तेरे जैसा यार कहाँ

 तेरे जैसा यार कहाँ, कहाँ ऐसा याराना

याद करेगी दुनिया, तेरा मेरा अफ़साना

तेरे जैसा यार कहाँ


मेरी ज़िन्दगी संवारी, मुझको गले लगा के

बैठा दिया फ़लक पे, मुझे ख़ाक से उठा के

यारा तेरी यारी को, मैंने तो ख़ुदा माना

याद करेगी दुनिया


मेरे दिल की ये दुआ है, कभी दूर तू न जाए

तेरे बिना हो जीना, वो दिन कभी न आए

तेरे संग जीना यहाँ, तेरे संग मर जाना

याद करेगी दुनिया


बरसात के मौसम में

बरसात के मौसम में

तन्हाई के आलम में

मैं घर से निकल आया

बोतल भी उठा लाया

अभी ज़िंदा हूँ तो जी लेने दो

भरी बरसात में पी लेने दो


मुझे टुकड़ों में नहीं जीना है

क़तरा क़तरा तो नहीं पीना है

हो आज पैमाने हटा दो यारों

हाँ सारा मयख़ाना पिला दो यारों

मयकदों में तो पीया करता हूँ

चलती राहों में भी पी लेने दो

अभी ज़िंदा हूँ तो जी लेने दो

भरी बरसात में पी लेने दो


मेरे दुश्मन हैं ज़माने के गम

बाद पिने के ये होंगे कम

ज़ुल्म दुनिया के न सह पायूँगा

बिन पिये आज न रह पायूँगा

मुझे हालात से टकराना है

मुझे हालात से टकराना है

ऐसे हालात में पी लेने दो

अभी ज़िंदा हूँ तो जी लेने दो

भरी बरसात में पी लेने दो


आज की शाम बड़ी बोझल  है

आज की रात बड़ी कातिल है

हो आज की शाम ढलेगी कैसे

हां आज की रात कटेगी कैसे

आग से आग बुझेगी दिल की

आग से आग बुझेगी दिल की

मुझे ये आज भी पीलेने दो

अभी ज़िंदा हूँ तो जी लेने दो

भरी बरसात में पी लेने दो


यूँ ही कट जाएगा सफ़र

यूँ ही कट जाएगा सफ़र साथ चलने से

के मंजिल आएगी नज़र साथ चलने से


हम हैं राही प्यार के चलना अपना काम

पलभर में हो जायेगी हर मुश्किल नाकाम

हौंसला ना हारेंगे, हम तो बाज़ी मारेंगे

यूँ ही कट जाएगा सफ़र


कहती हैं ये वादियाँ बदलेगा मौसम

ना कोई परवाह है खुशियाँ हो या गम

आँधियों से खेलेंगे, दर्द सारे झेलेंगे

यूँ ही कट जाएगा सफ़र


मेहनत के आगे सभी तकदीरें बेकार

होती उसकी जीत है जो न माने हार

रात जब ढल जाती, सुबह सुहानी आती है

यूँ ही कट जाएगा सफ़र

यारी है ईमान मेरा यार मेरी ज़िंदगी

ग़र ख़ुदा मुझसे कहे

कुछ माँग ऐ बंदे मेरे

मैं ये माँगूँ

महफ़िलों के दौर यूँ चलते रहें

हमप्याला हो, हमनवाला हो, हमसफ़र हमराज़ हों

ता.क़यामत जो चिराग़ों की तरह जलते रहें


यारी है ईमान मेरा यार मेरी ज़िंदगी

प्यार हो बंदों से ये सबसे बड़ी है बंदगी


साज़-ए-दिल छेड़ो जहां में, प्यार की गूँजे सदा

जिन दिलों में प्यार है उनसे बहारें हों फ़िदा

प्यार लेके नूर आया, प्यार लेके सादगी

यारी है ईमान मेरा


जान भी जाए अगर, यारी में यारों ग़म नहीं

अपने होते यार हो ग़मगीन, मतलब हम नहीं

हम जहाँ हैं उस जगह, झूमेगी नाचेगी ख़ुशी

यारी है ईमान मेरा


गुल-ए-गुलज़ार क्यों बेज़ार नज़र आता है

चश्म-ए-बद का शिकार यार नज़र आता है

छुपा न हमसे, ज़रा हाल-ए-दिल सुना दे तू

तेरी हँसी की क़ीमत क्या है, ये बता दे तू


कहे तो आसमाँ से चाँद-तारे ले आऊँ

हंसी जवान और दिलकश नज़ारे ले आऊँ

ओए! ओए! क़ुर्बान

तेरा ममनून हूँ, तूने निभाया याराना

तेरी हँसी है आज सबसे बड़ा नज़राना

यार के हँसते ही, महफ़िल पे जवानी आ गई, आ गई

यारी है ईमान मेरा


लो शेर! कुरबां! कुरबां!

इतने भले नहीं बन जाना साथी

इतने भले नहीं बन जाना साथी

इतने भले नहीं बन जाना साथी

जितने भले हुआ करते हैं सरकस के हाथी

गधा बनने में लगा दी अपनी सारी कुव्वत सारी प्रतिभा

किसी से कुछ लिया नहीं न किसी को कुछ दिया

ऐसा भी जिया जीवन तो क्या जिया,


इतने दुर्गम मत बन जाना साथी 

सम्भव ही रह जाय न तुम तक कोई राह बनाना

अपने ऊंचे सन्नाटे में सर धुनते रह गए

लेकिन किंचित भी जीवन का मर्म नहीं जाना


इतने चालू मत हो जाना साथी 

सुन-सुन कर हरक़ते तुम्हारी पड़े हमें शरमाना

बग़ल दबी हो बोतल मुँह में जनता का अफसाना

ऐसे घाघ नहीं हो जाना 


ऐसे कठमुल्ले मत बनना

बात नहीं हो मन की तो बस तन जाना

दुनिया देख चुके हो यारो

एक नज़र थोड़ा-सा अपने जीवन पर भी मारो

पोथी-पतरा-ज्ञान-कपट से बहुत बड़ा है मानव

कठमुल्लापन छोड़ो

उस पर भी तो तनिक विचारो


काफ़ी बुरा समय है साथी

गरज रहे हैं घन घमण्ड के नभ की फटती है छाती

अंधकार की सत्ता चिल-बिल चिल-बिल मानव-जीवन

जिस पर बिजली रह-रह अपना चाबुक चमकाती

संस्कृति के दर्पण में ये जो शक्लें हैं मुस्काती

इनकी असल समझना साथी

अपनी समझ बदलना साथी

कल, आज और कल - लाल बैंड

कल, आज और कल - लाल बैंड 


अहद-ए-जवानी में हमने देखे थे कुछ  ख्वाब सुहाने 

एक नई दुनिया के फ़साने, एक नई दुनिया के तराने 

ऐसी दुनिया जिसमें कोई दुःख न झेले भूख न जाने 


एक तरफ थी जनता सारी, एक तरफ थे चंद घराने 

एक तरफ थे भूखे-नंगे, एक तरफ कारू के खजाने 

एक तरफ थी माएं - बहनें, एक तरफ तहसील और थाने 

एक तरफ थी तीसरी दुनिया, एक तरफ बेदाद पुराने 

एक तरफ सच्चल और बाहू, एक तरफ मुल्लाह और मसलक 

एक तरफ थे हीर और रांझा, एक तरफ काजी और चूचक 

एक तरफ अमरत के धारे, एक तरफ थे धारे-बिसके 

सारी दुनिया पूछ रही थी, बोलो अब तुम साथ हो किसके         


हम ये बाबर कर बैठे थे, सब साथी हैं मजदूरों के 

सब हामी हैं मजबूरों के, सब साथी हैं महकूमों के  

चे ने जब एक जस्त लगाईं,  हम भी उसके साथ चले  थे

चू ने जब आवाज़ उठाई , हाथ में डाले हाथ चले थे 

 मजहब की तफरेक नहीं थी, और हम सारे एक हुए थे 

 

दुनिया की तारीख गवाह है, अदल बिना जमहूर न होगा  

अदल हुआ तो देश हमारा कभी भी चकनाचूर न  होगा 

अदल बिना कमजोर मिदारे, अदल बिना कमजोर इकाइयाँ 

अदल बिना बेबस हर शहरी, अदल बिना हर सिम्त इकाइयाँ 


दुनिया की तारीख में सोचो कब कोई मुंसिफ कैद हुआ है 

आमिर की अपनी ही अनाह से अदल यहाँ नापैग हुआ है 

क्यों लगता है एक ही ताकत अर्ज-ए-खुदा पे घूम रही है 

क्यों लगता है हर एक हुकूमत पाँव उसके चूम रही है 


उसकी बमबारी के बाइज खून में सब लबरेज़ हुए हैं 

मजहब में शिद्दत आई है, खुद कुछ जंग जूँ तेज हुए हैं 

अदल के इवानों में सुन लो, असली मुंसिफ फिर आएंगे 

रोटी, कपड़ा और घर अपना जनता को हम दिलवाएंगें 

आटा, बिजली, पानी,ईंधन सबको सस्ते दाम मिलेगा 

बेरोजगारों को हर मुम्किन  

 

जाग मेरे मन मछंदर !

जाग मेरे मन मछंदर!


जाग मेरे मन मछंदर!

रमी है धूनी

सुलगती आग

मेरे मन मछंदर!


जाग मेरे मन मछंदर!


किंतु मन की

तलहटी में

बहुत गहरी

और अंधेरी

खाइयां हैं

रह चुकीं जो

डायनासर का बसेरा

सो भयानक

कंदराएं हैं

कंदराओं में भरे

कंकाल

मेरे मन मछंदर!


रेंगते भ्रम के

भयानक व्याल

मेरे मन मछंदर!


क्षुद्रता के

और भ्रम के

इस भयानक

नाग का फन

ताग तू

फिर से मछंदर!


जाग मेरे मन मछंदर!


रमी है धूनी

सुलगती आग

मेरे मन मछंदर!


सूखते हैं खेत

भरती रेत

जीवन हुआ निर्जल

किंतु फिर भी

बह रहा कल-कल

क्षीण-सी जलधार ले कर

प्यार और दुलार ले कर

एक झरना फूटता

मन में मछंदर!


सजल जीवन के लिए

अनुराग भर कर


जाग मेरे मन मछंदर!


रमी है धूनी

सुलगती आग

मेरे मन मछंदर!


भरा है सागर मेरे मन

जहां से उठ कर

मघा के

मेघ छाते हैं

और मन के गगन में घिर

गरजते हैं घन मछंदर!

वृष्टि का उल्लास

भर कर जाग

मेरे मन मछंदर!


रमी है धूनी

सुलगती आग

मेरे मन मछंदर!


सो रहा संसार

पूंजी का

विकट भ्रमजाल

किंतु फिर भी सर्जना के

एक छोटे-से नगर में

जागता है एक नुक्कड़

चिटकती चिंगारियां

उठता धुआं है

सुलगता है एक लक्कड़

तिलमिलाते आज भी

कुछ लोग

सुन कर देख कर अन्याय

और लड़ने के लिए

अब भी बनाते मन मछंदर!


फिर नए संघर्ष का

उन्वान ले कर

जाग मेरे मन मछंदर!


रमी है धूनी

सुलगती आग

मेरे मन मछंदर!


बिक रहे मन

बिक रहे तन

देश बिकते

दृष्टि बिकती

एक डॉलर पर

समूची सृष्टि बिकती

और

राजा ने लगाया

फिर हमें नीलाम पर

एक कौड़ी दाम पर

लो बिक रहा

जन.गण मछंदर!


मुक्ति का परचम उठाकर

जाग मेरे मन मछंदर!


रमी है धूनी

सुलगती आग

मेरे मन मछंदर!


गीत बिकते गान बिकते

मान और अभिमान बिकते

हर्ष और विषाद बिकते

नाद और निनाद बिकते

बिक रही हैं कल्पनाएं

बिक रही हैं भावनाएं

और अपने बिक रहे हैं

और सपने बिक रहे हैं

बिक रहे बाजार की

खिल्ली उड़ाता

विश्व के बाजार के

तंबू उड़ाता

आ गया गोरख

लिए नौ गीत अपने

सुन मछंदर!


रमी है धूनी

सुलगती आग

मेरे मन मछंदर!


सो रहे संसार में

नव जागरण का

ज्वार ले कर कांप

कांप रचना के

प्रबल उन्माद में

थर-थर मछंदर!


फिर चरम बलिदान का

उद्दाम निर्झर बन मछंदर!

जाग जन-जन में मछंदर!

जाग कण-कण में मछंदर!


