नाटककार गुरूशरण सिंह

नाटककार गुरुशरण सिंह (16 सितम्बर 1929 - 27 सितम्बर 2011)


गुरूशरण सिंह पंजाबी में नुक्कड़ नाटक करने वाले नाटककार थे। अपने 82 वर्ष के जीवन में गुरूशरण भ्राजी ने लगभग 6000 नुक्कड़ नाटकों की प्रस्तुति की, 170 नाटक, विभिन्न विषयों की 13 पुस्तकें, पंजाबी भाषा के दो अति लोकप्रिय सीरियल -'भाई मन्ना सिंह और दास्ताने पंजाब' तथा एक फिल्म मन जीत जग जीत की पटकथा लिखी। उनके अनेकानेक नाटकों का अनुवाद बहुतेरी भाषाओं में हुआ ( जैसे कि ' इन्कलाब जिन्दाबाद, हवाई गोले, गढ्ढा, तमाशा, ये लहू किसका है, बाबा बोलता है, जंगीराम की हवेली...')। 

हमारे यहाँ नाटक जैसे सशक्त माध्यम को युगों-युगों तक विशुद्ध मनोरंजन तक सीमित रखा गया, जबकि लोगों से सीधे संवाद कायम करने की ऐसी ताकत किसी अन्य कला-विधा में नहीं है। अब से 57 साल पहले गुरुशरण भ्राजी ने सामाजिक बदलाव में नाट्य विधा की भूमिका को पहचाना और अंतिम साँस तक उसे व्यवहार में उतारते रहे। यह उस जमाने की बात है जब वे भाखड़ा नांगल परियोजना में बतौर इन्जीनियर काम करते थे। उन्होंने ‘लोहड़ी दी हड़ताल’ नाटक का प्रदर्शन किया जो वहाँ के मजदूरों को जागृत और आन्दोलित करने में काफी कारगर साबित हुआ। यह घटना 1954 की है। इसी के बाद उन्हें जनता से जुड़ने में नाटक के महत्त्व का गहरा अहसास हुआ।

गुरुशरण भ्राजी जिस दौर और जिस माहौल में पले-बढ़े, उसका उनके व्यक्तित्व पर स्पष्ट प्रभाव हुआ। भगत सिंह की शहादत के समय वे दो साल के थे। उनका बचपन और किशोरावस्था स्वाधीनता संघर्ष के
उत्कर्ष काल का प्रत्यक्षदर्शी रहा। नाटकों के जरिये वे जनता की पीड़ा-व्यथा, आशा-आकांक्षा, आक्रोश और प्रतिरोध को आवाज देते रहे। आपातकाल के दौरान उन्होंने ‘तख्त लाहौर’ नाटक किया, जिसके कारण उन्हें गिरफ्तार करके 48 दिनों तक जेल में रखा गया। लेकिन इस घटना के बाद वे और मजबूती से अपने अभियान में जुट गये। उनका कहना था कि ‘‘जनता की आवाज दबेगी नहीं।’’

पंजाब की मेहनतकश जनता के वे इतने करीब इतने अपने थे कि लोग उन्हें भाई मन्ना सिंह (उनके सीरियल के किरदार का नाम) कहा करते। पाँच साल पहले पंजाब के लोगों ने बरनाला के निकट कुस्सा गाँव में उनके कामों को सलाम करते हुए एक विराट जन-सभा का आयोजन किया। अपने प्रिय ‘भाई मन्ना सिंह’ के सम्मान में उमड़े 20,000 लोगों के समूह ने जब ‘युग-युग जिये गुरुशरण सिंह’ का नारा बुलन्द किया तो आकाश गूँज उठा। वे लोग पंजाब के दूर-दराज इलाकों से उस आवाज को सुनने और उस किरदार को देखने आये थे जिसने अपने अभिनय से न जाने कितनी बार उनकी आँखों को छलकाया था। उनके मन में हलचल पैदा की थी और भावनाओं के उतार-चढ़ाव के बीच बड़ी सहजता और आत्मीयता के साथ जिन्दगी के असली मायने और मकसद बताया था। 

पंजाब में नाट्य विधा को लोकप्रिय बनाने और ऊँचा उठाने के लिए 80 के दशक में उन्होंने चंडीगढ़
स्कूल ऑफ ड्रामा की स्थापना की। हर साल वहाँ उनके नाम पर नाट्य उत्सव होता है। साथ ही उन्होंने चंडीगढ में ही प्राचीन कला केन्द्र नाम से एक मंडली का भी गठन और संचालन किया। ग्रामीण कलाकारों को प्रशिक्षित करने के लिए पंजाब के गाँवों में उन्होंने कुल 35 नाट्य केन्द्रों की स्थापना की। इतना ही नहीं, उन्होंने एक नयी नाट्य विधा के रूप में पिण्डू नाटक (ग्रामीण नाटक) को भी काफी लोकप्रिय बनाया, जिसका उद्देश्य आधुनिक विचारों और संवेदनाओं के साथ ग्रामीण यथार्थ की प्रस्तुति करना है। उनके कथानक और संवाद में हँसी-मजाक और तीखे व्यंग्य इतने सहज रूप में घुले-मिले होते हैं कि दर्शक को अपनी ही जिन्दगी का हिस्सा लगते हैं। लेकिन साथ ही उनमें गहरे अर्थ छिपे होते हैं, जिनको दर्शक आसानी से पकड़ सकते हैं।

मुल्लनपुर में भी उनके नाम से एक रंगशाला का निर्माण किया गया। अनीता शब्दीश ने उनके जीवन और कार्यों पर आधारित एक डोक्यूमेन्ट्री फिल्म भी बनायी। 

27 सितम्बर 2011 को गुरुशरण भ्राजी ने आंखरी सांस ली। जनता का यह सच्चा कलाकार हमें रास्ता दिखाता, खुद उस पर चलता हुआ,हमेशा नए कलाकारों के लिए एक मिसाल बना रहेगा। 

असरार उल हक मजाज

असरार उल हक मजाज (19 अक्टूबर 1911 - 5 दिसंबर 1955)

  "मुसाफ़िर यूँही गीत गाए चला जा

    सर-ए-रहगुज़र कुछ सुनाए चला जा
    तिरी ज़िंदगी सोज़-ओ-साज़-ए-मोहब्बत
    हँसाए चला जा रुलाये चला जा "

