साहिल पे खडे हो तुम्हे क्या गम चले जाना

साहिल पे खडे हो तुम्हे क्या गम चले जाना

साहिल पे खडे हो तुम्हे क्या गम चले जाना

मैं डूब रहा हूँ, अभी डूबा तो नहीं हूँ

मैं डूब रहा हूँ, अभी डूबा तो नहीं हूँ

आए वादा फरामोश, मैं तुझसा तो नहीं हूँ

हर ज़ुल्म तेरा याद है, भुला तो नहीं हूँ

हर ज़ुल्म तेरा याद है, भुला तो नहीं हूँ

ए वादा फरामोश, मैं तुझसा तो नहीं हूँ


चुप चाप सही मसलेहतन, वक़्त के हाथों

चुप छाप सही मसलेहतन, वक़्त के हाथों

मजबूर सही, वक़्त से हारा तो नहीं हूँ

मजबूर सही, वक़्त से हारा तो नहीं हूँ

ए वादा फरामोश, मैं तुझसा तो नहीं हूँ


मुज़तर क्यों मुझे देखता रहता है ज़माना

दीवाना सही, उनका तमाशा तो नहीं हूँ

दीवाना सही, उनका तमाशा तो नहीं हूँ

ए वादा फरामोश, मैं तुझसा तो नहीं हूँ

हर ज़ुल्म तेरा याद है ए भुला तो नहीं हूँ

हर ज़ुल्म तेरा याद है ए भुला तो नहीं हूँ

चलो फिर से मुस्कुराएँ

चलो फिर से मुस्कुराएँ 

चलो फिर से दिल जलाएँ 

जो गुज़र गईं हैं रातें 

उन्हें फिर जगा के लाएँ 

जो बिसर गईं हैं बातें 

उन्हें याद में बुलाएँ 

चलो फिर से दिल लगाएँ 

चलो फिर से मुस्कुराएँ 


किसी शह-नशीं पे झलकी 

वो धनक किसी क़बा की 

किसी रग में कसमसाई 

वो कसक किसी अदा की 

कोई हर्फ-ए-बे-मुरव्वत 

किसी कुंज-ए-लब से फूटा 

वो छनक के शीशा-ए-दिल

तह-ए-बाम फिर से टूटा 

ये मिलन की ना मिलन की 

ये लगन की और जलन की 

जो सही हैं वारदातें 

जो गुज़र गईं हैं रातें 

जो बिसर गई हैं बातें 

कोई उन की धुन बनाएँ 

कोई उन का गीत गाएँ 

चलो फिर से मुस्कुराएँ 

चलो फिर से दिल जलाएँ 

दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है


 दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है 

आख़िर इस दर्द की दवा क्या है 


हम हैं मुश्ताक़ और वो बे-ज़ार 

या इलाही ये माजरा क्या है 


मैं भी मुँह में ज़बान रखता हूँ 

काश पूछो कि मुद्दआ क्या है 


जब कि तुझ बिन नहीं कोई मौजूद 

फिर ये हंगामा ऐ ख़ुदा क्या है 


ये परी.चेहरा लोग कैसे हैं 

ग़म्ज़ा ओ इश्वा ओ अदा क्या है 


शिकन-ए-ज़ुल्फ़-ए-अंबरीं क्यूँ है 

निगह-ए-चश्म-ए-सुरमा सा क्या है 


सब्ज़ा ओ गुल कहाँ से आए हैं 

अब्र क्या चीज़ है हवा क्या है 


हम को उन से वफ़ा की है उम्मीद 

जो नहीं जानते वफ़ा क्या है 


हाँ भला कर तिरा भला होगा 

और दरवेश की सदा क्या है 


जान तुम पर निसार करता हूँ 

मैं नहीं जानता दुआ क्या है 


मैं ने माना कि कुछ नहीं ग़ालिब  

मुफ़्त हाथ आए तो बुरा क्या है 

हम समय के युद्धबन्दी हैं

 हम समय के युद्धबन्दी हैं


 हम समय के युद्धबन्दी हैं

युद्ध तो लेकिन अभी हारे नहीं हैं हम ।

लालिमा है क्षीण पूरब की

पर सुबह के बुझते हुए तारे नहीं हैं हम ।

हम समय के युद्धबन्दी है।  


सच यही, हाँ, यही सच है

मोर्चे कुछ हारकर पीछे हटे हैं हम

जंग में लेकिन डटे हैं, हाँ, डटे हैं हम !