रमी है धूनी

सुलगती आग

मेरे मन मछंदर

ओ मेरे आदर्शवादी मन,

ओ मेरे आदर्शवादी मन,

ओ मेरे सिद्धान्तवादी मन,

अब तक क्या किया

जीवन क्या जिया !


उदरम्भरि बन अनात्म बन गये

भूतों की शादी में क़नात.से तन गये

किसी व्यभिचारी के बन गये बिस्तर


दुःखों के दाग़ों को तमग़ों सा पहना

अपने ही ख़यालों में दिन-रात रहना

ज़िन्दगी निष्क्रिय बन गयी तलघर

अब तक क्या किया

जीवन क्या जिया !


बताओ तो किस-किसके लिए तुम दौड़ गये

करुणा के दृश्यों से हाय! 

मुँह मोड़ गये,

बन गये पत्थर


अब तक क्या किया

जीवन क्या जिया


कहब तो लाग जाई धक् से

 कहब तो लाग जाई धक् से

 

 बड़े - बड़े  लोगन के बंगला दो बंगला 

और भैया  ऐ.सी.  अलग से, अलग से 

हमरें गरीबन कि झोपड़ी जुलमवा 

बरसे से पानी चूए टाप-टाप से 

  

 बड़े - बड़े  लोगन का पूरी और रबड़ी 

और भैया हलवा अलग से, अलग से 

हमरें गरीबन के रोटी जुलमवा 

खाए से पेट में गड़े हक से, हक से


 बड़े - बड़े  लोगन के जीन्स और पैंट भैया 

और भैया कोटो अलग से , अलग से 

हमरें गरीबन के कुरता ज़ुलमवा ज़ुलमवा  

पहने से फट जाइ चर से, चर से 

 