मज़ाज़ का जन्म यूपी के रुदौली कस्बे में 1911 में हुआ। उन्हें मज़ाज़ लखनवी नाम से भी जाना जाता है मजाज़ के वालिद सिराज उल हक उस समय अपने इलाके में वकालत की डिग्री लेने वाले पहले आदमी थे। एक सरकारी मुलाज़िम होने के चलते वे चाहते थे कि बेटा इंजीनियर बने और इसलिए उन्होनें असरार को आगरा के सेंट जोंस कॉलेज पढ़ने भेज दिया। वहां असरार को जज़्बी, फानी और मैकश अकबराबादी जैसे लोगों की सोहबत मिली और वे ग़ज़लों में रुचि लेने लगे। 

मजाज़ का कवी वयक्तित्व फूल और आग का मिश्रण है। रोशन दुनिया के अंधेरों को देख मज़ाज़ का दिल ग़मों से भर गया था। नाकाम इश्क़ भी एक कारण था। 

       "शहर की रात और मैं नाशाद-ओ-नाकारा फिरूँ  
         जगमगाती जागती सड़कों पे आवारा फिरूँ "

1931 में बीए करने वह अलीगढ़ चले आए और इसी शहर में उनका राब्ता मंटो, चुगताई, अली सरदार ज़ाफ़री और जां निसार अख़्तर जैसों से हुआ। इससे उनकी शायरी पर भी प्रभाव पड़ा। मज़ाज ने अपने ग़मों को जनता के दुखों के साथ जोड़ दिया। वे प्रगतिशील लेखक आंदोलन के भी हिस्सा रहे। फैज़ भी मज़ाज़ को 'आवाम का मुतरिब' (गानेवाला) मानते थे।

1935 में वो ऑल इंडिया रेडियो में असिस्टेंट एडिटर होकर दिल्ली आ गए। 

इस तरह सिर्फ 44 साल जीने के बाद मज़ाज़ ने 5 दिसम्बर 1955 को आंखरी सांस ली। उनकीं तमाम नज़्मों और ग़ज़लों को पढ़कर यह जाना जा सकता है की मज़ाज़ जितने ग़मगीन मिज़ाज़ के शायर रहे , उससे कहीं ज़्यादा वे ज़िन्दगी को चाहने वाले व उससे प्रेम करने वाले शेयर रहे। 

        "तिरे माथे पे ये आँचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन
          तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था"

अकबर इलाहबादी

अकबर इलाहबादी (16 नवंबर 1846 - 15 फरवरी 1921)


"वो इश्क़ क्या जो न हो हादी-ए-तरीके-कमाल
 जो अकल को न बढ़ाये वो शाइरी क्या है"

अकबर का जन्म अलाहबाद जिले के बारा में, उत्तर प्रदेश में हुआ। इनका साहित्य जगत में महत्वपूर्ण योगदान रहा। उर्दू के साथ-साथ अरबी, फ़ारसी, अंग्रेजी, का प्रयोग कर उन्होनें उर्दू में इक नई जान फूक दी।

वे अदालत में सेसन जज थे और इसी वजह से उन्होनें समाज के सभी रंग करीब से देखे थे । उन्होनें अपने समय में यह साफ़ तौर पर समझ लिया था कि  हिन्दू - मुस्लमान अदि सारे फसाद और झगड़े अंग्रेज़ों ने अपना उल्लू सीधा करने के लिए किए हैं। उन्होनें लिखा-

              "यह बात गलत कि मुल्के इस्लाम है हिन्द
                यह झूठ कि मुल्के लछमन-ओ-राम है हिन्द
                हम सब हैं मुति-ओ-खैर-ख़्वाहे-इंग्लिश
                यूरोप के लिए बस एक गोदाम है हिन्द "

('मुति-ओ-खैर-ख़्वाहे-इंग्लिश'- अंग्रेजों के शुभचिंतक और नौकर)

अपने समय के बिके हुए अख़बारों पर अकबर ने क्या खूब लिखा था -

              "खींचों न कमानों को न तलवार निकालो
               जब तोप मुक़ाबिल  हो तो अखबार निकालो"

पार्टियों व नेताओं का बड़े व्यापारियों से चंदा लेना और जनता के दुःख-दर्द सबको दर किनार कर, सिर्फ  चाटूकारी करने पर अकबर लिखते हैं-

               "कहते हैं हमको जो चंदा दे मुहज्जब है वही
                 उसके  अफआल से मतलब है न आदात से काम"

 ('मुहज्ज़ब'-सभ्य; 'अफआल'-कर्मों; 'आदात'-आदत)

'तुम एक गोरख धंधा हो ' शायरी  में भी इनके शेरों का इस्तेमाल हुआ है।

इस प्रकार व्यंग्यात्मक शैली के अव्वल फनकार का देहांत 15 फरवरी 1921 को हुआ।  

अदम गोंडवी

अदम गोंडवी (22 अक्टूबर 1947 - 18  दिसंबर 2011)

"घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है
 बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है"

कवि सम्मेलनों और मुशायरों में अपनी ग़ज़लों के ज़रिये दर्शकों का दिल जीत लेने वाले लेखक अदम गोंडवी का जन्म 22 अक्टूबर 1947 को गोंडा जिले के अट्टा गाँव, उत्तर प्रदेश में हुआ। शायद ही कोई कवि ऐसा होगा  जिसने उनकी  ग़ज़ल सुनकर यह पता लगा लिया हो की अदम बहुत कम पढ़ेंवे थे। अदम अपनी ग़ज़ल रोज़-मर्रे में इस्तमाल आने वाली भाषा में ही लिखा करते और ये ही वजह थी की सामान्य से सामान्य आदमी भी उन्हें सुनकर उनसे  दिली  जुड़ाव महसूस करता था।

गाँव  में  पले-बड़े होने के कारण अदम ने  गाँव और गाँव में रहने वाले लोगों की ज़िन्दगी को बहुत करीब से देखा था। भारत की अर्थव्यवस्था का बहुत बड़ा हिस्सा गाँव की खेती से पूर्ण होता है। आज़ादी के इतने साल बाद भी गांव में साफ़ पानी, स्कूल, हॉस्पिटल आदि के न होने पर अदम ने लिखा।

               "तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है

                 मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है"

भारतीय समाज  में  आज़ादी के बाद भी जाति भेदभाव के बने रहने और नीची जातियों के लोगों  की ज़िंदगी का हाशिये पर पड़े रहने पर अदम लिखते हैं  -

               "वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं
                वे अभागे आस्‍था विश्‍वास लेकर क्‍या करें

               लोकरंजन हो जहां शम्‍बूक-वध की आड़ में
               उस व्‍यवस्‍था का घृणित इतिहास लेकर क्‍या करें"

 अपने वक्त के बिकाऊ नेता और उनकी जुमलेबाजी पे तंज कसते  हुए अदम लिखते हैं -

              "काजू भुने पलेट में, विस्की गिलास में
                उतरा है रामराज विधायक निवास में"

