते-पीते मरना है?


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