बड़े -  बड़े लोगन के  मोटर और कार भैया 

और हीरो हॉन्डा अलग से, अलग से 

हमरें गरीबन के साइकिल जुलमवा 

साइकिल चलें, टायर बोले फाट से, फाट से 


बड़े- बड़े लोगन के डल्लब के गद्दा 

और भैया सोफा अलग से , अलग से 

 हमरें गरीबन के खटिया जुलमवा 

सोये से टूट जाइ खट से, खट से    


बड़े - बड़े लोगन के जूता और सैंडल 

और भैया मऊजा अलग से , अलग से 

हमरें गरीबन के चप्पल जुलमवा 

चलें से काटा गड़े , घप से, घप से 


बड़े - बड़े लोगन के बीयर और विस्की 

और भैया पेप्सी अलग से, अलग से 

हमरें गरीबन के पानी जुलमवा 

पीये से पेट झड़े झर् से, झर् से 


कहब तो लाग जाइ धाक से   


दर्द रुकता नहीं एक पल भी

दर्द रुकता नहीं एक पल भी



शेर- 

उदासियाँ जो न लाते तो और क्या करते 

न जश्न-ए-शोला मनाते तो और क्या करते 

अन्धेरा मांगने आया था रौशनी की भीख

हम अपना घर न जलाते तो और क्या करते  


शेर -

आज की बात फिर नहीं होगी

ये मुलाक़ात फिर नहीं होगी

ऐसे बदल तो फिर भी आएंगे

ऐसी बरसात फिर नहीं होगी

रात उनको भी यूँ हुआ महसूस

जैसे ये रात फिर नहीं होगी

एक नज़र मुडके देखने वाले

क्या ये खैरात फिर नहीं होगी


शेर- 

शब-ए-गम की सहर नहीं होती 

हो भी तो मेरे घर नहीं होती 

ज़िन्दगी तू ही मुख्तासर हो जा

शब-ए-गम मुख्तासर नहीं होती 


शेर- 

उसके नजदीक गम-ए-तर्क-ए-वफ़ा कुछ भी नहीं

मूतमाइन ऐसे है जैसे हुआ कुछ भी नहीं

उसको खो कर अब तो हाथो से लकीरे भी मिटी जाती है

उसको खो कर तो मेरे पास रहा कुछ भी नहीं


शेर- 

कल बिछड़ना है तो फिर एहद-ए-वफ़ा सोच के बाद 

अभी आगाज-ऐ-मोहब्बत है गया कुछ भी नहीं

मैं तो इस वास्ते चुप था की तमाशा ना बने

तू समझता है मुझे तुझसे गिला कुछ भी नहीं


शेर-

आज रूठे हुए सजन को बहुत याद किया

अपने उजड़े हुए गुलशन को बहुत याद किया

जब कभी गर्दिश-ए-तकदीर ने घेरा है हमे

केसू-ए-यार की उलझन को बहुत याद किया


शेर- 

आज टूटे हुए सपनों की बहुत याद आई

आज बीते हुए सावन को बहुत याद किया


दर्द रुकता नहीं एक पल भी

इश्क की ये सजा मिल रही है

मौत से पहले ही मर गए हम

चोट नजरो की ऐसी लगी है


शेर- 

जबसे लगी है आंख भी मेरी लगी नहीं

ये आतिश-ए-फ़िराक है रहती दबी नहीं


उनसे ऐसी लगी है

उनसे ऐसी लगी है

उनसे ऐसी लगी है


शेर-

जबसे लागे तोरे संग नैन पिया

मेरी रो रो के कटती है रैन पिया


उनसे ऐसी लगी है

उनसे ऐसी लगी है

उनसे ऐसी लगी है


सावन की काली रातों में

जब बूंदा बांदी होती है

जग सुख की नींद में सोता है

और बिरहा हमारी रोती है


उनसे ऐसी लगी है

उनसे ऐसी लगी है

उनसे ऐसी लगी है


मौत से पहले ही मर गए हम

चोट नजरो की ऐसी लगी है


बेवफा इतना एहसान कर दे

कम से कम इश्क की लाज रख ले

दो कदम चल के कान्धा तो दे दे

तेरे आशिक की मईयत उठी है


रात कटती है गिन गिन के तारे


रात कटती है गिन गिन के

गिन गिन के तारे

रात कटती है गिन गिन के

गिन गिन के तारे


शेर-

माना शुमार तारो का करना मुहाल है

लेकिन किसी को नींद ना आए तो क्या करे


गिन गिन के तारे

रात कटती है गिन गिन के

गिन गिन के तारे


शेर-

किसी की शब-ए-वस्ल सोते कटे है

किसी की शब-ए-हिजर रोते कटे है

इलाही हमारी ये शब कैसी शब है

ना रोते कटे है ना सोते कटे है बस 


गिन गिन के तारे

रात कटती है गिन गिन के

गिन गिन के तारे


सितारों  सितारों


सितारों मेरी रातो के सहारो सितारों

मुहब्बत की चमकती यादगारों सितारों

ना जाने मुझको नींद आये ना आये

तुम्ही आराम करलो बेकरारो


गिन गिन के तारे

रात कटती है गिन गिन के

गिन गिन के तारे


रात कटती है गिन गिन के तारे

नींद आती नहीं एक पल भी


रात कटती है गिन गिन के तारे

नींद आती नहीं एक पल भी

आंख लगती नहीं अब हमारी

आंख उस बुत से ऐसी लगी है


इस कदर मेरे दिल को निचोड़ा

एक कतरा लहू का ना छोड़ा

जगमाती है जो उनकी खल्वत

वो मेरे खून की रौशनी है


लडखडाता हुआ जब भी नादान 

उनकी रंगीन महफ़िल में पंहुचा

देख कर मुझको लोगो से बोले

ये वही बेवफा आदमी है


दर्द रुकता नहीं एक पल भी

इश्क की ये सजा मिल रही है

पगड़ी संभाल जट्टा - लेजेंड ऑफ भगत सिंह


 तेरा लुट ना जाए माल ओए

ओ जट्टा पगड़ी संभाल ओए


पगड़ी संभाल जट्टा पगड़ी संभाल ओए

तेरा लुट ना जाए माल जट्टा पगड़ी संभाल ओए

तोड़ गुलामी की जंजीरें बदल दे तू अपनी तक़दीरें

पड़ जा ऐसा इनके पल्ले , कर दे इनकी बल्ले-बल्ले


आसमानो को भी वो झुकाये झुकाये

यारों जो कभी भी हिम्मत ना हारे

आदमी यहां पे जो चाहे जो चाहे

यारों तो जमीन पे लाये सितारें

बाँधा किसने तेज हवा को, वक्त को किसने देखा

मेहनत से ही बदलेगी तेरी हाथों की रेखा

तेरा लुट ना जाए माल जट्टा पगड़ी संभाल ओए


आज हम करेंगे ये वादा ये वादा जट्टा

आज हम करेंगे ये वादा

बैरियों को मिल के मिटाना मिटाना जट्टा

है यही तो अपना इरादा

फौलादी है बाहें तेरी, पत्थर का है सीना

करदे-करदे इन चोरों का अब तो मुश्किल जीना

तेरा लुट ना जाए माल जट्टा पगड़ी संभाल ओए

तोड़ गुलामी की जंजीरें, बदल दे तू अपनी तक़दीरें

पड़ जा ऐसा इनके पल्ले, कर दे इनकी बल्ले-बल्ले


पगड़ी सम्भाल जट्टा - शहीद फिल्म


पगड़ी सम्भाल जट्टा

पगड़ी सम्भाल ओए 

पगड़ी सम्भाल जट्टा

लुट गया माल ओए 


तू धरती की माँग सँवारे सोये खेत जगाये

सारे जग का पेट भरे तू अन्नदाता कहलाये

फिर क्यों भूख तुझे खाती है और तू भूख को खाये

लुट गया माल तेरा, लुट गया माल ओए 

पगड़ी सम्भाल जट्टा 


देके अपना खून पसीना तूने फ़सल उगायी

आँधी देखी तूफ़ाँ झेले बिपदा सभी उठायी

फ़सल कटी तो ले गये ज़ालिम तेरी नेक कमायी

लुट गया माल तेरा लुट गया माल ओए 

पगड़ी सम्भाल जट्टा


उठ और उठ के खाक़ से ज़र्रे एक सितारा बन जा

बुझा बुझा क्यों दिल है तेरा इक अंगारा बन जा

ओ सदियों के ठहरे पानी बहती धारा बन जा

लुट गया माल तेरा लुट गया माल ओए 

पगड़ी सम्भाल जट्टा

हम लड़ेंगे साथी

हम लड़ेंगे साथी, उदास मौसम के लिए

हम लड़ेंगे साथी,ग़ुलाम इच्छाओं के लिए

हम चुनेंगे साथी, ज़िन्दगी के टुकड़े


हथौड़ा अब भी चलता है, उदास निहाई पर

हल अब भी चलता हैं चीख़ती धरती पर

यह काम हमारा नहीं बनता है, सवाल नाचता है

सवाल के कन्धों पर चढ़कर

हम लड़ेंगे साथी


क़त्ल हुए जज़्बों की क़सम खाकर

बुझी हुई नज़रों की क़सम खाकर

हाथों पर पड़े गाँठों की क़सम खाकर

हम लड़ेंगे साथी


हम लड़ेंगे तब तक

जब तक वीरू बकरिहा

बकरियों का पेशाब पीता है

खिले हुए सरसों के फूल को

जब तक बोने वाले ख़ुद नहीं सूँघते

कि सूजी आँखों वाली

गाँव की अध्यापिका का पति जब तक

युद्ध से लौट नहीं आता


जब तक पुलिस के सिपाही

अपने भाइयों का गला घोंटने को मज़बूर हैं

कि दफ़्तरों के बाबू

जब तक लिखते हैं लहू से अक्षर

हम लड़ेंगे जब तक

दुनिया में लड़ने की ज़रूरत बाक़ी है


जब बन्दूक न हुई, तब तलवार होगी

जब तलवार न हुई, लड़ने की लगन होगी

लड़ने का ढंग न हुआ, लड़ने की ज़रूरत होगी


और हम लड़ेंगे साथी

हम लड़ेंगे

कि लड़े बग़ैर कुछ नहीं मिलता

हम लड़ेंगे

कि अब तक लड़े क्यों नहीं

हम लड़ेंगे

अपनी सज़ा कबूलने के लिए

लड़ते हुए मर जाने वाले की

याद ज़िन्दा रखने के लिए

हम लड़ेंगे

हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्‍सा मांगेंगे

हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्‍सा मांगेंगे

हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्‍सा मांगेंगे

इक खेत नहीं, इक देश नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे।


ये पर्वत-पर्वत हीरे हैं, ये सागर-सागर मोती हैं। 

ये सारा माल हमारा है, हम सारा खजाना मांगेंगे।


वो सेठ व्‍यापारी रजवारे, दस लाख तो हम हैं दस करोड। 

ये कब तक अमरीका से, जीने का सहारा मांगेंगे।


जो खून बहे जो बाग उजडे जो गीत दिलों में कत्‍ल हुए,

हर कतरे का हर गुंचे का, हर गीत का बदला मांगेंगे।


जब सब सीधा हो जाएगाए जब सब झगडे मिट जायेंगेए

हम मेहनत से उपजायेंगेए बस बांट बराबर खायेंगे।


हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्‍सा मांगेंगे। 

इक खेत नहीं, इक देश नही, हम सारी दुनिया मांगेंगे।

आज बाज़ार में पा-ब-जौलाँ चलो

चश्म-नम जान-ए-शोरीदा काफ़ी नहीं 

तोहमत-ए-इश्क़-ए-पोशीदा काफ़ी नहीं 

आज बाज़ार में पा-ब-जौलाँ चलो 

दस्त-अफ़्शाँ चलो मस्त ओ रक़्साँ चलो 

ख़ाक-बर-सर चलो ख़ूँ-ब-दामाँ चलो 

राह तकता है सब शहर-ए-जानाँ चलो 

हाकिम-ए-शहर भी मजमा-ए-आम भी 

तीर-ए-इल्ज़ाम भी संग-ए-दुश्नाम भी 

सुब्ह-ए-नाशाद भी रोज़-ए-नाकाम भी 

उन का दम-साज़ अपने सिवा कौन है 

शहर-ए-जानाँ में अब बा-सफ़ा कौन है 

दस्त-ए-क़ातिल के शायाँ रहा कौन है 

रख़्त-ए-दिल बाँध लो दिल-फ़िगारो चलो 

फिर हमीं क़त्ल हो आएँ यारो चलो 

निसार मैं तिरी गलियों के

निसार मैं तिरी गलियों के ऐ वतन कि जहाँ 

चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले 

जो कोई चाहने वाला तवाफ़ को निकले 

नज़र चुरा के चले जिस्म ओ जाँ बचा के चले 

है अहल-ए-दिल के लिए अब ये नज़्म-ए-बस्त-ओ-कुशाद 

कि संग-ओ-ख़िश्त मुक़य्यद हैं और सग आज़ाद 

बहुत है ज़ुल्म के दस्त-ए-बहाना-जू के लिए 

जो चंद अहल-ए-जुनूँ तेरे नाम.लेवा हैं 

बने हैं अहल-ए-हवस मुद्दई भी मुंसिफ़ भी 

किसे वकील करें किस से मुंसिफ़ी चाहें 

मगर गुज़ारने वालों के दिन गुज़रते हैं 

तिरे फ़िराक़ में यूँ सुब्ह ओ शाम करते हैं 

बुझा जो रौज़न-ए-ज़िंदाँ तो दिल ये समझा है 

कि तेरी माँग सितारों से भर गई होगी 

चमक उठे हैं सलासिल तो हम ने जाना है 

कि अब सहर तिरे रुख़ पर बिखर गई होगी 

ग़रज़ तसव्वुर-ए-शाम-ओ-सहर में जीते हैं 

गिरफ़्त-ए-साया-ए-दीवार-ओ-दर में जीते हैं 

यूँही हमेशा उलझती रही है ज़ुल्म से ख़ल्क़ 

न उन की रस्म नई है न अपनी रीत नई 

यूँही हमेशा खिलाए हैं हम ने आग में फूल 

न उन की हार नई है न अपनी जीत नई 

इसी सबब से फ़लक का गिला नहीं करते 

तिरे फ़िराक़ में हम दिल बुरा नहीं करते 

गर आज तुझ से जुदा हैं तो कल बहम होंगे 

ये रात भर की जुदाई तो कोई बात नहीं 

गर आज औज पे है ताला-ए-रक़ीब तो क्या 

ये चार दिन की ख़ुदाई तो कोई बात नहीं 

जो तुझ से अहद-ए-वफ़ा उस्तुवार रखते हैं 

इलाज-ए-गर्दिश-ए-लैल-ओ-नहार रखते हैं 

साहिल पे खडे हो तुम्हे क्या गम चले जाना

साहिल पे खडे हो तुम्हे क्या गम चले जाना

साहिल पे खडे हो तुम्हे क्या गम चले जाना

मैं डूब रहा हूँ, अभी डूबा तो नहीं हूँ

मैं डूब रहा हूँ, अभी डूबा तो नहीं हूँ

आए वादा फरामोश, मैं तुझसा तो नहीं हूँ

हर ज़ुल्म तेरा याद है, भुला तो नहीं हूँ

हर ज़ुल्म तेरा याद है, भुला तो नहीं हूँ

ए वादा फरामोश, मैं तुझसा तो नहीं हूँ


चुप चाप सही मसलेहतन, वक़्त के हाथों

चुप छाप सही मसलेहतन, वक़्त के हाथों

मजबूर सही, वक़्त से हारा तो नहीं हूँ

मजबूर सही, वक़्त से हारा तो नहीं हूँ

ए वादा फरामोश, मैं तुझसा तो नहीं हूँ


मुज़तर क्यों मुझे देखता रहता है ज़माना

दीवाना सही, उनका तमाशा तो नहीं हूँ

दीवाना सही, उनका तमाशा तो नहीं हूँ

ए वादा फरामोश, मैं तुझसा तो नहीं हूँ

हर ज़ुल्म तेरा याद है ए भुला तो नहीं हूँ

हर ज़ुल्म तेरा याद है ए भुला तो नहीं हूँ

चलो फिर से मुस्कुराएँ

चलो फिर से मुस्कुराएँ 

चलो फिर से दिल जलाएँ 

जो गुज़र गईं हैं रातें 

उन्हें फिर जगा के लाएँ 

जो बिसर गईं हैं बातें 

उन्हें याद में बुलाएँ 

चलो फिर से दिल लगाएँ 

चलो फिर से मुस्कुराएँ 


किसी शह-नशीं पे झलकी 

वो धनक किसी क़बा की 

किसी रग में कसमसाई 

वो कसक किसी अदा की 

कोई हर्फ-ए-बे-मुरव्वत 

किसी कुंज-ए-लब से फूटा 

वो छनक के शीशा-ए-दिल

तह-ए-बाम फिर से टूटा 

ये मिलन की ना मिलन की 

ये लगन की और जलन की 

जो सही हैं वारदातें 

जो गुज़र गईं हैं रातें 

जो बिसर गई हैं बातें 

कोई उन की धुन बनाएँ 

कोई उन का गीत गाएँ 

चलो फिर से मुस्कुराएँ 

चलो फिर से दिल जलाएँ 

दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है


 दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है 

आख़िर इस दर्द की दवा क्या है 


हम हैं मुश्ताक़ और वो बे-ज़ार 

या इलाही ये माजरा क्या है 


मैं भी मुँह में ज़बान रखता हूँ 

काश पूछो कि मुद्दआ क्या है 


जब कि तुझ बिन नहीं कोई मौजूद 

फिर ये हंगामा ऐ ख़ुदा क्या है 


ये परी.चेहरा लोग कैसे हैं 

ग़म्ज़ा ओ इश्वा ओ अदा क्या है 


शिकन-ए-ज़ुल्फ़-ए-अंबरीं क्यूँ है 

निगह-ए-चश्म-ए-सुरमा सा क्या है 


सब्ज़ा ओ गुल कहाँ से आए हैं 

अब्र क्या चीज़ है हवा क्या है 


हम को उन से वफ़ा की है उम्मीद 

जो नहीं जानते वफ़ा क्या है 


हाँ भला कर तिरा भला होगा 

और दरवेश की सदा क्या है 


जान तुम पर निसार करता हूँ 

मैं नहीं जानता दुआ क्या है 


मैं ने माना कि कुछ नहीं ग़ालिब  

मुफ़्त हाथ आए तो बुरा क्या है 

हम समय के युद्धबन्दी हैं

 हम समय के युद्धबन्दी हैं


 हम समय के युद्धबन्दी हैं

युद्ध तो लेकिन अभी हारे नहीं हैं हम ।

लालिमा है क्षीण पूरब की

पर सुबह के बुझते हुए तारे नहीं हैं हम ।

हम समय के युद्धबन्दी है।  


सच यही, हाँ, यही सच है

मोर्चे कुछ हारकर पीछे हटे हैं हम

जंग में लेकिन डटे हैं, हाँ, डटे हैं हम !

हम समय के युद्धबन्दी है। 


बुर्ज कुछ तोड़े थे हमने

दुर्ग पूँजी का मगर टूटा नहीं था !

कुछ मशालें जीत की हमने जलायी थीं

सवेरा पर तमस के व्यूह से छूटा नहीं था ।

नहीं थे इसके भरम में हम !

हम समय के युद्धबन्दी हैं। 


चलो, अब समय के इस लौह कारागार को तोड़ें

चलो, फिर जिन्दगी की धार अपनी शक्ति से मोड़ें

पराजय से सबक लें, फिर जुटें, आगे बढ़ें फिर हम !

हम समय के युद्धबन्दी हैं। 


न्याय के इस महाकाव्यात्मक समर में

हो पराजित सत्य चाहे बार-बार

जीत अन्तिम उसी की होगी

आज फिर यह घोषणा करते हैं हम !

हम समय के युद्धबन्दी हैं। 

दुनिया के हर सवाल के हम ही जवाब हैं

 दुनिया के हर सवाल के हम ही जवाब हैं

आंखों में हमारी नयी दुनिया के ख़्‍वाब हैं।

इन बाजुओं ने साथी ये दुनिया बनायी है

काटा है जंगलों कोएबस्‍ती बसाई है

जांगर खटा के खेतों में फसलें उगाई हैं

सड़कें निकाली हैं अटारी उठाई है

ये बांध बनाये हैं फ़ैक्‍टरी बनाई है

हम बेमिसाल हैं हम लाजवाब हैं

आंखों में हमारी नयी दुनिया के ख़्‍वाब हैं।

अब फिर नया संसार बनाना है हमें ही

नामों.निशां सितम का मिटाना है हमें ही

अब आग में से फूल खिलाना है हमें ही

फिर से अमन का गीत सुनाना है हमें ही

हम आने वाले कल के आफताबे.इन्‍क़लाब हैं

आंखों में हमारी नयी दुनिया के ख्‍़वाब हैं।

हक़ के लिये अब जंग छेड़ दो दोस्‍तो

जंग बन के फूल उगेगा दोस्‍तो

बच्‍चों की हंसी को ये खिलायेगा दोस्‍तो

प्‍यारे वतन को स्‍वर्ग बनायेगा दोस्‍तो

हम आने वाले कल की इक खुली किताब हैं

आंखों में हमारी नयी दुनिया के ख्‍़वाब हैं।


.शशि प्रकाश

तुम इक गोरख धंधा हो

 कभी यहाँ तुम्हें ढूँढा, 

कभी वहाँ पहुँचा 

तुम्हारी दीद की ख़ातिर कहाँ-कहाँ पहुँचा 

ग़रीब मिट गए, पामाल हो गए लेकिन 

किसी तलक न तेरा आज तक निशां पहुँचा 

हो भी नहीं और, हर जा हो 

हो भी नहीं और, हर जा हो 

तुम इक गोरख धन्दा हो! 


शेर-

हर ज़र्रे में किस शान से तू जल्वा-नुमा है

 हैरां है मगर अक़्ल के कैसा है तू, क्या है? 

तुम इक गोरख धन्दा हो! 


शेर- 

तुझे दैर-ओ-हरम में मैंने ढूँढा तू नहीं मिलता 

मगर तशरीग-फ़र्मा तुझे अपने दिल में देखा है! 

तुम इक गोरख धन्दा हो!


शेर-

 ढूँढे नहीं मिले हो, न ढूँढे से कहीं तुम 

और फिर ये तमाशा है जहाँ हम हैं वहीं तुम! 

तुम इक गोरख धन्दा हो! 


शेर- 

जब बजुज़ तेरे कोई दूसरा मौजूद नहीं 

फिर समझ में नहीं आता तेरा पर्दा करना! 

तुम इक गोरख धन्दा हो! 


शेर- 

हरम ओ दैर मैं है जलवा-ए-पुर फन तेरा

दो घरों का है चराग इक रुख-ए-रौशन तेरा

तुम इक गोरख धन्दा हो! 


जो उलफत में तुम्हारी खो गया है,

उसी खोए हुए को कुछ मिला है,

ना बुतखाने, ना काबे में मिला है,

मगर टूटे हुए दिल में मिला है,

अदम बन कर कहीं तू छुप गया है,

कहीं तू हस्त बुन कर आ गया है,

नही है तू तो फिर इनकार कैसा ?