हिन्दुस्तान की आज़ादी के लिए सभी कौमों के लोगों ने चाहे वो हिन्दू कौम के लोग हों  या मुसलमान कौम के,  मिलकर जंग लड़ी थी। नेताओं का अपनी कुर्सी के लिए हिन्दू-मुसलमान की एकता को तोड़ने और साम्प्रदायिकता की आग को फैलाने  पर अदम ललकारते हुए कहते हैं -

                "हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िय
                 अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िये"

18  दिसंबर 2011 को अदम ने आंखरी सांस ली। अदम जैसे  लिखने वालों को  जनता अपने सबसे  ख़ास-ओ-ख़ास लेखकों में हमेशा याद रखेगी।

               "भूख के एहसास को शेरो-सुख़न तक ले चलो
                  या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो"


फैज़ अहमद फैज़

फैज़ अहमद फैज़ (13 फरवरी 1911 - 20 नवंबर 1984)


            "बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
             बोल ज़बाँ अब तक तेरी है"

फैज़ अहमद फैज़ का जन्म  हिन्दुस्तान के  बंटवारे से पहले के पंजाब के नारोवाल जिले में 13 फरवरी 1911 को हुआ। फैज़ एक ऐसे घर से आये थे जहां कवियों और  लेखकों का आना-जाना और महफ़िल सजना आम था। 

1941 में फैज़ की मुलाक़ात एलिस से हुई जो की ब्रिटेन की नागरिक थीं और गवर्नमेंट कॉलेज में पढ़ती थी। उस समय वहां उस कॉलेज में फैज़ पढ़ाया करते थे। एलिस ने बाद में चलकर पकिस्तान की राष्ट्रीयता ली। दोनो ने साथ ज़िन्दगी गुज़र करने की ठानी और उनकी दो बेटियां हुईं सलीमा और मोनीज़ा। फैज और एलिस के त्याग और दर्द को उन पत्रों में महसूस किया जा सकता है जो जेल जीवन के दरम्याँ एक-दूसरे को लिखे गये थे। ये पत्रा ‘सलीबें मेरे दरीचे की’ (प्रकाशन वर्ष 1971) में संकलित हैं। फैज़ ने क्या खूब लिखा-

          " चंद रोज़ और मिरी जान फ़क़त चंद ही रोज़ 
            ज़ुल्म की छाँव में दम लेने पे मजबूर हैं हम "

फैज़ ऐसे शायर थे जिन्होनें अपने लेखन में इश्क़ को और संघर्ष करने को एक साथ पेश किया। वे मानते थे कि कोई भी लेखक अगर अपनी ग़ज़ल या शायरी लिखते वे अपने आसपास के मौहौल को उससे न जोड़े तो वह कभी भी अच्छा नहीं लिख सकता। अपनी शायरी में  वे अपने आसपास के लोगों  की तकलीफों का ज़िक्र करते व एहसास कराते -    

          "आज के नाम 
           और 
           आज के ग़म के नाम 
           आज का ग़म कि है ज़िंदगी के भरे गुलसिताँ से ख़फ़ा"

पंजाब के किसानों के लिए पंजाबी में उन्होंने एक तराना लिखा है। फैज किसानों और मेहनतकश लोगों की ताकत को जानते हैं।  फैज उनको याद दिलाते हैं कि 'तू तो जगत का अन्नदाता है, धरती तेरी बाँदी और तू जगत को पालनेवाला है, इस बात को समझ और उठ। यदि तू बीज नहीं बोये, फसल नहीं उगाये और अपनी आँखें फेर ले तो सब भूखे मर जायेंगे। अपने सारे झगड़े भूल जाओ और एक हो जाओ। । उठ जट्टा और अपनी ताकत को पहचान -

          "उठ उतांह नूँ जट्टा
            मरदा क्यों जानै
            भुलियाँ, तूं जग दा अन्नदाता
            तेरी बाँदी धरती मा ता
            तूं जग  दा पालणहारा
            ते मरदा क्यूँ जानै
            उठ उतांह नूँ जट्टा
            मरदा क्यूँ जानै"

1936  में फैज़ ने हिन्दुस्तान और पकिस्तान के आजादपसन्द लेखकों के साथ प्रगतिशील लेखक आंदोलन में हिस्सा लिया। गौरतलब है कि अपनी कलम की वजह से उन्हें जेल भी जाना पड़ा लेकिन  वे तमाम  मुश्किलों से लड़ते रहे। उन्हें गद्दार और मुल्क का दुश्मन कहा गया। उनके परिवार का सोशल बाॅयकाॅट किया गया। बच्चों को अच्छे स्कूलों से निकाल दिया गया लेकिन फैज अपने निश्चय से पीछे नहीं हटे। बहुत सब्र और हिम्मत के साथ उन्होंने आतंक और जुल्म का सामना किया।

1947 में हिन्दुस्तान गोरों से आज़ाद हुआ और साथ ही साथ पाकिस्तान और भारत इन दो मुल्कों में  बंट गया। आज़ादी के वक्त शासकों दवारा मुल्क के दो टुकड़े करने से यह साफ़ ज़ाहिर था की अब भी चंद लोगों को छोड़कर बहुतायत मेहनत करने वाली जनता आज़ाद नहीं हुई है। इसपर फैज़ ने 1947 के अगस्त में यह नज़्म  लिखी  -      
   
         "ये दाग़ दाग़ उजाला ये शब.गज़ीदा सहर
          वो इंतिज़ार था जिस का ये वो सहर तो नहीं" 

फैज़ को सिर्फ हिन्दुस्तान में या पकिस्तान में ही नहीं पढा जाता है , बल्कि दुनिया के तमाम इंसाफ़पसन्द लोग चाहे वे कोई भी भाषा जानते हों , उनको अपने देश का ही शायर मानते हैं । फिर 20 नवंबर 1984 का वो दिन आया जब उर्दू शायरी का एक बड़ा सितारा इस जहां से परवाज कर गया। 

         "हम देखेंगे
          लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
          वो दिन कि जिसका वादा है
          जो लोह-ए-अज़ल में लिखा है
          हम देखेंगे,
          जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गरां,
          रुई की तरह उड़ जाएँगे"

( लाजिम = निश्चित, लौहे-अजल = पूर्व निर्धारित नियति,
   कोहे-गराँ = भारी पहाड़)



हबीब जालिब


हबीब जालिब  (24 मार्च 1928- 13 मार्च 1993)

       "शेर से शाइरी से डरते हैं 
         कम-नज़र रौशनी से डरते हैं"