हम समय के युद्धबन्दी है। 


बुर्ज कुछ तोड़े थे हमने

दुर्ग पूँजी का मगर टूटा नहीं था !

कुछ मशालें जीत की हमने जलायी थीं

सवेरा पर तमस के व्यूह से छूटा नहीं था ।

नहीं थे इसके भरम में हम !

हम समय के युद्धबन्दी हैं। 


चलो, अब समय के इस लौह कारागार को तोड़ें

चलो, फिर जिन्दगी की धार अपनी शक्ति से मोड़ें

पराजय से सबक लें, फिर जुटें, आगे बढ़ें फिर हम !

हम समय के युद्धबन्दी हैं। 


न्याय के इस महाकाव्यात्मक समर में

हो पराजित सत्य चाहे बार-बार

जीत अन्तिम उसी की होगी

आज फिर यह घोषणा करते हैं हम !

हम समय के युद्धबन्दी हैं। 

दुनिया के हर सवाल के हम ही जवाब हैं

 दुनिया के हर सवाल के हम ही जवाब हैं

आंखों में हमारी नयी दुनिया के ख़्‍वाब हैं।

इन बाजुओं ने साथी ये दुनिया बनायी है

काटा है जंगलों कोएबस्‍ती बसाई है

जांगर खटा के खेतों में फसलें उगाई हैं

सड़कें निकाली हैं अटारी उठाई है

ये बांध बनाये हैं फ़ैक्‍टरी बनाई है

हम बेमिसाल हैं हम लाजवाब हैं

आंखों में हमारी नयी दुनिया के ख़्‍वाब हैं।

अब फिर नया संसार बनाना है हमें ही

नामों.निशां सितम का मिटाना है हमें ही

अब आग में से फूल खिलाना है हमें ही

फिर से अमन का गीत सुनाना है हमें ही

हम आने वाले कल के आफताबे.इन्‍क़लाब हैं

आंखों में हमारी नयी दुनिया के ख्‍़वाब हैं।

हक़ के लिये अब जंग छेड़ दो दोस्‍तो

जंग बन के फूल उगेगा दोस्‍तो

बच्‍चों की हंसी को ये खिलायेगा दोस्‍तो

प्‍यारे वतन को स्‍वर्ग बनायेगा दोस्‍तो

हम आने वाले कल की इक खुली किताब हैं

आंखों में हमारी नयी दुनिया के ख्‍़वाब हैं।


.शशि प्रकाश

तुम इक गोरख धंधा हो

 कभी यहाँ तुम्हें ढूँढा, 

कभी वहाँ पहुँचा 

तुम्हारी दीद की ख़ातिर कहाँ-कहाँ पहुँचा 

ग़रीब मिट गए, पामाल हो गए लेकिन 

किसी तलक न तेरा आज तक निशां पहुँचा 

हो भी नहीं और, हर जा हो 

हो भी नहीं और, हर जा हो 

तुम इक गोरख धन्दा हो! 


शेर-

हर ज़र्रे में किस शान से तू जल्वा-नुमा है

 हैरां है मगर अक़्ल के कैसा है तू, क्या है? 

तुम इक गोरख धन्दा हो! 


शेर- 

तुझे दैर-ओ-हरम में मैंने ढूँढा तू नहीं मिलता 

मगर तशरीग-फ़र्मा तुझे अपने दिल में देखा है! 

तुम इक गोरख धन्दा हो!


शेर-

 ढूँढे नहीं मिले हो, न ढूँढे से कहीं तुम 

और फिर ये तमाशा है जहाँ हम हैं वहीं तुम! 

तुम इक गोरख धन्दा हो! 


शेर- 

जब बजुज़ तेरे कोई दूसरा मौजूद नहीं 

फिर समझ में नहीं आता तेरा पर्दा करना! 

तुम इक गोरख धन्दा हो! 


शेर- 

हरम ओ दैर मैं है जलवा-ए-पुर फन तेरा

दो घरों का है चराग इक रुख-ए-रौशन तेरा

तुम इक गोरख धन्दा हो! 


जो उलफत में तुम्हारी खो गया है,

उसी खोए हुए को कुछ मिला है,

ना बुतखाने, ना काबे में मिला है,

मगर टूटे हुए दिल में मिला है,

अदम बन कर कहीं तू छुप गया है,

कहीं तू हस्त बुन कर आ गया है,

नही है तू तो फिर इनकार कैसा ?

नफी भी तेरे होने का पता है ,

मैं जिस को कह रहा हूँ अपनी हस्ती,

अगर वो तू नही तो और क्या है ?