नफी भी तेरे होने का पता है ,

मैं जिस को कह रहा हूँ अपनी हस्ती,

अगर वो तू नही तो और क्या है ?

नही आया ख़यालों में अगर तू,

तो फिर मैं कैसे समझा तू खुदा है ?

तुम एक गोरखधंधा हो


शेर-

हैरां हूँ इस बात पे तुम कौन हो क्या हो? 

हाथ आओ तो बुत, हाथ न आओ तो ख़ुदा हो!

तुम इक गोरख धन्दा हो! 


शेर-

अक़्ल में जो घिर गया ल-इन्तहा क्योंकर हुआ?

जो समझ में आ गया फिर वो ख़ुदा क्योंकर हुआ?

तुम इक गोरख धन्दा हो! 


शेर-

फलसफी को बेहेस के अंदर खुदा मिलता नहीं

डोर को सुलझा रहा है और सिरा मिलता नहीं


शेर-

पता यूं तो बता देते हो सब को ला- मकान अपना

ताज़्जुब है मगर रहते हो तुम टूटे हुए दिल में


शेर-

जब के तुझ बिन नहीं कोई मौजूद

फिर ये हंगामा अय खुदा क्या है


छुपते नहीं हो सामने आते नहीं हो तुम 

जल्वा दिखाके जल्वा दिखाते नहीं हो तुम 

दैर-ओ-हरम के झगड़े मिटाते नहीं हो तुम 

जो अस्ल बात है वो बताते नहीं हो तुम 

हैरां हूँ मेरे दिल में समाए हो किस तरह?

हालांके दो जहाँ में समाते नहीं हो तुम! 

ये माबाद-ओ-हरम, ये कलीसा, वो दैर क्यों?

हर्जाई हो जभी तो बताते नहीं हो तुम! 

तुम इक गोरख धन्दा हो! 


दिल पे हैरत ने अजब रँग जमा रखा है!

एक उलझी हुई तसवीर बना रखा है!

कुछ समझ में नहीं आता के ये चक्कर क्या है

 खेल क्या तुमने अज़ल से ये रचा रखा है! 

रूह को जिस्म के पिंजरे का बनाकर कैदी

उसपे फिर मौत का पहरा भी बिठा रखा है!

दे के तब्दीर के पंछी को उड़ाने तुमने

दाम- ए तक़दीर में हर संत बिछा रखा है

कर के अराईशें कौनेन की बरसों तुमने

खत्म करने का भी मंसूबा  बना रखा है

ला-मकानी का बहर-हाल है दावा भी तुमहें

नहनू अखरब का भी पैग़ाम सुना रखा है

ये बुराई, वो भलाई, ये जहन्नुम, वो बहिश्त

इस उलट-फेर में फ़र्माओ तो क्या रखा है? 

जुर्म आदम ने किया और सज़ा बेटों को,

अदल-ओ-इंसाफ़ का मेआर भी क्या रखा है?

दे के इंसान को दुनिया में खलाफत अपनी,

इक तमाशा सा ज़माने में बना रखा है

अपनी पहचान की खातिर है बनाया सब को,

सब की नज़रों से मगर खुद को छुपा रखा है

तुम एक गोरखधंधा हो


नित नये नक़्श बनाते हो, मिटा देते हो,

जाने किस ज़ुर्म-ए-तमन्ना की सज़ा देते हो?

कभी कंकड़ को बना देते हो हीरे की कनी ,

कभी हीरों को भी मिट्टी में मिला देते हो

ज़िंदगी कितने ही मुर्दों को अदा की जिसने,

वो मसीहा भी सलीबों पे सज़ा देते हो

ख्वाइश-ए-दीद जो कर बैठे सर-ए-तूर कोई,

तूर ही बर्क- ए- तजल्ली से जला देते हो

नार-ए-नमरूद में डलवाते हो खुद अपना ख़लील,

खुद ही फिर नार को गुलज़ार बना देते हो

चाह-ए-किनान में फैंको कभी माह-ए-किनान,

नूर याक़ूब की आँखों का बुझा देते हो

दे के युसुफ को कभी मिस्र के बाज़ारों में,

आख़िरकार शाह-ए-मिस्र बना देते हो

जज़्ब -ओ- मस्ती की जो मंज़िल पे पहुचता है कोई,

बैठ कर दिल में अनलहक़ की सज़ा देते हो ,

खुद ही लगवाते हो फिर कुफ्र के फ़तवे उस पर,

खुद ही मंसूर को सूली पे चढ़ा देते हो

अपनी हस्ती भी वो इक रोज़ गवा बैठता है,

अपने दर्शन की लगन जिस को लगा देते हो

कोई रांझा जो कभी खोज में निकले तुमको,

तुम उसे झन्ग के बेले में रुला देते हो

ज़ुस्त्जु ले के तुम्हारी जो चले कैश कोई,

उस को मजनू किसी लैला का बना देते हो

जोत सस्सी के अगर मन में तुम्हारी जागे,

तुम उसे तपते हुए थल में जला देते हो

सोहनी गर तुम को महिंवाल तसवउर कर ले,

उस को बिखरी हुई लहरों में बहा देते हो

खुद जो चाहो तो सर-ए-अर्श बुला कर महबूब,

एक ही रात में मेराज करा देते हो

तुम एक गोरखधंधा हो


आप ही अपना पर्दा हो

तुम इक गोरख धंधा हो


जो कहता हूँ माना तुम्हें लगता है बुरा सा 

फिर भी है मुझे तुमसे बहर-हाल ग़िला सा

चुप चाप रहे देखते तुम अर्श-ए-बरीन पर,


तपते हुए करबल में मोहम्मद का नवासा,

किस तरह पिलाता था लहू अपना वफ़ा को,

खुद तीन दिनो से वो अगरचे था प्यासा

दुश्मन तो बहर- हाल थे दुश्मन मगर अफ़सोस,

तुम ने भी फराहम ना किया पानी ज़रा सा

हर ज़ुल्म की तौफ़ीक़ है ज़ालिम की विरासत,

मज़लूम के हिस्से में तसल्ली ना दिलासा

कल ताज सजा देखा था जिस शक़्स के सिर पर,

है आज उसी शक़्स क हाथों में ही कासा,

यह क्या है अगर पूछूँ तो कहते हो जवाबन,

इस राज़ से हो सकता नही कोई शनासा

तुम एक गोरखधंधा हो


हैरत की इक दुनिया हो 

तुम इक गोरख धंधा हो


शेर-

हर एक जा पे हो लेकिन पता नहीं मालूम

तुम्हारा नाम सुना है निशान नहीं मालूम


दिल से अरमान जो निकल जाए तो जुगनू हो जाए

और आंखों में सिमट आए तो आंसू हो जाए

जाप या हू का जो बेहू करे हू में खोकर

उसको सुल्तानिया मिल जाए वो बाहू हो जाए

बाल बिका ना किसी का हो छुरी के नीचे

हल्क ए असघर में कभी तीर तराजू हो जाए

तुम इक गोरख धंधा हो


राह-ए-तहक़ीक़ में हर ग़ाम पे उलझन देखूँ वही हालात-ओ-खयालात में अनबन देखूँ 

बनके रह जाता हूँ तसवीर परेशानी की

ग़ौर से जब भी कभी दुनिया का दर्पन देखूँ 

एक ही ख़ाक़ पे फ़ित्रत के तजादात इतने!

 इतने हिस्सों में बँटा एक हीती हुई पत्झड़ का समा 

कहीं रहमत के बरसते हुए सावन देखूँ 

कहीं फुँकारते दरिया, कहीं खामोश पहाड़! 

कहीं जंगल, कहीं सहरा, कहीं गुलशन देखूँ 

ख़ून रुलाता है ये तक़्सीम का अन्दाज़ मुझे 

कोई धनवान यहाँ पर कोई निर्धन देखूँ 

दिन के हाथों में फ़क़त एक सुलग़ता सूरज 

रात की माँग सितारों से मुज़ईय्यन देखूँ 

कहीं मुरझाए हुए फूल हैं सच्चाई के 

और कहीं झूठ के काँटों पे भी जोबन देखूँ!

शम्स की खाल कहीं खींचती नजर आती है

कहीं सरमद की उतरती हुई गर्दन देखूं

रात क्या शय है, सवेरा क्या है?

 ये उजाला, ये अंधेरा क्या है? 

मैं भी नायिब हूँ तुम्हारा आख़िर 

क्यों ये कहते हो के "तेरा क्या है?" 

तुम इक गोरख धन्दा हो! 


मस्जिद मन्दिर ये मयखाने

कोई ये माने कोई वो माने

सब तेरे हैं जाना काशाने

कोई ये माने कोई वो माने

इक होने का तेरे काइल है

इनकार पे कोई माइल है

असलियत तेरी तू जाने

कोई ये माने कोई वो माने

इक खल्क में शामिल करता है

इक सबसे अकेला रहता है

हैं दोनों तेरे मस्ताने

कोई ये माने कोई वो माने


सब हैं जब आशिक़ तुम्हारे नाम के

क्यूं ये झगड़े हैं रहीम-ओ-राम के

तुम इक गोरख धंधा हो


दैर में तू हरम में तू 

अर्श पे तू ज़मीन पे तू

जिस की पहुंच जहां तलक

उसके लिए वहीं पे तू

तुम इक गोरख धंधा हो


हर इक रंग में यक्ता हो

तुम इक गोरख धंधा हो


मरकज ए जुस्तजू

आलम-ए-रंग-ओ-बू

दम बा दम जलवा गर

तू ही तू चार सू

हू के माहौल में

कुछ नहीं इल्ला हू

तुम बहुत दिलरुबा

तुम बहुत खूबरू

अर्श की अस्मतें 

फर्श की आबरू

तुम हो कोनेन का

हासिल ए आरज़ू

आंख ने कर लिया 

आंसूओं से वजू

अब तो कर दो अता

दीद का इक सुबू

आओ पर्दे से तुम

आंख के रूबरू

चंद लम्हें मिलन

दो घड़ी गुफ्तगू

नाज़ जप्ता फिरे

जा ब जा कू ब कू

वाह दा हू वाह दा हू

ला शरीका लहू

अल्लाह हू

अल्ला हू

दबे पैरों से उजाला आ रहा है

 दबे पैरों से उजाला आ रहा है

फिर कथाओं को खँगाला जा रहा है


धुंध से चेहरा निकलता दिख रहा है

कौन क्षितिजों पर सवेरा लिख रहा है

चुप्पियाँ हैं जुबाँ बनकर फूटने को

दिलों में गुस्सा उबाला जा रहा है


दूर तक औश् देर तक सोचें भला क्या

देखना है बस फिजाँ में है घुला क्या

हवा में उछले सिरों के बीच ही अब

सच शगूफे सा उछाला जा रहा है


नाचते हैं भय सियारों से रँगे हैं

जिधर देखो उस तरफ कुहरे टँगे हैं

जो नशे में धुत्त हैं उनकी कहें क्या

होश वालों को सँभाला जा रहा है


स्थगित है गति समय का रथ रुका है

कह रहा मन बहुत नाटक हो चुका है

प्रश्न का उत्तर कठिन है इसलिए भी

प्रश्न सौ.सौ बार टाला जा रहा है


सेंध गहरी नींद में भी लग गई है

खीझती सी रात काली जग गई है

दृष्टि में है रोशनी की एक चलनी

और गाढ़ा धुआँ चाला जा रहा है

बगिया लहूलुहान

हरियाली को आँखे तरसें बगिया लहूलुहान

प्यार के गीत सुनाऊँ किसको शहर हुए वीरान

बगिया लहूलुहान ।

 

डसती हैं सूरज की किरनें चाँद जलाए जान

पग-पग मौत के गहरे साए जीवन मौत समान

चारों ओर हवा फिरती है लेकर तीर-कमान

बगिया लहूलुहान ।

 

छलनी हैं कलियों के सीने खून में लतपत पात

और न जाने कब तक होगी अश्कों की बरसात

दुनियावालों कब बीतेंगे दुख के ये दिन-रात

ख़ून से होली खेल रहे हैं धरती के बलवान

बगिया लहू लुहान ।

उरुजे-कामयाबी पर कभी हिंदोस्तां होगा -

उरुजे-कामयाबी पर कभी हिंदोस्तां होगा -

उरुजे-कामयाबी पर कभी हिंदोस्तां होगा

रिहा सैयाद के हाथों अपना आशियां होगा।


चखाएंगे मजा़ बरबादी-ए-गुलशन के गुलचीं को

बहार आ जाएगी उस दिन जब अपना बाग़बां होगा।


जुदा मत हो मिरे पहलू से ए दर्दे-वतन हरगिज,
          
न जाने बादे-मुरदन मैं कहां और तू कहां होगा। 


वतन की आबरु का पास देखें कौन करता है

सुना है आज मक़तल में हमारा इम्तेहां होगा।


ये आये दिन की छेड़ अच्छी नही ऐ ख़ंजरे-क़ातिल
         
बता कब फैसला उनके हमारे दरमियां होगा।


शहीदों के मजारों पर लगेंगे हर बरस मेले

वतन पर मरने वालों का यही बाक़ी निशां होगा।


कभी वो दिन भी आयेगा जब अपना राज देखेंगे
        
जब अपनी ही जमीन होगी, जब अपना आसमां होगा।


                                - रामप्रसाद बिस्मिल  




..... 