शायर-ए-आवाम कहे जाने वाला 'हबीब जालिब' इस कदर बेबाक और सीधे लहजे में ज़ुल्म के खिलाफ शायरी करता कि उसकी नज़्मों से उस दौर के हुक्मरां खौफ खाया करते। मुशायरों में ज़ालिब जब अपना कलाम सुनाता, सुनने वालों को वह शब्द-दर-शब्द रट जाता। जुलूसों में वह बतौर नारा बन जाता। जालिब को अपनी राह काटों से भरी मिली।  उन्हें ज्यादातर ज़िन्दगी जेल में डाला रक्खा गया।  तमाम ज़ुल्म सहने के बाद भी जालिब ने इन्साफ का, आवाम का साथ कभी नहीं छोड़ा।
 
बात 1959 की है ,पाकिस्तान में  लोकतंत्र का खात्मा कर के जनरल अय्यूब ख़ान का मार्शल लॉ चल रहा था, सेंसरशिप जारी थी, तानाशाही अपने उरूज़ पर थी। रेडियो,अखबार सब वही ज़ुबान बोल रहे थे जो सत्ता को रास आये। ऐसे में हबीब आवाम के बीच जा ये नज़्म पढा करते-  

       "दीप जिसका महल्लात ही में जले
         चंद लोगों की ख़ुशियों को लेकर चले
         वो जो साए में हर मसलहत के पले
         ऐसे दस्तूर को सुब्हे-बेनूर को
         मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता"
         
        ( महल्लात - महलों )

कलमकारों को हुकुमत के सामने नतमस्तक होते देखना जालिब को सख्त नापसंद था। मशहूर शायर हफीज़ जलंधरी अय्यूब ख़ान के सलाहकार के तौर पर रखे गए। इसपर जालिब ने तंज कसते वे यह नज़्म बहुत खूब लिखी - 

                "जिनको था ज़बां पे नाज़
                  चुप हैं वो ज़बांदराज़
                  चैन है समाज में
                  बे-मिसाल फ़र्क है
                  कल में और आज में
                  अपने खर्च पर हैं क़ैद
                  लोग तेरे राज में"

अयूब खान के बाद येहया खान के हुकूमत में आने पर हॉल में जहाँ मुशायरा हुआ करता वहां जालिब ने जब अयूब खान की जगह येहया खान की तस्वीर लगी देखि तो उन्होंने भरी महफ़िल में ये नज़्म पढ़ी  -

"तुम से पहले वो जो इक शख़्स यहाँ तख़्त-नशीं था 
  उस को भी अपने ख़ुदा होने पे इतना ही यक़ीं था"

ना सिर्फ अय्यूब ख़ान या याहया ख़ान के राज में हबीब ने अपने अशआर लिखे, जनरल जिया उल हक़ के खिलाफ़ भी उन्होंने अपनी तेज कलम से प्रहार जारी रक्खा। जनरल ज़िआ-उल-हक़ के राज में जालिब लिखते हैं - 

"ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना 
  पत्थर को गुहर दीवार को दर कर्गस को हुमा क्या लिखना"

ये रंज और तंज है जालिब की कलम में। ढाका यूनिवर्सिटी में जब बच्चों पर गोली चली तो ग़ालिब ने नज़्म लिखी-

"बच्चों पे चली गोली 
 माँ देख के ये बोली  
 ये दिल के मिरे टुकड़े  
 यूँ रोए मिरे होते  
 मैं दूर खड़ी देखूँ  
 ये मुझ से नहीं होगा"
  
जालिब ने अपनी शायरी ही नहीं बल्कि तमाम ज़िन्दगी दुनिया के मेहनतकश व आज़ादपसंद लोगों के लिए  कुर्बान कर दी। उनका एक बच्चा मुनासिफ दवा-दारू के अभाव में बीमार होकर मर गया। अगली गिरफ्तारी के वक्त उनकी  दूसरी बच्ची बीमार थी लेकिन फिर भी जालिब ने न्याय का रुख न छोड़ा, वे जेल गए और उन्होनें जेल से लिखा -

            "मेरी बच्ची मैं आऊँ न आऊँ
              आने वाला ज़माना है तेरा"

जालिब ने 13 मार्च 1993 को आंखरी सांस ली। जालिब के अशआर हर दौर में मौजूं रहेंगे। कलम के एक सिपाही की इससे ज़्यादा इज्ज़त-अफज़ाई और किसी चीज़ से नहीं हो सकती। 

"कोई तो परचम ले कर निकले अपने गरेबाँ का जालिब  
 चारों जानिब सन्नाटा है दीवाने याद आते हैं "







...... 

प्रवाह कल्चरल टीम पर्चा

प्रवाह कल्चरल टीम पर्चा

समाज में आए किसी भी तरह के आर्थिक बदलाव का असर उस समाज में रहने वाले लोगों की संस्कृति पर पड़ता है। चाहे वह अंग्रेज़ों का भारत की आज़ादी के 200 साल पहले भारत को गुलाम बनाना हो या 1990 से लेकर अब तक भूमंडलीकरण की नीतियों द्वारा देश को कंगाल करना हो , ऐसे सभी बदलावों का असर साहित्य व  कलाओं पर पड़ना लाज़मी है।

आज भारत की बहुतायत जनता गरीबी की मार झेल रही है । देश में लगातार बढ़ती किसान आत्म-हत्याएं, मजदूरों की दिन-ब-दिन बदतर होते हालात, नौजवानों के बीच बढ़ती बेरोजगारी, महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराध आदि सभी समस्याएं कम होने का नाम नहीं ले रही ।आज बहुत सी ताकतें हैं जो नए समाज के लिए संघर्षरत दिखाई पड़तीं हैं  लेकिन जब तक संगठित प्रयास नहीं होंगे तब तक इन सभी समस्याओं से छुटकारा पाना मुश्किल प्रतीत होता है।

हम अपने संघर्षों को तेज करने के लिए अनेकों सांस्कृतिक कार्यवाहियों का  बेहतर से बेहतर प्रयोग कर सकते हैं। गायकी, नुक्कड़ नाटक, कविता पाठ, स्टेज प्ले आदि कलात्मक तरीकों से हम अपनी बातों को लोगों के बीच बहुत रोचक व सृजनात्मक अंदाज़ से  पेश कर सकते हैं।

पिछले हो चुके सभी जन-आंदोलनों, महिला आंदोलनों , छात्र व किसान आंदोलनों से अनेकों गीतों व नाटकों  को जन्म हुआ।आज हर एक संस्कृतिकर्मी को ज़रुरत है की वो इस धरोहर को अपनाये और इसको और ज्यादा  परिपक़्व   बनाके नए समाज को लाने में अपनी सक्रीय भूमिका अदा करे।