नही आया ख़यालों में अगर तू,

तो फिर मैं कैसे समझा तू खुदा है ?

तुम एक गोरखधंधा हो


शेर-

हैरां हूँ इस बात पे तुम कौन हो क्या हो? 

हाथ आओ तो बुत, हाथ न आओ तो ख़ुदा हो!

तुम इक गोरख धन्दा हो! 


शेर-

अक़्ल में जो घिर गया ल-इन्तहा क्योंकर हुआ?

जो समझ में आ गया फिर वो ख़ुदा क्योंकर हुआ?

तुम इक गोरख धन्दा हो! 


शेर-

फलसफी को बेहेस के अंदर खुदा मिलता नहीं

डोर को सुलझा रहा है और सिरा मिलता नहीं


शेर-

पता यूं तो बता देते हो सब को ला- मकान अपना

ताज़्जुब है मगर रहते हो तुम टूटे हुए दिल में


शेर-

जब के तुझ बिन नहीं कोई मौजूद

फिर ये हंगामा अय खुदा क्या है


छुपते नहीं हो सामने आते नहीं हो तुम 

जल्वा दिखाके जल्वा दिखाते नहीं हो तुम 

दैर-ओ-हरम के झगड़े मिटाते नहीं हो तुम 

जो अस्ल बात है वो बताते नहीं हो तुम 

हैरां हूँ मेरे दिल में समाए हो किस तरह?

हालांके दो जहाँ में समाते नहीं हो तुम! 

ये माबाद-ओ-हरम, ये कलीसा, वो दैर क्यों?

हर्जाई हो जभी तो बताते नहीं हो तुम! 

तुम इक गोरख धन्दा हो! 


दिल पे हैरत ने अजब रँग जमा रखा है!

एक उलझी हुई तसवीर बना रखा है!

कुछ समझ में नहीं आता के ये चक्कर क्या है

 खेल क्या तुमने अज़ल से ये रचा रखा है! 

रूह को जिस्म के पिंजरे का बनाकर कैदी

उसपे फिर मौत का पहरा भी बिठा रखा है!

दे के तब्दीर के पंछी को उड़ाने तुमने

दाम- ए तक़दीर में हर संत बिछा रखा है

कर के अराईशें कौनेन की बरसों तुमने

खत्म करने का भी मंसूबा  बना रखा है

ला-मकानी का बहर-हाल है दावा भी तुमहें

नहनू अखरब का भी पैग़ाम सुना रखा है

ये बुराई, वो भलाई, ये जहन्नुम, वो बहिश्त

इस उलट-फेर में फ़र्माओ तो क्या रखा है? 

जुर्म आदम ने किया और सज़ा बेटों को,

अदल-ओ-इंसाफ़ का मेआर भी क्या रखा है?

दे के इंसान को दुनिया में खलाफत अपनी,

इक तमाशा सा ज़माने में बना रखा है

अपनी पहचान की खातिर है बनाया सब को,

सब की नज़रों से मगर खुद को छुपा रखा है

तुम एक गोरखधंधा हो


नित नये नक़्श बनाते हो, मिटा देते हो,

जाने किस ज़ुर्म-ए-तमन्ना की सज़ा देते हो?