रउरा सासन के बाटे

रउरा सासन के बाटे 

रउरा सासन के बाटे ना जवाब भाई जी,

रउरा कुरसी से झरेला गुलाब भाई जी। 


रउरा भोंभा लेके सगरों आवाज करीला,

हमारा मुंहवा में लागल बाटे जाब भाई जी। 


रउरे बुढ़िया के गलवा में क्रीम लागेला,

हमरी नइकी के जरि गइले भाग भाई जी। 


रउरे लरिका त पढ़ेला बिलाईत जाई के,

हमरे लरिका के जुरे ना किताब भाई जी। 


हमरे लरिका के रोटिया पर नून नइखे,

रउरा चांपीं  रोज मुरगा कबाब भाई जी। 


रउरे अंगुरी पर पुलिस आऊर थाना नाचे ले,

हमरे मुअले के होखे न हिसाब भाई जी। 







...... 

पढना-लिखना सीखो

पढना-लिखना सीखो -

पढना-लिखना सीखो ओ मेहनत करने वालो
पढना-लिखना सीखो ओ भूख से मरने वालो

क ख ग घ को पहचानो
अलिफ़ को पढना सीखो,
अ आ इ ई को हथियार
बनाकर लड़ना सीखो

ओ सडक बनाने वालो, ओ भवन उठाने वालो
खुद अपनी किस्‍मत का फैसला अगर तुम्‍हें करना है
ओ बोझा ढोने वालो, ओ रेल चलाने वालो
अगर देश की बागडोर को कब्‍जे में करना है

क ख ग घ को पहचानो
अलिफ को पढना सीखो,
अ आ इ ई को हथियार
बनाकर लड़ना सीखो

पूछो मजदूरी की खातिर लोग भटकते क्‍यों हैं ?
पढो, तुम्‍हारी सूखी रोटी गिद्ध लपकते क्‍यों हैं ?
पूछो, मां-बहनों पर यों बदमाश झपटते क्‍यों हैं ?
पढो, तुम्‍हारी मेहनत का फल सेठ गटकते क्‍यों हैं ?

पढो, लिखा है दीवारों पर महनतकश का नारा
पढो, पोस्‍टर क्‍या कहता है, वो भी दोस्‍त तुम्‍हारा
पढो, अगर अंधे विश्‍वासों से पाना छुटकारा
पढो, किताबें कहती हैं - सारा संसार तुम्‍हारा
पढो, कि हर मेहनतकश को उसका हक़ दिलवाना है
पढो, अगर इस देश को अपने ढंग से चलवाना है

क ख ग घ को पहचानो
अलिफ को पढना सीखो,
अ आ इ ई को हथियार
बनाकर लड़ना सीखो


                                   -सफदर हाशमी






...... 

सदा आ रही है मरे दिल से पैहम - हबीब जालिब

सदा आ रही है मरे दिल से पैहम 


सदा आ रही है मरे दिल से पैहम 

कि होगा हर इक दुश्मन-ए-जाँ का सर ख़म 

नहीं है निज़ाम-ए-हलाकत में कुछ दम 

ज़रूरत है इंसान की अम्न-ए-आलम 

फ़ज़ाओं में लहराएगा सुर्ख़ परचम 

सदा आ रही है मिरे दिल से पैहम 

न ज़िल्लत के साए में बच्चे पलेंगे 

न हाथ अपने क़िस्मत के हाथों मलेंगे 

मुसावात के दीप घर घर जलेंगे 

सब अहल-ए-वतन सर उठा के चलेंगे 

न होगी कभी ज़िंदगी वक़्फ़-ए-मातम 

फ़ज़ाओं में लहराएगा सुर्ख़ परचम 

कब याद में तेरा साथ नहीं कब हात में तेरा हात नहीं

कब याद में तेरा साथ नहीं कब हात में तेरा हात नहीं 

सद-शुक्र कि अपनी रातों में अब हिज्र की कोई रात नहीं 

मुश्किल हैं अगर हालात वहाँ दिल बेच आएँ जाँ दे आएँ 

दिल वालो कूचा-ए-जानाँ में क्या ऐसे भी हालात नहीं 

जिस धज से कोई मक़्तल में गया वो शान सलामत रहती है 

ये जान तो आनी जानी है इस जाँ की तो कोई बात नहीं 

मैदान-ए-वफ़ा दरबार नहीं याँ नाम-ओ-नसब की पूछ कहाँ 

आशिक़ तो किसी का नाम नहीं कुछ इश्क़ किसी की ज़ात नहीं 

गर बाज़ी इश्क़ की बाज़ी है जो चाहो लगा दो डर कैसा 

गर जीत गए तो क्या कहना हारे भी तो बाज़ी मात नहीं 


बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे

बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे 

बोल ज़बाँ अब तक तेरी है 

तेरा सुत्वाँ जिस्म है तेरा 

बोल कि जाँ अब तक तेरी है 

देख कि आहन-गर की दुकाँ में 

तुंद हैं शोले सुर्ख़ है आहन 

खुलने लगे क़ुफ़्लों के दहाने 

फैला हर इक ज़ंजीर का दामन 

बोल ये थोड़ा वक़्त बहुत है 

जिस्म ओ ज़बाँ की मौत से पहले 

बोल कि सच ज़िंदा है अब तक 

बोल जो कुछ कहना है कह ले 

वो सुब्ह कभी तो आएगी - साहिर लुधियानवी

वो सुब्ह कभी तो आएगी - साहिर लुधियानवी 


इन काली सदियों के सर से जब रात का आँचल ढलकेगा 
जब दुख के बादल पिघलेंगे जब सुख का सागर छलकेगा 
जब अम्बर झूम के नाचेगा जब धरती नग़्मे गाएगी 
वो सुब्ह कभी तो आएगी 

जिस सुब्ह की ख़ातिर जग जग से हम सब मर मर कर जीते हैं 
जिस सुब्ह के अमृत की धुन में हम ज़हर के प्याले पीते हैं 
इन भूकी प्यासी रूहों पर इक दिन तो करम फ़रमाएगी 
वो सुब्ह कभी तो आएगी 

माना कि अभी तेरे मेरे अरमानों की क़ीमत कुछ भी नहीं 
मिट्टी का भी है कुछ मोल मगर इंसानों की क़ीमत कुछ भी नहीं 
इंसानों की इज़्ज़त जब झूटे सिक्कों में न तोली जाएगी 
वो सुब्ह कभी तो आएगी 

दौलत के लिए जब औरत की इस्मत को न बेचा जाएगा 
चाहत को न कुचला जाएगा ग़ैरत को न बेचा जाएगा 
अपने काले करतूतों पर जब ये दुनिया शरमाएगी 
वो सुब्ह कभी तो आएगी 

बीतेंगे कभी तो दिन आख़िर ये भूक के और बेकारी के 
टूटेंगे कभी तो बुत आख़िर दौलत की इजारा-दारी के 
जब एक अनोखी दुनिया की बुनियाद उठाए जाएगी 
वो सुब्ह कभी तो आएगी 

मजबूर बुढ़ापा जब सूनी राहों की धूल न फाँकेगा 
माश्सूम लड़कपन जब गंदी गलियों में भीक न माँगेगा 
हक़ माँगने वालों को जिस दिन सूली न दिखाई जाएगी 
वो सुबह कभी तो आएगी 

फ़ाक़ों की चिताओं पर जिस दिन इंसाँ न जलाए जाएँगे 
सीने के दहकते दोज़ख़ में अरमाँ न जलाए जाएँगे 
ये नरक से भी गंदी दुनिया जब स्वर्ग बताई जाएगी 
वो सुब्ह कभी तो आएगी 

जब धरती करवट बदलेगी जब क़ैद से क़ैदी छूटेंगे 
जब पाप घरौंदे फूटेंगे जब ज़ुल्म के बंधन टूटेंगे 
उस सुब्ह को हम ही लाएँगे वो सुब्ह हमीं से आएगी 
वो सुब्ह हमीं से आएगी 

मनहूस समाजी ढाँचों में जब ज़ुल्म न पाले जाएँगे 
जब हाथ न काटे जाएँगे जब सर न उछाले जाएँगे 
जेलों के बिना जब दुनिया की सरकार चलाई जाएगी 
वो सुब्ह हमीं से आएगी 

संसार के सारे मेहनत-कश खेतों से मिलों से निकलेंगे 
बे-घर बे-दर बे-बस इंसाँ तारीक बिलों से निकलेंगे 
दुनिया अम्न और ख़ुश-हाली के फूलों से सजाई जाएगी 
वो सुब्ह हमीं से आएगी 


ये किस का लहू है कौन मरा

ये किस का लहू है कौन मरा 


धरती की सुलगती छाती से बेचैन शरारे पूछते हैं 

तुम लोग जिन्हें अपना न सके वो ख़ून के धारे पूछते हैं 

सड़कों की ज़बाँ चिल्लाती है सागर के किनारे पूछते हैं 

ये किस का लहू है कौन मरा ऐ रहबर-ए-मुलक-ओ-क़ौम बता 


ये जलते हुए घर किस के हैं ये कटते हुए तन किस के हैं 

तक़्सीम के अंदर तूफ़ाँ में लुटते हुए गुलशन किस के हैं 

बद-बख़्त फ़ज़ाएँ किस की हैं बरबाद नशेमन किस के हैं 

कुछ हम भी सुनें हम को भी सुना 


किस काम के हैं ये दीन-धर्म जो शर्म का दामन चाक करें 

किस तरह के हैं ये देश-भगत जो बस्ते घरों को ख़ाक करें 

ये रूहें कैसी रूहें हैं जो धरती को नापाक करें 

आँखें तो उठा नज़रें तो मिला 


जिस राम के नाम पे ख़ून बहे उस राम की इज़्ज़त क्या होगी 

जिस दीन के हाथों लाज लुटे इस दीन की क़ीमत क्या होगी 

इंसान की इस ज़िल्लत से परे शैतान की ज़िल्लत क्या होगी 

ये वेद हटा क़ुरआन उठा 

ये किस का कहो है कौन मिरा 

ये किस का लहू है कौन मरा ऐ रहबर-ए-मुलक-ओ-क़ौम बता 

गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौ-बहार चले


गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौ-बहार चले 
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले 
क़फ़स उदास है यारो सबा से कुछ तो कहो 
कहीं तो बहर-ए-ख़ुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले 
कभी तो सुब्ह तिरे कुंज-ए-लब से हो आग़ाज़ 
कभी तो शब सर-ए-काकुल से मुश्क-बार चले 
बड़ा है दर्द का रिश्ता ये दिल ग़रीब सही 
तुम्हारे नाम पे आएँगे ग़म-गुसार चले 
जो हम पे गुज़री सो गुज़री मगर शब-ए-हिज्राँ 
हमारे अश्क तिरी आक़िबत सँवार चले 
हुज़ूर-ए-यार हुई दफ़्तर-ए-जुनूँ की तलब 
गिरह में ले के गरेबाँ का तार तार चले 
मक़ाम 'फैज़' कोई राह में जचा ही नहीं 
जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले 

मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग

मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग 

मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़्शाँ है हयात 

तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है 

तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात 

तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है 

तू जो मिल जाए तो तक़दीर निगूँ हो जाए 

यूँ न था मैं ने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाए 

और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा 

राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा 

अन-गिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिस्म 

रेशम ओ अतलस ओ कमख़ाब में बुनवाए हुए 

जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म 

ख़ाक में लुथड़े हुए ख़ून में नहलाए हुए 

जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से 

पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से 

लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे 

अब भी दिलकश है तिरा हुस्न मगर क्या कीजे 

और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा 

राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा 

मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग 

चंद रोज़ और मिरी जान

चंद रोज़ और मिरी जान फ़क़त चंद ही रोज़ 

ज़ुल्म की छाँव में दम लेने पे मजबूर हैं हम 

और कुछ देर सितम सह लें तड़प लें रो लें 

अपने अज्दाद की मीरास है माज़ूर हैं हम 

जिस्म पर क़ैद है जज़्बात पे ज़ंजीरें हैं 

फ़िक्र महबूस है गुफ़्तार पे ताज़ीरें हैं 

अपनी हिम्मत है कि हम फिर भी जिए जाते हैं 

ज़िंदगी क्या किसी मुफ़लिस की क़बा है जिस में 

हर घड़ी दर्द के पैवंद लगे जाते हैं 

लेकिन अब ज़ुल्म की मीआद के दिन थोड़े हैं 

इक ज़रा सब्र कि फ़रियाद के दिन थोड़े हैं 

अरसा-ए-दहर की झुलसी हुई वीरानी में 

हम को रहना है पे यूँही तो नहीं रहना है 

अजनबी हाथों का बे-नाम गिराँ-बार सितम 

आज सहना है हमेशा तो नहीं सहना है 

ये तिरे हुस्न से लिपटी हुई आलाम की गर्द 

अपनी दो रोज़ा जवानी की शिकस्तों का शुमार 

चाँदनी रातों का बेकार दहकता हुआ दर्द 

दिल की बे-सूद तड़प जिस्म की मायूस पुकार 

चंद रोज़ और मिरी जान फ़क़त चंद ही रोज़

ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा - हबीब जालिब

ज़ुल्मत को ज़िया - हबीब जालिब 

ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना 
पत्थर को गुहर दीवार को दर कर्गस को हुमा क्या लिखना 

इक हश्र बपा है घर में दम घुटता है गुम्बद-ए-बे-दर में 
इक शख़्स के हाथों मुद्दत से रुस्वा है वतन दुनिया-भर में 

ऐ दीदा-वरो इस ज़िल्लत को क़िस्मत का लिखा क्या लिखना 
ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना 

ये अहल-ए-हश्म ये दारा-ओ-जम सब नक़्श बर-आब हैं ऐ हमदम 
मिट जाएँगे सब पर्वर्दा-ए-शब ऐ अहल-ए-वफ़ा रह जाएँगे हम 

हो जाँ का ज़ियाँ पर क़ातिल को मासूम-अदा क्या लिखना 
ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना 

लोगों पे ही हम ने जाँ वारी की हम ने ही उन्ही की ग़म-ख़्वारी 
होते हैं तो हों ये हाथ क़लम शाएर न बनेंगे दरबारी 

इब्लीस-नुमा इंसानों की ऐ दोस्त सना क्या लिखना 
ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना 

हक़ बात पे कोड़े और ज़िंदाँ बातिल के शिकंजे में है ये जाँ 
इंसाँ हैं कि सहमे बैठे हैं खूँ-ख़्वार दरिंदे हैं रक़्साँ 

इस ज़ुल्म-ओ-सितम को लुत्फ़-ओ-करम इस दुख को दवा क्या लिखना 
ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना 

हर शाम यहाँ शाम-ए-वीराँ आसेब-ज़दा रस्ते गलियाँ 
जिस शहर की धुन में निकले थे वो शहर दिल-ए-बर्बाद कहाँ 

सहरा को चमन बन कर गुलशन बादल को रिदा क्या लिखना 
ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना 

ऐ मेरे वतन के फ़नकारो ज़ुल्मत पे न अपना फ़न वारो 
ये महल-सराओं के बासी क़ातिल हैं सभी अपने यारो 

विर्से में हमें ये ग़म है मिला इस ग़म को नया क्या लिखना 
ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना 






मैं ने उस से ये कहा - हबीब जालिब

मैं ने उस से ये कहा - हबीब जालिब 

मैं ने उस से ये कहा 

ये जो दस करोड़ हैं  

जहल का निचोड़ हैं  

उन की फ़िक्र सो गई  

हर उमीद की किरन 

ज़ुल्मतों में खो गई 

ये ख़बर दुरुस्त है 

उन की मौत हो गई 

बे-शुऊर लोग हैं 

ज़िंदगी का रोग हैं 

और तेरे पास है 

उन के दर्द की दवा 

मैं ने उस से ये कहा 

तू ख़ुदा का नूर है 

अक़्ल है शुऊर है 

क़ौम तेरे साथ है 

तेरे ही वजूद से 

मुल्क की नजात है 

तू है महर-ए-सुब्ह-ए-नौ 

तेरे बाद रात है 

बोलते जो चंद हैं 

सब ये शर-पसंद हैं 

उन की खींच ले ज़बाँ 

उन का घोंट दे गला 

मैं ने उस से ये कहा 

जिन को था ज़बाँ पे नाज़ 

चुप हैं वो ज़बाँ-दराज़ 

चैन है समाज में 

बे-मिसाल फ़र्क़ है 

कल में और आज में 

अपने ख़र्च पर हैं क़ैद 

लोग तेरे राज में 

आदमी है वो बड़ा 

दर पे जो रहे पड़ा 

जो पनाह माँग ले 

उस की बख़्श दे ख़ता 


मैं ने उस से ये कहा 

हर वज़ीर हर सफ़ीर 

बे-नज़ीर है मुशीर 


वाह क्या जवाब है 

तेरे ज़ेहन की क़सम 

ख़ूब इंतिख़ाब है 

जागती है अफ़सरी 

क़ौम महव-ए-ख़्वाब है 

ये तिरा वज़ीर-ख़ाँ 

दे रहा है जो बयाँ 

पढ़ के उन को हर कोई 

कह रहा है मर्हबा 


मैं ने उस से ये कहा 

चीन अपना यार है 

उस पे जाँ-निसार है 

पर वहाँ है जो निज़ाम 

उस तरफ़ न जाइयो 

उस को दूर से सलाम 

दस करोड़ ये गधे 

जिन का नाम है अवाम 

क्या बनेंगे हुक्मराँ 

तू 'यक़ीं' है ये 'गुमाँ' 

अपनी तो दुआ है ये 

सद्र तू रहे सदा 

मैं ने उस से ये कहा 

करोड़पति कैसे होते हैं ? - मैक्सिम गोर्की

कहानी 

करोड़पति कैसे होते हैं ? - मैक्सिम गोर्की   
 

संयुक्त राज्य अमेरिका के इस्पात और तेल के सम्राटों और बाकी सम्राटों ने मेरी कल्पना को हमेशा तंग किया है। मैं कल्पना ही नहीं कर सकता कि इतने सारे पैसेवाले लोग सामान्य नश्वर मनुष्य हो सकते हैं।

मुझे हमेशा लगता रहा है कि उनमें से हर किसी के पास कम से कम तीन पेट और डेढ़ सौ दाँत होते होंगे। मुझे यकीन था कि हर करोड़पति सुबह छः बजे से आधी रात तक खाना खाता रहता होगा। यह भी कि वह सबसे महँगे भोजन भकोसता होगा: बत्तखें, टर्की, नन्हे सूअर, मक्खन के साथ गाजर, मिठाइयाँ, केक और तमाम तरह के लज़ीज़ व्यंजन। शाम तक उसके जबड़े इतना थक जाते होंगे कि वह अपने नीग्रो नौकरों को आदेश देता होगा कि वे उसके लिए खाना चबाएँ ताकि वह आसानी से उसे निगल सके। आखिरकार जब वह बुरी तरह थक चुकता होगा, पसीने से नहाया हुआ, उसके नौकर उसे बिस्तर तक लाद कर ले जाते होंगे। और अगली सुबह वह छः बजे जागता होगा अपनी श्रमसाध्य दिनचर्या को दुबारा शुरू करने को।

लेकिन इतनी ज़बरदस्त मेहनत के बावजूद वह अपनी दौलत पर मिलने वाले ब्याज का आधा भी खर्च नहीं कर पाता होगा।

निश्चित ही यह एक मुश्किल जीवन होता होगा। लेकिन किया भी क्या जा सकता होगा? करोड़पति होने का फ़ायदा ही क्या अगर आप और लोगों से ज़्यादा खाना न खा सकें?

मुझे लगता था कि उसके अन्तर्वस्त्र बेहतरीन कशीदाकारी से बने होते होंगे। उसके जूतों के तलुवों पर सोने की कीलें ठुकी होती होंगी और हैट की जगह वह हीरों से बनी कोई टोपी पहनता होगा। उसकी जैकेट सबसे महँगी मखमल की बनी होती होगी। वह कम से कम पचास मीटर लम्बी होती होगी और उस पर सोने के कम से कम तीन सौ बटन लगे होते होंगे। छुट्टियों में वह एक के ऊपर एक आठ जैकेटें और छः पतलूनें पहनता होगा। यह सच है कि ऐसा करना अटपटा होने के साथ साथ असुविधापूर्ण भी होता होगा… लेकिन एक करोड़पति जो इतना रईस हो बाकी लोगों जैसे कपड़े कैसे पहन सकता है…

करोड़पति की जेबें एक विशाल गड्ढे जैसी होती होंगी जिनमें वह समूचा चर्च, संसद की इमारत और अन्य छोटी-मोटी ज़रूरतों को रख सकता होगा। लेकिन जहाँ एक तरफ मैं सोचता था कि इन महाशय के पेट की क्षमता किसी बड़े समुद्री जहाज़ के गोदाम जितनी होती होगी मुझे इन साहब की टाँगों पर फिट आने वाली पतलून के आकार की कल्पना करने में थोड़ी हैरानी हुई। अलबत्ता मुझे यकीन था कि वह एक वर्ग मील से कम आकार की रज़ाई के नीचे नहीं सोता होगा। और अगर वह तम्बाकू चबाता होगा तो सबसे नफीस किस्म का और एक बार में एक या दो पाउण्ड से कम नहीं। अगर वह नसवार सूँघता होगा तो एक बार में एक पाउण्ड से कम नहीं। पैसा अपनेआप को खर्च करना चाहता है…

उसकी उँगलियाँ अद्भुत तरीके से संवेदनशील होती होंगी और उनमें अपनी इच्छानुसार लम्बा हो जाने की जादुई ताकत होती होगी: मिसाल के तौर पर वह साइबेरिया में अंकुरित हो रहे एक डॉलर पर न्यूयार्क से निगाह रख सकता था और अपनी सीट से हिले बिना वह बेरिंग स्टेट तक अपना हाथ बढ़ाकर अपना पसन्दीदा फूल तोड़ सकता था।

अटपटी बात यह है कि इस सब के बावजूद मैं इस बात की कल्पना नहीं कर पाया कि इस दैत्य का सिर कैसा होता होगा। मुझे लगा कि वह सिर मांसपेशियों और हड्डियों का ऐसा पिण्ड होता होगा जिसे फ़कत हर एक चीज़ से सोना चूस लेने की इच्छा से प्रेरणा मिलती होगी। लब्बोलुआब यह कि करोड़पति की मेरी छवि एक हद तक अस्पष्ट थी। संक्षेप में कहूँ तो सबसे पहले मुझे दो लम्बी लचीली बाँहें नजर आती थीं। उन्होंने ग्लोब को अपनी लपेट में ले रखा था और उसे अपने मुँह की भूखी गुफा के पास खींच रखा था जो हमारी धरती को चूसता-चबाता जा रहा था: उसकी लालचभरी लार उसके ऊपर टपक रही थी जैसे वह तन्दूर में सिंका कोई स्वादिष्ट आलू हो।

आप मेरे आश्चर्य की कल्पना कर सकते हैं जब एक करोड़पति से मिलने पर मैंने उसे एक निहायत साधारण आदमी पाया।

एक गहरी आरामकुर्सी पर मेरे सामने एक बूढ़ा सिकुड़ा-सा शख्स बैठा हुआ था जिसके झुरीर्दार भूरे हाथ शान्तिपूर्वक उसकी तोंद पर धरे हुए थे। उसके थुलथुल गालों पर करीने से हज़ामत बनायी गयी थी और उसका ढुलका हुआ निचला होंठ बढ़िया बनी हुई उसकी बत्तीसी दिखला रहा था जिसमें कुछेक दांत सोने के थे। उसका रक्तहीन और पतला ऊपरी होंठ उसके दाँतों से चिपका हुआ था और जब वह बोलता था उस ऊपरी होंठ में ज़रा भी गति नहीं होती थी। उसकी बेरंग आँखों के ऊपर भौंहें बिल्कुल नहीं थीं और सूरज में तपे हुए उसके सिर पर एक भी बाल नहीं था। उसे देखकर महसूस होता था कि उसके चेहरे पर थोड़ी और त्वचा होती तो शायद बेहतर होता या लाली लिए हुए वह गतिहीन और मुलायम चेहरा किसी नवजात शिशु के जैसा लगता था। यह तय कर पाना मुश्किल था कि यह प्राणी दुनिया में अभी अभी आया है या यहाँ से जाने की तैयारी में है…