उद्देश्य-
  • आज के समाज की पतनशील संस्कृति के विकल्प में अवाम को प्रगतिशील संस्कृति से अवगत  कराना।  
  • प्रगतिशील जनकवियों, लेखकों व नाटककारों की रचनाओं को गीत, नुक्कड़ नाटक तथा अन्य सांस्कृतिक माध्यमों  के रूप में प्रस्तुत करना। 
  • संघर्ष के व नई सुबह के गीतों, नाटकों और कविताओं को प्रस्तुत करना। 
  • क्षेत्रीय भाषा के प्रगतिशील गीतों को गाना।  

आवाहन-

हम सभी जोश से भरे नौजवानों व आजादपसन्द लोगों से आवाहन करतें हैं की वो कला के महत्व को समझें और अपने-अपने  इलाके में अपने साथियों के साथ मिलकर एक सांस्कृतिक टीम बनाएं  व देश में चल रहें संघर्षों को इक नई दिशा दें। 



  

साहिर लुधियानवी

साहिर लुधियानवी - (8 मार्च 1921-25 अक्टूबर 1980)

               "पोंछ कर अश्क अपनी आँखों से ,
                 मुस्कुराओ तो कोई बात बने
                 सर झुकाने से कुछ नहीं होता 
                 सर उठाओ तो कोई बात बने"

कुछ इस क़दर लिखा करते साहिर। अपनी इंसाफ़पसन्द -तरक्कीपसंद नज़्मों, गीतों, ग़ज़लों से साहिर ने लोगों के दिलों में अपनी ख़ास जगह बनायी। एक इंसान होने के नाते उन्हें यह गवारां न था कि एक तरफ रात-दिन मेहनत करने वाली बहुतायत जनता गरीबी में खटती रहे और दूसरी तरफ इन्हीं के दम पे कुछ चँद लोग ऐयाशी भरी ज़िन्दगी काटें। उन्होनें अपनी कलम जनता के हित में इस्तेमाल करी और वे उनकी आवाज़ बनके उभरे।  

ऐसा कुछ भी जो लोगों के बीच फूट डालने का काम करता और समाज को पीछे की ओर धकेलता, उसका  साहिर नज़्मों, ग़ज़लों से पुरजोर विरोध किया करते। साहिर के लिए वो मंदिर, मंदिर न था जिसमें क़ुरआन न हो और वो हरम, हरम नहीं जिसमें गीता न रखी  हो। उनकी कलम हिन्दू-मुस्लिम के भेदभाव पर हमेशा तीखा प्रहार करती रही-

           "तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा,
             इंसान की औलाद है इंसान बनेगा", 

औरतों के प्रति उनका संजीदा नज़ीरिया निचे ज़िक्र की गई नज़्म से साफ़ पता चलता है।

           "ये कूचे ये नीलाम घर दिलकशी के
             ये लुटते हुए कारवां ज़िन्दगी के
             जिन्हें नाज़ है हिन्द
             पर वो कहाँ है "

(फिल्म 'प्यासा' में एक वैश्यालय से गुज़रते हुए अभिनेता इस नज़्म को गाता है) 

साहिर लुधियाना के गवर्नमेंट कॉलेज से पड़े जहां पर वे अपनी ग़ज़ल व शायरी के चलते चर्चे में रहा करते।वहाँ उनकी दोस्ती अमृता प्रीतम से हुई , जो कि एक मशहूर लेखिका हुईं। अपनी रूहानी शायरी से उन्होंने अमृता के दिल में खास जगह बना ली थी लेकिन इन दोनों की मुहौब्बत मुकम्मिल न हो सकी। अमृता के घरवालों को साहिर के मुसलमान होने से ऐतराज़ था। इसका उनपर गहरा प्रभाव पड़ा और उन्हें पढ़ने पे यह साफ़ मालूम भी पड़ता है। कालान्तर में उसी कॉलेज के ऑडिटोरियम का नाम साहिर के नाम पर ही रखा गया।

साहिल ने जिंदगी का साथ कभी न छोड़ा, उन्होनें बेहतर कल के वास्ते सपने सजोये। एक ऐसे कल के सपने जहाँ प्यार पे बंदिशें न हों, जहाँ ख़ुशी पे सबका बराबर हक हो, जहां किसी को भी किसी मजबूरी तले न रहने पड़े। 

"आओ कि कोई ख़्वाब बुनें कल के वास्ते 
  वर्ना ये रात आज के संगीन दौर की 
  डस लेगी जान ओ दिल को कुछ ऐसे कि जान ओ दिल 
  ता-ऊम्र फिर न कोई हसीं ख़्वाब बुन सकीं"    
   
जुल्म करने वालों से उन्होनें बेबाक और सीधे सवाल पूछे -

 "धरती की सुलगती छाती से बेचैन शरारे पूछते हैं 
   तुम लोग जिन्हें अपना न सके वो ख़ून के धारे पूछते हैं 
   सड़कों की ज़बाँ चिल्लाती है, सागर के किनारे पूछते हैं 
   ये किस का लहू है कौन मरा, 
   ऐ रहबर-ए-मुलक-ओ-क़ौम बता"

साहिर प्रगतिशील लेखक आंदोलन का हिस्सा भी रहे। अपने गीतों व ग़ज़लों से उन्होंने नये समाज के संघर्ष को तेज़ किया।

कला के इस मशहूर गीतकार व ऊँचे दर्जे के फनकार ने 25 अक्टूबर 1980 को दुनिया से अलविदा कह दिया। साहिर की शायरियाँ, ग़ज़लें, गीत, नज्मे संघर्ष की राह पर अडिग रहकर चलने का हौसला भरती हैं और इन्साफ के परचम को थामे रखने व आगे बढ़ते जाने को प्रेरित करती हैं। ताउम्र खुद साहिर इसे थामे रहे। संघर्ष की आवाज़ को उन्होनें कभी दबने न दिया। दुनिया से हमेशा के लिए रुखसत होने के बाद भी साहिर लोगों के बीच हमेशा ज़िंदा रहेंगें और हर आज़ादपसन्द शख्स को समय-समय पर प्रेरित करते रहेंगे।

 साहिर की मशहूर नज़्म -

    "इन काली सदियों के सर से जब रात का आँचल ढलकेगा
      जब दुख के बादल पिघलेंगे जब सुख का सागर छलकेगा
      जब अम्बर झूम के नाचेगा जब धरती नग़्मे गाएगी
      वो सुब्ह कभी तो आएगी"




..... 