कभी कंकड़ को बना देते हो हीरे की कनी ,

कभी हीरों को भी मिट्टी में मिला देते हो

ज़िंदगी कितने ही मुर्दों को अदा की जिसने,

वो मसीहा भी सलीबों पे सज़ा देते हो

ख्वाइश-ए-दीद जो कर बैठे सर-ए-तूर कोई,

तूर ही बर्क- ए- तजल्ली से जला देते हो

नार-ए-नमरूद में डलवाते हो खुद अपना ख़लील,

खुद ही फिर नार को गुलज़ार बना देते हो

चाह-ए-किनान में फैंको कभी माह-ए-किनान,

नूर याक़ूब की आँखों का बुझा देते हो

दे के युसुफ को कभी मिस्र के बाज़ारों में,

आख़िरकार शाह-ए-मिस्र बना देते हो

जज़्ब -ओ- मस्ती की जो मंज़िल पे पहुचता है कोई,

बैठ कर दिल में अनलहक़ की सज़ा देते हो ,

खुद ही लगवाते हो फिर कुफ्र के फ़तवे उस पर,

खुद ही मंसूर को सूली पे चढ़ा देते हो

अपनी हस्ती भी वो इक रोज़ गवा बैठता है,

अपने दर्शन की लगन जिस को लगा देते हो

कोई रांझा जो कभी खोज में निकले तुमको,

तुम उसे झन्ग के बेले में रुला देते हो

ज़ुस्त्जु ले के तुम्हारी जो चले कैश कोई,

उस को मजनू किसी लैला का बना देते हो

जोत सस्सी के अगर मन में तुम्हारी जागे,

तुम उसे तपते हुए थल में जला देते हो

सोहनी गर तुम को महिंवाल तसवउर कर ले,

उस को बिखरी हुई लहरों में बहा देते हो

खुद जो चाहो तो सर-ए-अर्श बुला कर महबूब,

एक ही रात में मेराज करा देते हो

तुम एक गोरखधंधा हो


आप ही अपना पर्दा हो

तुम इक गोरख धंधा हो


जो कहता हूँ माना तुम्हें लगता है बुरा सा 

फिर भी है मुझे तुमसे बहर-हाल ग़िला सा

चुप चाप रहे देखते तुम अर्श-ए-बरीन पर,


तपते हुए करबल में मोहम्मद का नवासा,

किस तरह पिलाता था लहू अपना वफ़ा को,

खुद तीन दिनो से वो अगरचे था प्यासा

दुश्मन तो बहर- हाल थे दुश्मन मगर अफ़सोस,

तुम ने भी फराहम ना किया पानी ज़रा सा

हर ज़ुल्म की तौफ़ीक़ है ज़ालिम की विरासत,

मज़लूम के हिस्से में तसल्ली ना दिलासा

कल ताज सजा देखा था जिस शक़्स के सिर पर,

है आज उसी शक़्स क हाथों में ही कासा,

यह क्या है अगर पूछूँ तो कहते हो जवाबन,

इस राज़ से हो सकता नही कोई शनासा

तुम एक गोरखधंधा हो


हैरत की इक दुनिया हो 

तुम इक गोरख धंधा हो


शेर-

हर एक जा पे हो लेकिन पता नहीं मालूम

तुम्हारा नाम सुना है निशान नहीं मालूम


दिल से अरमान जो निकल जाए तो जुगनू हो जाए

और आंखों में सिमट आए तो आंसू हो जाए

जाप या हू का जो बेहू करे हू में खोकर

उसको सुल्तानिया मिल जाए वो बाहू हो जाए

बाल बिका ना किसी का हो छुरी के नीचे

हल्क ए असघर में कभी तीर तराजू हो जाए

तुम इक गोरख धंधा हो


राह-ए-तहक़ीक़ में हर ग़ाम पे उलझन देखूँ वही हालात-ओ-खयालात में अनबन देखूँ 

बनके रह जाता हूँ तसवीर परेशानी की

ग़ौर से जब भी कभी दुनिया का दर्पन देखूँ 

एक ही ख़ाक़ पे फ़ित्रत के तजादात इतने!

 इतने हिस्सों में बँटा एक हीती हुई पत्झड़ का समा 

कहीं रहमत के बरसते हुए सावन देखूँ 

कहीं फुँकारते दरिया, कहीं खामोश पहाड़! 

कहीं जंगल, कहीं सहरा, कहीं गुलशन देखूँ 

ख़ून रुलाता है ये तक़्सीम का अन्दाज़ मुझे 

कोई धनवान यहाँ पर कोई निर्धन देखूँ 

दिन के हाथों में फ़क़त एक सुलग़ता सूरज 

रात की माँग सितारों से मुज़ईय्यन देखूँ 

कहीं मुरझाए हुए फूल हैं सच्चाई के 

और कहीं झूठ के काँटों पे भी जोबन देखूँ!

शम्स की खाल कहीं खींचती नजर आती है

कहीं सरमद की उतरती हुई गर्दन देखूं

रात क्या शय है, सवेरा क्या है?

 ये उजाला, ये अंधेरा क्या है? 

मैं भी नायिब हूँ तुम्हारा आख़िर 

क्यों ये कहते हो के "तेरा क्या है?" 

तुम इक गोरख धन्दा हो! 