उसकी पोशाक भी किसी साधारण आदमी की ही जैसी थी। उसके बदन पर सोना घड़ी, अँगूठी और दाँतों तक सीमित था। कुल मिलाकर शायद वह आधे पाउण्ड से कम था। आम तौर पर वह यूरोप के किसी कुलीन घर के पुराने नौकर जैसा नज़र आ रहा था…

जिस कमरे में वह मुझसे मिला उसमें सुविधा या सुन्दरता के लिहाज़ से कुछ भी उल्लेखनीय नहीं था। फर्नीचर विशालकाय था पर बस इतना ही था।

उसके फर्नीचर को देखकर लगता था कि कभी-कभी हाथी उसके घर तशरीफ लाया करते थे।

“क्या आप… आप… ही करोड़पति हैं?” अपनी आँखों पर अविश्वास करते हुए मैंने पूछा।

“हाँ, हाँ!” उसने सिर हिलाते हुए जवाब दिया।

मैंने उसकी बात पर विश्वास करने का नाटक किया और फैसला किया कि उसकी गप्प का उसी वक्त इम्तहान ले लूँ।

“आप नाश्ते में कितना गोश्त खा सकते हैं?” मैंने पूछा।

“मैं गोश्त नहीं खाता,” उसने घोषणा की, “बस सन्तरे की एक फाँक, एक अण्डा और चाय का छोटा प्याला…”

बच्चों जैसी उसकी आँखों में धुँधलाए पानी की दो बड़ी बूँदों जैसी चमक आयी और मैं उनमें झूठ का नामोनिशान नहीं देख पा रहा था।

“चलिए ठीक है,” मैंने संशयपूर्वक बोलना शुरू किया। “मैं आपसे विनती करता हूँ कि मुझे ईमानदारी से बताइए कि आप दिन में कितनी बार खाना खाते हैं?”

“दिन में दो बार,” उसने ठण्डे स्वर में कहा। “नाश्ता और रात का खाना। मेरे लिए पर्याप्त होता है। रात को खाने में मैं थोड़ा सूप, थोड़ा चिकन और कुछ मीठा लेता हूँ। कोई फल। एक कप कॉफी। एक सिगार…”

मेरा आश्चर्य कद्दू की तरह बढ़ रहा था। उसने मुझे सन्तों की-सी निगाह से देखा। मैं साँस लेने को ठहरा और फिर पूछना शुरू कियाः

“लेकिन अगर यह सच है तो आप अपने पैसे का क्या करते हैं?”

उसने अपने कन्धों को ज़रा उचकाया और उसकी आँखें अपने गड्ढों में कुछ देर लुढ़कीं और उसने जवाब दियाः

“मैं उसका इस्तेमाल और पैसा बनाने में करता हूँ…”

“किस लिए?”

“ताकि मैं और अधिक पैसा बना सकूँ…”

“लेकिन किसलिए?” मैंने हठपूर्वक पूछा।

वह आगे की तरफ झुका और अपनी कोहनियों को कुर्सी के हत्थे पर टिकाते हुए तनिक उत्सुकता से पूछाः

“क्या आप पागल हैं?”

“क्या आप पागल हैं?” मैंने पलटकर जवाब दिया।

बूढ़े ने अपना सिर झुकाया और सोने के दाँतों के बीच से धीरे-धीरे बोलना शुरू कियाः

“तुम बड़े दिलचस्प आदमी हो… मुझे याद नहीं पड़ता मैं कभी तुम्हारे जैसे आदमी से मिला हूँ…”

उसने अपना सिर उठाया और अपने मुँह को करीब-करीब कानों तक फैलाकर ख़ामोशी के साथ मेरा मुआयना करना शुरू किया। उसके शान्त व्यवहार को देख कर लगता था कि स्पष्टतः वह अपनेआप को सामान्य आदमी समझता था। मैंने उसकी टाई पर लगी एक पिन पर जड़े छोटे-से हीरे को देखा। अगर वह हीरा जूते की एड़ी जितना बड़ा होता तो मैं शायद जान सकता था कि मैं कहाँ बैठा हूँ।

“और अपने खुद के साथ आप क्या करते हैं?”

“मैं पैसा बनाता हूँ।” अपने कन्धों को तनिक फैलाते हुए उसने जवाब दिया।

“यानी आप नकली नोटों का धन्धा करते हैं” मैं ख़ुश होकर बोला मानो मैं रहस्य पर से परदा उठाने ही वाला हूँ। लेकिन इस मौके पर उसे हिचकियाँ आनी शुरू हो गयीं। उसकी सारी देह हिलने लगी जैसे कोई अदृश्य हाथ उसे गुदगुदी कर रहा हो। वह अपनी आँखों को तेज़-तेज़ झपकाने लगा।

“यह तो मसखरापन है,” ठण्डा पड़ते हुए उसने कहा और मेरी तरफ एक सन्तुष्ट निगाह डाली। “मेहरबानी कर के मुझसे कोई और बात पूछिए,” उसने निमंत्रित करते हुए कहा और किसी वजह से अपने गालों को जरा सा फुलाया।

मैंने एक पल को सोचा और निश्चित आवाज़़ में पूछाः

“और आप पैसा कैसे बनाते हैं?”

“अरे हाँ! ये ठीकठाक बात हुई!” उसने सहमति में सिर हिलाया। “बड़ी साधारण-सी बात है। मैं रेलवे का मालिक हूँ। किसान माल पैदा करते हैं। मैं उनका माल बाजार में पहुँचाता हूँ। आपको बस इस बात का हिसाब लगाना होता है कि आप किसान के वास्ते बस इतना पैसा छोड़ें कि वह भूख से न मर जाये और आपके लिए काम करता रहे। बाकी का पैसा मैं किराये के तौर पर अपनी जेब में डाल लेता हूँ। बस इतनी-सी बात है।”

“और क्या किसान इससे सन्तुष्ट रहते हैं?”

“मेरे ख्याल से सारे नहीं रहते!” बालसुलभ साधारणता के साथ वह बोला “लेकिन वो कहते हैं ना, लोग कभी सन्तुष्ट नहीं होते। ऐसे पागल लोग आपको हर जगह मिल जायेंगे जो बस शिकायत करते रहते हैं…”

“तो क्या सरकार आपसे कुछ नहीं कहती?” आत्मविश्वास की कमी के बावजूद मैंने पूछा।

“सरकार?” उसकी आवाज़ थोड़ा गूँजी फिर उसने कुछ सोचते हुए अपने माथे पर उँगलियाँ फिरायीं। फिर उसने अपना सिर हिलाया जैसे उसे कुछ याद आया होः “अच्छा… तुम्हारा मतलब है वो लोग… जो वाशिंगटन में बैठते हैं? ना वो मुझे तंग नहीं करते। वो अच्छे बन्दे हैं… उनमें से कुछ मेरे क्लब के सदस्य भी हैं। लेकिन उनसे बहुत ज़्यादा मुलाकात नहीं होती… इसी वजह से कभी-कभी मैं उनके बारे में भूल जाता हूँ। ना वो मुझे तंग नहीं करते।” उसने अपनी बात दोहरायी और मेरी तरफ उत्सुकता से देखते हुए पूछाः

“क्या आप कहना चाह रहे हैं कि ऐसी सरकारें भी होती हैं जो लोगों को पैसा बनाने से रोकती हैं?”

मुझे अपनी मासूमियत और उसकी बुद्धिमत्ता पर कोफ्त हुई।

“नहीं,” मैंने धीमे से कहा “मेरा ये मतलब नहीं था… देखिए सरकार को कभी-कभी तो सीधी-सीधी डकैती पर लगाम लगानी चाहिए ना…”

“अब देखिए!” उसने आपत्ति की। “ये तो आदर्शवाद हो गया। यहाँ यह सब नहीं चलता। व्यक्तिगत कार्यों में दखल देने का सरकार को कोई हक नहीं…”

उसकी बच्चों जैसी बुद्धिमत्ता के सामने मैं खुद को बहुत छोटा पा रहा था।

“लेकिन अगर एक आदमी कई लोगों को बर्बाद कर रहा हो तो क्या वह व्यक्तिगत काम माना जायेगा?” मैंने विनम्रता के साथ पूछा।

“बबार्दी?” आँखें फैलाते हुए उसने जवाब देना शुरू किया। “बर्बादी का मतलब होता है जब मज़दूरी की दरें ऊँची होने लगें। या जब हड़ताल हो जाये। लेकिन हमारे पास आप्रवासी लोग हैं। वो ख़ुशी-ख़ुशी कम मज़दूरी पर हड़तालियों की जगह काम करना शुरू कर देते हैं। जब हमारे मुल्क में बहुत सारे ऐसे आप्रवासी हो जायेंगे जो कम पैसे पर काम करें और ख़ूब सारी चीजें ख़रीदें तब सब कुछ ठीक हो जायेगा।”

वह थोड़ा-सा उत्तेजित हो गया था और एक बच्चे और बूढ़े के मिश्रण से कुछ कम नज़र आने लगा था। उसकी पतली भूरी उँगलियाँ हिलीं और उसकी रूखी आवाज़ मेरे कानों पर पड़पड़ाने लगीः

“सरकार? ये वास्तव में दिलचस्प सवाल है। एक अच्छी सरकार का होना महत्वपूर्ण है। उसे इस बात का ख़्याल रहता है कि इस देश में उतने लोग हों जितनों की मुझे ज़रूरत है और जो उतना ख़रीद सकें जितना मैं बेचना चाहता हूँ; और मज़दूर बस उतने हों कि मेरा काम कभी न थमे। लेकिन उससे ज़्यादा नहीं! फिर कोई समाजवादी नहीं बचेंगे। और हड़तालें भी नहीं होंगी। और सरकार को बहुत ज़्यादा टैक्स भी नहीं लगाने चाहिए। लोग जो देना चाहें वह ले ले। इसको मैं कहता हूँ अच्छी सरकार।”

“वह बेवकूफ़ नहीं है। यह एक तयशुदा संकेत है कि उसे अपनी महानता का भान है।” मैं सोच रहा था। “इस आदमी को वाकई राजा ही होना चाहिए…”

“मैं चाहता हूँ,” वह स्थिर और विश्वासभरी आवाज़ में बोलता गया “कि इस मुल्क में अमन-चैन हो। सरकार ने तमाम दार्शनिकों को भाड़े पर रखा हुआ है जो हर इतवार को कम से कम आठ घण्टे लोगों को यह सिखाने में ख़र्च करते हैं कि क़ानून की इज़्ज़त की जानी चाहिए। और अगर दार्शनिकों से यह काम नहीं होता तो सरकार फौज बुला लेती है। तरीका नहीं बल्कि नतीजा ज़्यादा महत्वपूर्ण होता है। ग्राहक और मज़दूर को कानून की इज़्ज़त करना सिखाया जाना चाहिए। बस!” अपनी उँगलियों से खेलते हुए उसने अपनी बात पूरी की।

“और धर्म के बारे में आप का क्या ख्याल है?” अब मैंने प्रश्न किया जबकि वह अपना राजनीतिक दृष्टिकोण स्पष्ष्ट कर चुका था।

“अच्छा!” उसने उत्तेजना के साथ अपने घुटनों को थपथपाया और बरौनियों को झपकाते हुए कहा: “मैं इस बारे में भली बातें सोचता हूँ। लोगों के लिए धर्म बहुत ज़रूरी है। इस बात पर मेरा पूरा यकीन है। सच बताऊँ तो मैं ख़ुद इतवारों को चर्च में भाषण दिया करता हूँ… बिल्कुल सच कह रहा हूँ आपसे।”

“और आप क्या कहते हैं अपने भाषणों में?” मैंने सवाल किया।

“वही सब जो एक सच्चा ईसाई चर्च में कह सकता है!” उसने बहुत विश्वस्त होकर कहा। “देखिए मैं एक छोटे चर्च में भाषण देता हूँ और ग़रीब लोगों को हमेशा दयापूर्ण शब्दों और पितासदृश सलाह की ज़रूरत होती है… मैं उनसे कहता हूँ…”