किन्ना सोणा तैनू रब ने बनाया

किन्ना सोणा तैनू रब ने बनाया - नुसरत 

किन्ना सोणा तैनू रब ने बनाया
दिल करे वेखदा रवान 
किन्ना सोणा तैनु रब ने बनाया 

दिल मुढदा नी  लख समझाया 
दिल करे वेखदा रवान  
किन्ना सोणा तैनू रब ने बनाया

जी करदा सोणीया सारी उम्र
तैनू कोल बिठाके तकदा रवान 
सारा जिस्म मेरा अख हो जावे 
महौताज न मैं ऐसे अख दा रवान 
किन्ना सोणा तैनू रब ने बनाया

मुख तेरा सोंणीया गुलाब नालो चंगावे 
नशा तेरी अंख दा शराब नालो चंगावे 
दिल करे वेखदा रवान  
किन्ना सोणा तैनू रब ने बनाया

प्यार तेरा है ज़िन्दगी मेरी 
करनी है मैं पूजा तेरी 
मेरी ज़िन्दगी दा तू ही सरमाया 
जी करें वेखदा रवान 
किन्ना सोणा तैनू रब ने बनाया

दिल विच तेरा प्यार वसाके 
वेखीं जावान कोल बिठा के 
तैनु दिल वाले शीशा विच सजाया 
जी करे वेखदा रवान 
किन्ना सोणा तैनू रब ने बनाया
...... 

वो हटा रहें हैं पर्दा

वो हटा रहें हैं पर्दा- नुसरत 

वो हटा रहें हैं पर्दा
सर-ए-बाम छुपके-छुपके  
मैं नज़ारा कर रहा हूँ 
सर-ए-शाम छुपके-छुपके 

ये झुकीं झुकीं निगाहें 
ये हसीन हसीन इशारे 
मुझे दे रहें हैं शायद 
वो पयाम छुपके-छुपके

न दिखाओ चलते चलते 
यूँ कदम कदम पे शोखी 
कोई क़त्ल हो रहा है 
सर-ए-आम छुपके-छुपके 

कभी शोखियाँ दिखाना 
कभी उनका मुस्कुराना 
ये अदाएं कर न डाले 
मेरा काम छुपके-छुपके 

ये जो हिचकिया मुसलसल 
मुझे आ रही है आलम 
कोई ले रहा है शायद 
मेरा नाम छुपके-छुपके 

वो हटा रहें हैं पर्दा
सर-ए-बाम छुपके-छुपके  

..... 

आँख उठी मोहब्बत ने अंगडाई ली

आँख उठी मोहब्बत ने अंगडाई ली- नुसरत 

शेर-
आज की बात फिर नहीं होगी 
ये मुलाकात फिर नहीं होगी 
ऐसे बादल तो फिर भी आएंगे 
ऐसी बरसात फिर नहीं होगी 
रात उनको भी ये हुआ महसूस 
जैसे ये रात फिर नहीं होगी 
एक नजर मुड़के देखने वाले 
क्या ये खैरात फिर नहीं होगी 

शेर-
ये जो दीवाने से दो चार नजर आते हैं 
इनमे कुछ साहिब-ए-असरार नजर आते हैं 
तेरी महफ़िल का भरम रखते हैं सो जाते हैं 
वरना ये लोग तो बेदार नजर आते हैं 
मेरे दामन में तो काँटों के सिवा कुछ भी नहीं 
आप फूलों के खरीददार नजर आते हैं 
हश्र में कौन गवाई मेरी देगा सागिर 
सब तुम्हारे ही तरफ़दार नजर आते हैं 

शेर-
चांदनी रात याद आती हैं 
वो मुलाकात याद आती हैं 
देख कर उन घनेरी ज़ुल्फ़ों को 
मस्त बरसात याद आती है 
 
शेर-
तन्हाई में फ़रियाद तो कर सकता हूँ
वीराने को आबाद तो कर सकता हूँ 
जब चाहूँ तुम्हें मिल नहीं सकता लेकिन 
जब चाहूँ तुम्हें याद तो कर सकता हूँ 

शेर- 
अच्छी सूरत को सवरने की ज़रुरत क्या है 
सादगी में भी क़यामत की अदा होती है 
तुम जो आ जाते हो मस्जिद में अदा करने नमाज़ 
तुमको मालूम है कितनों की क़ज़ा होती है 

शेर-
मैंने मासूम बहारों में तुम्हें देखा है 
मैंने पुर-नूर सितारों में तुम्हें देखा है 
मेरे मेहबूब तेरी पर्दा-नशीनीं की कसम 
मैनें अश्क़ों की क़तारों में तुम्हें देखा है 

आँख उठी मोहब्बत ने अंगड़ाई ली

शेर- 
जरा बच के चलना 
संभलना संभलना 

आँख उठी मोहब्बत ने अंगड़ाई ली

शेर- 
तिरछी नजरों से न देखो 
आशिक़-ए-दिलजीर को 
कैसे तीरंदाज हो सीधा तो कर लो तीर को 

आँख उठी मोहब्बत ने अंगड़ाई ली

शेर- 
जिधर उठाई नजर कत्ल-ए-आम तुमने किया 
कजा का नाम हुआ काम तुमने किया 


आँख उठी मोहब्बत ने अंगड़ाई ली
दिल का सौदा हुआ चाँदनी रात में
उनकी नज़रों ने कुछ ऐसा जादू किया
लुट गए हम तो पहली मुलाकात में

उनकी नज़रों ने हमपे ऐसा जादू किया,उनकी नज़रों ने...

 शेर-
खुद तड़प कर उन के जानिब दिल गया

उनकी नज़रों ने हमपे ऐसा जादू किया,उनकी नज़रों ने...

शेर-
शराब सीक पर डाली कबाब शीशे में

उनकी नज़रों ने हमपे ऐसा जादू किया,उनकी नज़रों ने...

शेर-
हम होश भी अपने भूल गए
ईमान भी अपना भूल गए
इक दिल ही नहीं उस बज़्म में
हम न जाने क्या क्या भूल गए
जो बात थी उनको कहने की
वो बात ही कहना भूल गए
गैरों के फ़साने याद रहे
हम अपना फ़साना भूल गए

उनकी नज़रों ने हमपे ऐसा जादू किया,उनकी नज़रों ने...

शेर-
क्या क्या निगाह-ए-यार में तासीर हो गयी
बिजली कभी बनी कभी शमशीर हो गयी
ऐसी मिली है अपनी नज़र उस नज़र के साथ 
सब छोड़ने पड़ें हैं मुझे उम्र भर  के साथ 
महफ़िल में बार बार उन पर नज़र गयी
हमने बचाई लाख मगर फिर उधर गयी
उनकी निगाह में कोई जादू ज़रूर था 
जिस पर पड़ी उसी के जिगर में उतर गयी

उनकी नज़रों ने हमपे ऐसा जादू किया,उनकी नज़रों ने..