मस्जिद मन्दिर ये मयखाने

कोई ये माने कोई वो माने

सब तेरे हैं जाना काशाने

कोई ये माने कोई वो माने

इक होने का तेरे काइल है

इनकार पे कोई माइल है

असलियत तेरी तू जाने

कोई ये माने कोई वो माने

इक खल्क में शामिल करता है

इक सबसे अकेला रहता है

हैं दोनों तेरे मस्ताने

कोई ये माने कोई वो माने


सब हैं जब आशिक़ तुम्हारे नाम के

क्यूं ये झगड़े हैं रहीम-ओ-राम के

तुम इक गोरख धंधा हो


दैर में तू हरम में तू 

अर्श पे तू ज़मीन पे तू

जिस की पहुंच जहां तलक

उसके लिए वहीं पे तू

तुम इक गोरख धंधा हो


हर इक रंग में यक्ता हो

तुम इक गोरख धंधा हो


मरकज ए जुस्तजू

आलम-ए-रंग-ओ-बू

दम बा दम जलवा गर

तू ही तू चार सू

हू के माहौल में

कुछ नहीं इल्ला हू

तुम बहुत दिलरुबा

तुम बहुत खूबरू

अर्श की अस्मतें 

फर्श की आबरू

तुम हो कोनेन का

हासिल ए आरज़ू

आंख ने कर लिया 

आंसूओं से वजू

अब तो कर दो अता

दीद का इक सुबू

आओ पर्दे से तुम

आंख के रूबरू

चंद लम्हें मिलन

दो घड़ी गुफ्तगू

नाज़ जप्ता फिरे

जा ब जा कू ब कू

वाह दा हू वाह दा हू

ला शरीका लहू

अल्लाह हू

अल्ला हू

दबे पैरों से उजाला आ रहा है

 दबे पैरों से उजाला आ रहा है

फिर कथाओं को खँगाला जा रहा है


धुंध से चेहरा निकलता दिख रहा है

कौन क्षितिजों पर सवेरा लिख रहा है

चुप्पियाँ हैं जुबाँ बनकर फूटने को

दिलों में गुस्सा उबाला जा रहा है


दूर तक औश् देर तक सोचें भला क्या

देखना है बस फिजाँ में है घुला क्या

हवा में उछले सिरों के बीच ही अब

सच शगूफे सा उछाला जा रहा है


नाचते हैं भय सियारों से रँगे हैं

जिधर देखो उस तरफ कुहरे टँगे हैं

जो नशे में धुत्त हैं उनकी कहें क्या

होश वालों को सँभाला जा रहा है


स्थगित है गति समय का रथ रुका है

कह रहा मन बहुत नाटक हो चुका है

प्रश्न का उत्तर कठिन है इसलिए भी

प्रश्न सौ.सौ बार टाला जा रहा है


सेंध गहरी नींद में भी लग गई है

खीझती सी रात काली जग गई है

दृष्टि में है रोशनी की एक चलनी

और गाढ़ा धुआँ चाला जा रहा है

बगिया लहूलुहान

हरियाली को आँखे तरसें बगिया लहूलुहान

प्यार के गीत सुनाऊँ किसको शहर हुए वीरान

बगिया लहूलुहान ।

 

डसती हैं सूरज की किरनें चाँद जलाए जान

पग-पग मौत के गहरे साए जीवन मौत समान

चारों ओर हवा फिरती है लेकर तीर-कमान

बगिया लहूलुहान ।

 

छलनी हैं कलियों के सीने खून में लतपत पात

और न जाने कब तक होगी अश्कों की बरसात

दुनियावालों कब बीतेंगे दुख के ये दिन-रात

ख़ून से होली खेल रहे हैं धरती के बलवान

बगिया लहू लुहान ।

उरुजे-कामयाबी पर कभी हिंदोस्तां होगा -

उरुजे-कामयाबी पर कभी हिंदोस्तां होगा -

उरुजे-कामयाबी पर कभी हिंदोस्तां होगा

रिहा सैयाद के हाथों अपना आशियां होगा।


चखाएंगे मजा़ बरबादी-ए-गुलशन के गुलचीं को

बहार आ जाएगी उस दिन जब अपना बाग़बां होगा।


जुदा मत हो मिरे पहलू से ए दर्दे-वतन हरगिज,
          
न जाने बादे-मुरदन मैं कहां और तू कहां होगा। 


वतन की आबरु का पास देखें कौन करता है

सुना है आज मक़तल में हमारा इम्तेहां होगा।


ये आये दिन की छेड़ अच्छी नही ऐ ख़ंजरे-क़ातिल
         
बता कब फैसला उनके हमारे दरमियां होगा।


शहीदों के मजारों पर लगेंगे हर बरस मेले

वतन पर मरने वालों का यही बाक़ी निशां होगा।


कभी वो दिन भी आयेगा जब अपना राज देखेंगे
        
जब अपनी ही जमीन होगी, जब अपना आसमां होगा।


                                - रामप्रसाद बिस्मिल  




..... 