“ईसामसीह के बन्दो! ईर्ष्या के दैत्य के लालच से खुद को बचाओ और दुनियादारी से भरी चीज़ों को त्याग दो। इस धरती पर जीवन संक्षिप्त होता है: बस चालीस की आयु तक आदमी अच्छा मज़दूर बना रह सकता है। चालीस के बाद उसे फैक्ट्रियों में रोज़गार नहीं मिल सकता। जीवन कतई सुरक्षित नहीं है। काम के वक्त आपके हाथों की एक गलत हरकत और मशीन आपकी हड्डियों को कुचल सकती है। लू लग गयी और आपकी कहानी खत्म हो सकती है। हर कदम पर बीमारी और दुर्भाग्य कुत्ते की तरह आपका पीछा करते रहते हैं। एक ग़रीब आदमी किसी ऊँची इमारत की छत पर खड़े अन्धे आदमी जैसा होता है। वह जिस दिशा में जायेगा अपने विनाश में जा गिरेगा जैसा जूड के भाई फरिश्ते जेम्स ने हमें बताया है। भाइयो, आप को दुनियावी चीज़ों से बचना चाहिए। वह मनुष्य को तबाह करने वाले शैतान का कारनामा है। ईसामसीह के प्यारे बच्चो, तुम्हारा साम्राज्य तुम्हारे परमपिता के साम्राज्य जैसा है। वह स्वर्ग में है। और अगर तुम में धैर्य होगा और तुम अपने जीवन को बिना शिकायत किये, बिना हल्ला किये बिताओगे तो वह तुम्हें अपने पास बुलायेगा और इस धरती पर तुम्हारी कड़ी मेहनत के परिणाम के बदले तुम्हें ईनाम में स्थाई शान्ति बख़्शेगा। यह जीवन तुम्हारी आत्मा की शुद्धि के लिए दिया गया है और जितना तुम इस जीवन में सहोगे उतना ज़्यादा आनन्द तुम्हें मिलेगा जैसा कि ख़ुद फरिश्ते जूड ने बताया है।”

उसने छत की तरफ इशारा किया और कुछ देर सोचने के बाद ठण्डी और कठोर आवाज़ में कहाः

“हाँ, मेरे प्यारे भाइयो और बहनो, अगर आप अपने पड़ोसी के लिए चाहे वह कोई भी हो, इसे कुर्बान नहीं करते तो यह जीवन खोखला और बिल्कुल साधारण है। ईर्ष्या के राक्षस के सामने अपने दिलों को समर्पित मत करो। किस चीज से ईर्ष्या करोगे? जीवन के आनन्द बस धोखा होते हैं; राक्षस के खिलौने। हम सब मारे जायेंगे। अमीर और ग़रीब, राजा और कोयले की खान में काम करने वाले मज़दूर, बैंकर और सड़क पर झाड़ू लगाने वाले। यह भी हो सकता है कि स्वर्ग के उपवन में आप राजा बन जायें और राजा झाड़ू लेकर रास्ते से पत्तियाँ साफ कर रहा हो और आपकी खायी हुई मिठाइयों के छिलके बुहार रहा हो। भाइयो, यहाँ इस धरती पर इच्छा करने को है ही क्या? पाप से भरे इस घने जंगल में जहाँ आत्मा बच्चों की तरह पाप करती रहती है। प्यार और विनम्रता का रास्ता चुनो और जो तुम्हारे नसीब में आता है उसे सहन करो। अपने साथियों को प्यार दो, उन्हें भी जो तुम्हारा अपमान करते हैं…”

उसने फिर से आँखें बन्द कर लीं और अपनी कुर्सी पर आराम से हिलते हुए बोलना जारी रखाः

“ईर्ष्या की उन पापी भावनाओं और लोगों की बात पर ज़रा भी कान न दो जो तुम्हारे सामने किसी की ग़रीबी और किसी दूसरे की सम्पन्नता का विरोधाभास दिखाती हैं। ऐसे लोग शैतान के कारिन्दे होते हैं। अपने पड़ोसी से ईर्ष्या करने से भगवान ने तुम्हें मना किया हुआ है। अमीर लोग भी निर्धन होते हैं: प्रेम के मामले में। ईसामसीह के भाई जूड ने कहा था अमीरों से प्यार करो क्योंकि वे ईश्वर के चहेते हैं। समानता की कहानियों और शैतान की बाकी बातों पर जरा भी ध्यान मत दो। इस धरती पर क्या होती है समानता? आपको अपने ईश्वर के सम्मुख एक-दूसरे के साथ अपनी आत्मा की शुद्धता की बराबरी करनी चाहिए। धैर्य के साथ अपनी सलीब धारण करो और आज्ञापालन करने से तुम्हारा बोझ हल्का हो जायेगा। ईश्वर तुम्हारे साथ है मेरे बच्चो और तुम्हें उसके अलावा किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं है!”

बूढ़ा चुप हुआ और उसने अपने होंठों को फैलाया। उसके सोने के दाँत चमके और वह विजयी मुद्रा में मुझे देखने लगा। “आपने धर्म का बढ़िया इस्तेमाल किया,” मैंने कहा। “हाँ बिल्कुल ठीक! मुझे उसकी कीमत पता है।” वह बोला, “मैं अपनी बात दोहराता हूँ कि गरीबों के लिए धर्म बहुत ज़रूरी है। मुझे अच्छा लगता है यह। यह कहता है कि इस धरती पर सारी चीजें शैतान की हैं। और ऐ इन्सान, अगर तू अपनी आत्मा को बचाना चाहता है तो यहाँ धरती पर किसी भी चीज़ को छूने तक की इच्छा मत कर। जीवन के सारे आनन्द तुझे मौत के बाद मिलेंगे। स्वर्ग की हर चीज़ तेरी है। जब लोग इस बात पर विश्वास करते हैं तो उन्हें सम्हालना आसान हो जाता है। हाँ, धर्म एक चिकनाई की तरह होता है। और जीवन की मशीन को हम इससे चिकना बनाते रहें तो सारे पुर्जे ठीकठाक काम करते रहते हैं और मशीन चलाने वाले के लिए आसानी होती है…”

“यह आदमी वाकई में राजा है,” मैंने फैसला किया।


“शायद आप विज्ञान के बारे में कुछ कहना चाहेंगे?” मैंने शान्ति से सवाल किया।

“विज्ञान?” उसने अपनी एक उँगली छत की तरफ उठायी। फिर उसने अपनी घड़ी बाहर निकाली, समय देखा और उसकी चेन को अपनी उँगली पर लपेटते हुए उसे हवा में उछाल दिया। फिर उसने एक आह भरी और कहना शुरू किया:

“विज्ञान… हाँ मुझे मालूम है। किताबें। अगर वे अमेरिका के बारे में अच्छी बातें करती हैं तो वे उपयोगी हैं। मेरा विचार है कि ये कवि लोग जो किताबें-विताबें लिखते हैं बहुत कम पैसा बना पाते हैं। ऐसे देश में जहाँ हर कोई अपने धन्धे में लगा हुआ है किताबें पढ़ने का समय किसी के पास नहीं है…। हाँ और ये कवि लोग ग़ुस्से में आ जाते हैं कि कोई उनकी किताबें नहीं खरीदता। सरकार को लेखकों को ठीकठाक पैसा देना चाहिए। बढ़िया खाया-पिया आदमी हमेशा ख़ुश और दयालु होता है। अगर अमेरिका के बारे में किताबें वाकई ज़रूरी हैं तो अच्छे कवियों को भाड़े पर लगाया जाना चाहिए और अमरीका की ज़रूरत की किताबें बनायी जानी चाहिए… और क्या।”

“विज्ञान की आपकी परिभाषा बहुत संकीर्ण है।” मैंने विचार करते हुए कहा।

उसने आँखें बन्द कीं और विचारों में खो गया। फिर आँखें खोलकर उसने आत्मविश्वास के साथ बोलना शुरू किया:

“हाँ, हाँ… अध्यापक और दार्शनिक… वह भी विज्ञान होता है। मैं जानता हूँ प्रोफेसर, दाइयाँ, दाँतों के डाक्टर, ये सब। वकील, डाक्टर, इंजीनियर। ठीक है, ठीक है। वो सब ज़रूरी हैं। अच्छे विज्ञान को ख़राब बातें नहीं सिखानी चाहिए। लेकिन मेरी बेटी के अध्यापक ने एक बार मुझे बताया था कि सामाजिक विज्ञान भी कोई चीज़ है…। ये बात मेरी समझ में नहीं आयी…। मेरे ख्याल से ये नुकसानदेह चीजें हैं। एक समाजशास्त्री अच्छे विज्ञान की रचना नहीं कर सकता। उनका विज्ञान से कुछ लेना-देना नहीं होता। एडीसन बना रहा है ऐसा विज्ञान जो उपयोगी है। फोनोगाफ और सिनेमा – वह उपयोगी है। लेकिन विज्ञान की इतनी सारी किताबें? ये तो हद है। लोगों को उन किताबों को नहीं पढ़ना चाहिए जिनसे उनके दिमागों में सन्देह पैदा होने लगें। इस धरती पर सब कुछ वैसा ही है जैसा होना चाहिए और उस सबको किताबों के साथ नहीं गड़बड़ाया जाना चाहिए।”

मैं खड़ा हो गया।

“अच्छा तो आप जा रहे हैं?”

“हाँ,” मैंने कहा “लेकिन शायद चूँकि अब मैं जा रहा हूँ क्या आप मुझे बता सकते हैं करोड़पति होने का मतलब क्या है?”

उसे हिचकियाँ आने लगीं और वह अपने पैर पटकने लगा। शायद यह उसके हँसने का तरीका था।

“यह एक आदत होती है,” जब उसकी साँस आयी तो वह ज़ोर से बोला।

“आदत क्या होती है?” मैंने सवाल किया।

“करोड़पति होना… एक आदत होती है भाई!”

कुछ देर सोचने के बाद मैंने अपना आखिरी सवाल पूछाः

“तो आप समझते हैं कि सारे आवारा, नशेड़ी और करोड़पति एक ही तरह के लोग होते हैं?”

इस बात से उसे चोट पहुँची होगी। उसकी आँखें बड़ी हुईं और गुस्से ने उन्हें हरा बना दिया।

“मेरे ख़्याल से तुम्हारी परवरिश ठीकठाक नहीं हुई है।” उसने ग़ुस्से में कहा।

“अलविदा,” मैंने कहा।

वह विनम्रता के साथ मुझे पोर्च तक छोड़ने आया और सीढ़ियों के ऊपर अपने जूतों को देखता खड़ा रहा। उसके घर के आगे एक लॉन था जिस पर बढ़िया छँटी हुई घनी घास थी। मैं यह विचार करता हुआ लॉन पर चल रहा था कि शुक्र है मुझे इस आदमी से फिर कभी नहीं मिलना पड़ेगा। तभी मुझे पीछे से आवाज़ सुनायी दी:

“सुनिए!”

मैं पलटा। वह वहीं खड़ा था और मुझे देख रहा था।

“क्या यूरोप में आपके पास ज़रूरत से ज़्यादा राजा हैं?” उसने धीरे-धीरे पूछा।

“अगर आप मेरी राय जानना चाहते हैं तो हमें उनमें से एक की भी ज़रूरत नहीं है।” मैंने जवाब दिया।

वह एक तरफ को गया और उसने वहीं थूक दिया।

“मैं अपने लिए दो-एक राजाओं को किराये पर रखने की सोच रहा हूँ,” वह बोला। “आप क्या सोचते हैं?”

“लेकिन किसलिए?”

“बड़ा मज़ेदार रहेगा। मैं उन्हें आदेश दूँगा कि वे यहाँ पर मुक्केबाज़ी करके दिखाएँ…”

उसने लॉन की तरफ इशारा किया और पूछताछ के लहजे में बोला:

“हर रोज एक से डेढ़ बजे तक। कैसा रहेगा? दोपहर के खाने के बाद कुछ देर कला के साथ समय बिताना अच्छा रहेगा… बहुत ही बढ़िया।”

वह ईमानदारी से बोल रहा था और मुझे लगा कि अपनी इच्छा पूरी करने के लिए वह कुछ भी कर सकता है।

“लेकिन इस काम के लिए राजा ही क्यों?”

“क्योंकि आज तक किसी ने इस बारे में नहीं सोचा” उसने समझाया।

“लेकिन राजाओं को तो खुद दूसरों को आदेश देने की आदत पड़ी होती है” इतना कहकर मैं चल दिया।

“सुनिए तो,” उसने मुझे फिर से पुकारा।

मैं फिर से ठहरा। अपनी जेबों में हाथ डाले वह अब भी वहीं खड़ा था। उसके चेहरे पर किसी स्वप्न का भाव था।

उसने अपने होंठों को हिलाया जैसे कुछ चबा रहा हो और धीमे से बोला:

“तीन महीने के लिए दो राजाओं को एक से डेढ़ बजे तक मुक्केबाज़ी करवाने में कितना खर्च आयेगा आपके विचार से?”





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