बनके तस्वीर-ऐ-ग़म रह गए हैं 
खोये खोये से हम रह गए हैं 

बाँट ली सबने आपस में खुशियां 
मेरे हिस्से में ग़म रह गए हैं 

अब न उठना सरहाने से मेरे 
अब तो गिनती के दम रह गए हैं 

काफिला चल के मंजिल को पौंछा 
ठहरो ठहरो में हम रह गए हैं 
  
ऐ सबा इक ज़ेहमत ज़रा फिर 
उनकी ज़ुल्फ़ों में खम रह गए हैं 

देख कर उनके मंगतों की गैरत 
तंग अहल-ऐ-हरम रह गए हैं 

उनकी सद्दारियां कुछ न पूछो 
आशियों के भ्रम रह गए हैं  

कायनात-ए-जफ़ा-ओ-वफ़ा में 
एक तुम एक हम रह गए हैं 

  आज साकी पिला शैख़ को भी 
एक ये मोहतरम रह गए हैं 

अल्लाह अल्लाह ये किसकी गली है 
उठते उठते कदम रह गए हैं 

उनकी नज़रों ने हमपे ऐसा जादू किया,
लूट गए हम तो पहली मुलाकात में, 

साथ अपना वफा में न  छूटे कभी
प्यार की डोर बंधकर न टूटे कभी
छुट जाए ज़माना कोई गम नहीं
हाथ तेरा रहे बस मेरे हाथ में

रुत है बरसात की देखो जिद मत करो
रात अँधेरी है बादल हैं छाहें हुएँ 
रुक भी जाओ सनम तुमको मेरी कसम 
अब कहाँ जाओगे ऐसी बरसात में 

है तेरी याद इस दिल से लिपटी हुई 
हर घड़ी है तसव्वुर तेरे हुस्न का 
तेरी उल्फत का पहरा लगा है सनम 
कौन आएगा मेरे ख्यालात में 

जिस तरह चाहें वो आज़मा ले हमे 
मुंतज़र हैं बस उनके इशारे के हम 
 मुस्कुरा के फ़ना वो तलब तो करें 
जान भी अपनी दे देंगे सौगात में 

आँख उठी मोहब्बत ने अंगडाई ली
दिल का सौदा हुआ चाँदनी रात में

..... 

कहना गलत गलत तो छुपाना सही-सही


कहना गलत गलत तो छुपाना सही-सही -नुसरत 

शेर-
तन्हाई में फ़रियाद तो कर सकता हूँ 
वीराने को आबाद तो कर सकता हूँ 
जब चाहूँ तुम्हें मिल नहीं सकता  लेकिन 
जब चाहूँ तुम्हें याद तो कर सकता हूँ 

शेर-
कोई हांसे तो तुझे गम लगे हंसी न लगे 
के दिल्लगी भी तेरे दिल को दिल्लगी न लगे 
तू रोज़ रोया करे उठके चाँद रातों में 
खुदा करे तेरा मेरे बगैर जी न लगे 

शेर-
अच्छी सूरत को सवरने की ज़रुरत क्या है 
सादगी में भी क़यामत की अदा होती है 
तुम जो आ जाते हो मस्जिद में अदा करने नमाज़ 
तुमको मालूम है कितनों की कज़ा होती है 

शेर-
ये जो दीवाने से दो चार नज़र आते हैं 
इनमें कुछ साहिब-ए-असरार नज़र आते हैं 
तेरी महफ़िल का बरहम रकते हैं सो जाते हैं
वरना ये लोग तो बेदार नज़र आते हैं 
मेरे दामन में काटों के सिवा कुछ भी नहीं 
आप फूलों के खरीददार नज़र आते हैं 
हश्र में कौन मेरी गवाही देगा सागर 
सब तुम्हारे ही तरफ़दार नज़र आते हैं 

शेर-
क़ासिद पायाम-ए-खत को देना बहुत ना-तूल 
बस मुख़्तसर ये कहना की आँखें तरस गयी 


कहना गलत गलत तो छुपाना सही-सही 
क़ासिद खा जो उसने बताना सही-सही 

ये सुबहो सुबहो चेहरे की रंगत उड़ी हुई 
कल रात तुम कहाँ थे बताना सही-सही

मैंने पूछा के कल शब कहाँ थे
पहले शर्माए फिर हंस के बोले 
बात क्यों ऐसी तुम पूछते हो 
जो बताने के काबिल नहीं है 

कल रात तुम कहाँ थे बताना सही-सही

शेर-
ये उड़ी-उड़ी सी रंगत 
ये खुले-खुले से केसु 
तेरी सुबह कह रही है 
तेरी शाम का फ़साना 

कल रात तुम कहाँ थे बताना सही-सही

शेर-
न हम समझे  न तुम आए कहीं  से  
पसीना पोंछिए अपनी ज़बीं से 

कल रात तुम कहाँ थे बताना सही-सही


दिल लेके मेरा हाथ में कहते हैं मुझसे वो
क्या लोगे इसके दाम बताना सही-सही 

आँखें मिलाओ गैर से दो हमको जाम-ए-मय 
साक़ी तुम्हें कसम है पिलाना सही-सही 

शेर-
नशे  में गिराना तो सब को आता है 
मज़ा तो तब है के गिरते हुओं को थाम ले साक़ी 

साक़ी तुम्हें कसम है पिलाना सही-सही 

शेर-
नशा ईमान होता है 
सुराही दीन होती है 
जवानी की इबादत किस कदर रंगीन होती है 
शराब-ए-नाब को दो आतिशें बना के पिला 
शराब कम है तो साक़ी नज़र मिला के पिला 
शराब का कोई अपना सरीह रंग नहीं 
शराब तजसिया-ए-एहतेसाब करती है 
जो अहल-ए-दिल हैं बढ़ाती है आबरू उनकी 
जो बे-शऊर हैं उनको खराब करती है 

साक़ी तुम्हें कसम है पिलाना सही-सही 

ऐ मयफरोश भीड़ है तेरी दूकान पर 
गाहक है हम बिमाल दिखाना सही-सही 

साजिद तो जान-ओ-दिल से फकत आपका है बस
क्या आप भी हैं उसके बताना सही-सही 

कहना गलत गलत तो छुपाना सही-सही 
क़ासिद खा जो उसने बताना सही-सही 

..... 