रउरा सासन के बाटे

रउरा सासन के बाटे 

रउरा सासन के बाटे ना जवाब भाई जी,

रउरा कुरसी से झरेला गुलाब भाई जी। 


रउरा भोंभा लेके सगरों आवाज करीला,

हमारा मुंहवा में लागल बाटे जाब भाई जी। 


रउरे बुढ़िया के गलवा में क्रीम लागेला,

हमरी नइकी के जरि गइले भाग भाई जी। 


रउरे लरिका त पढ़ेला बिलाईत जाई के,

हमरे लरिका के जुरे ना किताब भाई जी। 


हमरे लरिका के रोटिया पर नून नइखे,

रउरा चांपीं  रोज मुरगा कबाब भाई जी। 


रउरे अंगुरी पर पुलिस आऊर थाना नाचे ले,

हमरे मुअले के होखे न हिसाब भाई जी। 







...... 

पढना-लिखना सीखो

पढना-लिखना सीखो -

पढना-लिखना सीखो ओ मेहनत करने वालो
पढना-लिखना सीखो ओ भूख से मरने वालो

क ख ग घ को पहचानो
अलिफ़ को पढना सीखो,
अ आ इ ई को हथियार
बनाकर लड़ना सीखो

ओ सडक बनाने वालो, ओ भवन उठाने वालो
खुद अपनी किस्‍मत का फैसला अगर तुम्‍हें करना है
ओ बोझा ढोने वालो, ओ रेल चलाने वालो
अगर देश की बागडोर को कब्‍जे में करना है

क ख ग घ को पहचानो
अलिफ को पढना सीखो,
अ आ इ ई को हथियार
बनाकर लड़ना सीखो

पूछो मजदूरी की खातिर लोग भटकते क्‍यों हैं ?
पढो, तुम्‍हारी सूखी रोटी गिद्ध लपकते क्‍यों हैं ?
पूछो, मां-बहनों पर यों बदमाश झपटते क्‍यों हैं ?
पढो, तुम्‍हारी मेहनत का फल सेठ गटकते क्‍यों हैं ?

पढो, लिखा है दीवारों पर महनतकश का नारा
पढो, पोस्‍टर क्‍या कहता है, वो भी दोस्‍त तुम्‍हारा
पढो, अगर अंधे विश्‍वासों से पाना छुटकारा
पढो, किताबें कहती हैं - सारा संसार तुम्‍हारा
पढो, कि हर मेहनतकश को उसका हक़ दिलवाना है
पढो, अगर इस देश को अपने ढंग से चलवाना है

क ख ग घ को पहचानो
अलिफ को पढना सीखो,
अ आ इ ई को हथियार
बनाकर लड़ना सीखो


                                   -सफदर हाशमी






...... 

सदा आ रही है मरे दिल से पैहम - हबीब जालिब

सदा आ रही है मरे दिल से पैहम 


सदा आ रही है मरे दिल से पैहम 

कि होगा हर इक दुश्मन-ए-जाँ का सर ख़म 

नहीं है निज़ाम-ए-हलाकत में कुछ दम 

ज़रूरत है इंसान की अम्न-ए-आलम 

फ़ज़ाओं में लहराएगा सुर्ख़ परचम 

सदा आ रही है मिरे दिल से पैहम 

न ज़िल्लत के साए में बच्चे पलेंगे 

न हाथ अपने क़िस्मत के हाथों मलेंगे 

मुसावात के दीप घर घर जलेंगे 

सब अहल-ए-वतन सर उठा के चलेंगे 

न होगी कभी ज़िंदगी वक़्फ़-ए-मातम 

फ़ज़ाओं में लहराएगा सुर्ख़ परचम 

कब याद में तेरा साथ नहीं कब हात में तेरा हात नहीं

कब याद में तेरा साथ नहीं कब हात में तेरा हात नहीं 

सद-शुक्र कि अपनी रातों में अब हिज्र की कोई रात नहीं 

मुश्किल हैं अगर हालात वहाँ दिल बेच आएँ जाँ दे आएँ 

दिल वालो कूचा-ए-जानाँ में क्या ऐसे भी हालात नहीं 

जिस धज से कोई मक़्तल में गया वो शान सलामत रहती है 

ये जान तो आनी जानी है इस जाँ की तो कोई बात नहीं 

मैदान-ए-वफ़ा दरबार नहीं याँ नाम-ओ-नसब की पूछ कहाँ 

आशिक़ तो किसी का नाम नहीं कुछ इश्क़ किसी की ज़ात नहीं 

गर बाज़ी इश्क़ की बाज़ी है जो चाहो लगा दो डर कैसा 

गर जीत गए तो क्या कहना हारे भी तो बाज़ी मात नहीं 


बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे

बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे 

बोल ज़बाँ अब तक तेरी है 

तेरा सुत्वाँ जिस्म है तेरा 

बोल कि जाँ अब तक तेरी है 

देख कि आहन-गर की दुकाँ में 

तुंद हैं शोले सुर्ख़ है आहन 

खुलने लगे क़ुफ़्लों के दहाने 

फैला हर इक ज़ंजीर का दामन 

बोल ये थोड़ा वक़्त बहुत है 

जिस्म ओ ज़बाँ की मौत से पहले 

बोल कि सच ज़िंदा है अब तक 

बोल जो कुछ कहना है कह ले 

वो सुब्ह कभी तो आएगी - साहिर लुधियानवी

वो सुब्ह कभी तो आएगी - साहिर लुधियानवी 


इन काली सदियों के सर से जब रात का आँचल ढलकेगा 
जब दुख के बादल पिघलेंगे जब सुख का सागर छलकेगा 
जब अम्बर झूम के नाचेगा जब धरती नग़्मे गाएगी 
वो सुब्ह कभी तो आएगी 

जिस सुब्ह की ख़ातिर जग जग से हम सब मर मर कर जीते हैं 
जिस सुब्ह के अमृत की धुन में हम ज़हर के प्याले पीते हैं 
इन भूकी प्यासी रूहों पर इक दिन तो करम फ़रमाएगी 
वो सुब्ह कभी तो आएगी 

माना कि अभी तेरे मेरे अरमानों की क़ीमत कुछ भी नहीं 
मिट्टी का भी है कुछ मोल मगर इंसानों की क़ीमत कुछ भी नहीं 
इंसानों की इज़्ज़त जब झूटे सिक्कों में न तोली जाएगी 
वो सुब्ह कभी तो आएगी 

दौलत के लिए जब औरत की इस्मत को न बेचा जाएगा 
चाहत को न कुचला जाएगा ग़ैरत को न बेचा जाएगा 
अपने काले करतूतों पर जब ये दुनिया शरमाएगी 
वो सुब्ह कभी तो आएगी 

बीतेंगे कभी तो दिन आख़िर ये भूक के और बेकारी के 
टूटेंगे कभी तो बुत आख़िर दौलत की इजारा-दारी के 
जब एक अनोखी दुनिया की बुनियाद उठाए जाएगी 
वो सुब्ह कभी तो आएगी 

मजबूर बुढ़ापा जब सूनी राहों की धूल न फाँकेगा 
माश्सूम लड़कपन जब गंदी गलियों में भीक न माँगेगा 
हक़ माँगने वालों को जिस दिन सूली न दिखाई जाएगी 
वो सुबह कभी तो आएगी 

फ़ाक़ों की चिताओं पर जिस दिन इंसाँ न जलाए जाएँगे 
सीने के दहकते दोज़ख़ में अरमाँ न जलाए जाएँगे 
ये नरक से भी गंदी दुनिया जब स्वर्ग बताई जाएगी 
वो सुब्ह कभी तो आएगी 

जब धरती करवट बदलेगी जब क़ैद से क़ैदी छूटेंगे 
जब पाप घरौंदे फूटेंगे जब ज़ुल्म के बंधन टूटेंगे 
उस सुब्ह को हम ही लाएँगे वो सुब्ह हमीं से आएगी 
वो सुब्ह हमीं से आएगी 

मनहूस समाजी ढाँचों में जब ज़ुल्म न पाले जाएँगे 
जब हाथ न काटे जाएँगे जब सर न उछाले जाएँगे 
जेलों के बिना जब दुनिया की सरकार चलाई जाएगी 
वो सुब्ह हमीं से आएगी 

संसार के सारे मेहनत-कश खेतों से मिलों से निकलेंगे 
बे-घर बे-दर बे-बस इंसाँ तारीक बिलों से निकलेंगे 
दुनिया अम्न और ख़ुश-हाली के फूलों से सजाई जाएगी 
वो सुब्ह हमीं से आएगी 


ये किस का लहू है कौन मरा

ये किस का लहू है कौन मरा 


धरती की सुलगती छाती से बेचैन शरारे पूछते हैं 

तुम लोग जिन्हें अपना न सके वो ख़ून के धारे पूछते हैं 

सड़कों की ज़बाँ चिल्लाती है सागर के किनारे पूछते हैं 

ये किस का लहू है कौन मरा ऐ रहबर-ए-मुलक-ओ-क़ौम बता 


ये जलते हुए घर किस के हैं ये कटते हुए तन किस के हैं 

तक़्सीम के अंदर तूफ़ाँ में लुटते हुए गुलशन किस के हैं 

बद-बख़्त फ़ज़ाएँ किस की हैं बरबाद नशेमन किस के हैं 

कुछ हम भी सुनें हम को भी सुना 


किस काम के हैं ये दीन-धर्म जो शर्म का दामन चाक करें 

किस तरह के हैं ये देश-भगत जो बस्ते घरों को ख़ाक करें 

ये रूहें कैसी रूहें हैं जो धरती को नापाक करें 

आँखें तो उठा नज़रें तो मिला 


जिस राम के नाम पे ख़ून बहे उस राम की इज़्ज़त क्या होगी 

जिस दीन के हाथों लाज लुटे इस दीन की क़ीमत क्या होगी 

इंसान की इस ज़िल्लत से परे शैतान की ज़िल्लत क्या होगी 

ये वेद हटा क़ुरआन उठा 

ये किस का कहो है कौन मिरा 

ये किस का लहू है कौन मरा ऐ रहबर-ए-मुलक-ओ-क़ौम बता 

गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौ-बहार चले


गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौ-बहार चले 
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले 
क़फ़स उदास है यारो सबा से कुछ तो कहो 
कहीं तो बहर-ए-ख़ुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले 
कभी तो सुब्ह तिरे कुंज-ए-लब से हो आग़ाज़ 
कभी तो शब सर-ए-काकुल से मुश्क-बार चले 
बड़ा है दर्द का रिश्ता ये दिल ग़रीब सही 
तुम्हारे नाम पे आएँगे ग़म-गुसार चले 
जो हम पे गुज़री सो गुज़री मगर शब-ए-हिज्राँ 
हमारे अश्क तिरी आक़िबत सँवार चले 
हुज़ूर-ए-यार हुई दफ़्तर-ए-जुनूँ की तलब 
गिरह में ले के गरेबाँ का तार तार चले 
मक़ाम 'फैज़' कोई राह में जचा ही नहीं 
जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले 

मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग

मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग 

मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़्शाँ है हयात 

तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है 

तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात 

तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है 

तू जो मिल जाए तो तक़दीर निगूँ हो जाए 

यूँ न था मैं ने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाए 

और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा 

राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा 

अन-गिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिस्म 

रेशम ओ अतलस ओ कमख़ाब में बुनवाए हुए 

जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म 

ख़ाक में लुथड़े हुए ख़ून में नहलाए हुए 

जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से 

पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से 

लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे 

अब भी दिलकश है तिरा हुस्न मगर क्या कीजे 

और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा 

राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा 

मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग 

चंद रोज़ और मिरी जान

चंद रोज़ और मिरी जान फ़क़त चंद ही रोज़ 

ज़ुल्म की छाँव में दम लेने पे मजबूर हैं हम 

और कुछ देर सितम सह लें तड़प लें रो लें 

अपने अज्दाद की मीरास है माज़ूर हैं हम 

जिस्म पर क़ैद है जज़्बात पे ज़ंजीरें हैं 

फ़िक्र महबूस है गुफ़्तार पे ताज़ीरें हैं 

अपनी हिम्मत है कि हम फिर भी जिए जाते हैं 

ज़िंदगी क्या किसी मुफ़लिस की क़बा है जिस में 

हर घड़ी दर्द के पैवंद लगे जाते हैं 

लेकिन अब ज़ुल्म की मीआद के दिन थोड़े हैं 

इक ज़रा सब्र कि फ़रियाद के दिन थोड़े हैं 

अरसा-ए-दहर की झुलसी हुई वीरानी में 

हम को रहना है पे यूँही तो नहीं रहना है 

अजनबी हाथों का बे-नाम गिराँ-बार सितम 

आज सहना है हमेशा तो नहीं सहना है 

ये तिरे हुस्न से लिपटी हुई आलाम की गर्द 

अपनी दो रोज़ा जवानी की शिकस्तों का शुमार 

चाँदनी रातों का बेकार दहकता हुआ दर्द 

दिल की बे-सूद तड़प जिस्म की मायूस पुकार 

चंद रोज़ और मिरी जान फ़क़त चंद ही रोज़