मेरे रश्क़-ए-क़मर

मेरे रश्क़-ए-क़मर - नुसरत 
मेरे रश्क़-ए-क़मर तू ने पहली नज़र 
जब नज़र से मिलाई मज़ा आ गया
बर्क सी गिर गई काम ही कर गई
आग ऐसी लगाई मज़ा आ गया 

 जाम में घोल कर हुस्न की मस्तियाँ 
चांदनी मुस्कुराई मज़ा आ गया 
चाँद के साये में ऐ मेरे साक़िया 
तू ने ऐसी पिलाई मज़ा आ गया 

नशा शीशे में अंगड़ाई लेने लगा 
बज़्म-ए-रिंदान में सागर खनकने लगा 
मयकदे पे बरसने लगी मस्तियाँ 
जब घटा गिर के छाही  मज़ा आ गया 

बे-हिजाबाना वो सामने आ गए 
और जवानी जवानी से टकरा गई 
आँख उन की लड़ी यूँ मेरी आँख से 
देख कर ये लड़ाई मजा आगया 

आँख में थी हाय हर मुलाक़ात पर 
सुर्ख आरिज़ हुए वस्ल की बात पर 
उस ने शर्मा के मेरे सवालात पे 
ऐसे गर्दन झुकाई  मज़ा आ गया 

शेख साहिब का ईमान बिक ही गया 
देख कर हुस्न-ए-साक़ी पिघल ही गया 
आज से पहले वो कितने मगरूर थे 
लूट गई पारसाई मज़ा आ गया 

ऐ फ़ना शुक्र है आज बाद-ए-फ़ना 
उसने रखली मेरे प्यार की आबरू 
अपनें हाथों से उसने मेरी क़ब्र पर 
चादर-ए-गुल चढ़ाई मजा आ गया 

मेरे रश्क़-ए-क़मर तू ने पहली नज़र 
जब नज़र से मिलाई मज़ा आ गया

..... 

आग दामन में लग जाएगी

आग दामन में लग जाएगी - नुसरत 
आग दामन में लग जाएगी
दिल में शोला मचल जायेगा 
मेरा सागर न छूना कभी 
साकिया हाथ जल जायेगा 

मेरे अश्क़ भी है इसमें  
ये शराब उबल न जाये 
मेरा जाम छूने वाले 
तेरा हाथ जल न जाये 

मेरा सागर न छूना कभी 
साकिया हाथ जल जायेगा 

एक दिन वो ज़रूर आएंगे 
दर्द का साया टल जायेगा 
इस जमाने की परवाह नहीं 
ये ज़माना बदल जायेगा 

आ गया मेरी आँखों में दम 
अब तो जलवा दिखा दीजिये 
आप की बात रह जाएगी 
मेरा अरमान निकल जायेगा 

बेसबब हमसे रूठो न तुम 
ये लड़ाई बुरी चीज़ है 

बेसबब हमसे रूठो, रूठो न तुम, बेसबब हमसे रूठो.... 

शेर-
ये अदा है या दिल का जलाना 
हम मनाते हैं तुम रूठते हो 
हम जो रूठे तो पछताओगे तुम 
रोज़ तुमको मनाने पड़ेगा 

बेसबब हमसे रूठो, रूठो न तुम, बेसबब हमसे रूठो.... 

शेर-
मिलना है जो गैरों से 
तो साफ़ ही कह दो 
यूँ रूठ के जाने का 
बहाना नहीं अच्छा 

बेसबब हमसे रूठो, रूठो न तुम, बेसबब हमसे रूठो.... 

बेसबब हमसे रूठो न तुम 
ये लड़ाई बुरी चीज़ है 
सुलह कर लो खुदा के लिए 
ये बुरा वक्त टल जायेगा 

मयकशों उस नज़र की सुनों 
कह रही है वो शोला बदन 
मैं नहीं जाम में आग है 
जो पीयेगा वो जल जाएगा 

कोई आंसू नहीं आँख में 
बात घर की अभी घर में है 
तुम जो यूँहीं सताते रहे 
दर्द अश्क़ों में गए ढल जायेगा 

दूर हैं जब तलक तुमसे हम 
कैसे होगा मदावा-ए-गम 
इक दफा तुम मिलो तो सनम 
ग़म ख़ुशी में बदल जायेगा

गर यूँहीं घर में बैठा रहा 
मार डालेंगी तन्हाईयाँ 
चल ज़रा मयकदे में चलें 
ऐ फ़ना दिल बहल जायेगा 

आग दामन में लग जाएगी 
दिल में शोला मचल जायेगा 

..... 

आप बैठें है बाली पे मेरी

आप बैठें है बाली पे मेरी - नुसरत 

शेर-
देखकर आपकी जवानी को 
आरजू -ए-शराब होती है 
रोज़ तौबा को तोड़ता हूँ मगर 
रोज़ नीयत खराब होती है 
आपके वास्ते गुनाह ही सही 
हम पीएं तो सवाब बनती है 
सौ ग़मों को निचोड़ने के बाद  
एक कतरा शराब बनती है 

शेर-
तुलू-ए-सुबह तेरे रुख की बात होने लगी 
तुम्हारी ज़ुल्फ़ जो बिखरी रात होने लगी 
तुम्हारी मस्त नज़र का खुमार क्या कहना 
नशे में गर्क सभी कायेनात होने लगी 

शेर-
जा तल्ख़ शैख़ की ज़िंदगानी गुज़री 
इक शब  न  बेचारे की सुहानी गुज़री 
दोजख के तसव्वुर में बुढ़ापा गुजरा 
जन्नत के तसव्वुर में जवानी गुजरी 

शेर-
मयपरस्ती मेरी इबादत है 
मैं कभी बेवुज़ून नहीं पीता 
मैं शराबी सही मगर जाहिद 
आदमी का लहू नहीं पीता 

शेर-
सर जिस पे न झुक जाये उसे दर नहीं कहते 
हर दर पे जो झुक जाये उसे सर नहीं कहते
क्या तुझको जहां वाले सितमगर नहीं कहते 
कहते तो हैं लेकिन तेरे मूँह पर नहीं कहते
काबे में हर इक सजदे को कहते हैं इबादत 
मयखाने में हर जाम को सागर नहीं कहते 
काबे में हर मुसलमान को भी  कह देते हैं काफिर   
मयखाने में काफिर को भी काफिर नहीं कहते 

शेर-
साकी ने मस्त-ए-नरगिस से मस्ताना कर दिया 
ऐसी पिलाई आज के दीवाना कर दिया 
अर्ज़-ओ-समा को सागिर-ए-पैमाना कर दिया 
रिंदों ने कायनात को मयखाना कर दिया 
बदमस्त बरगोबार ने पीना सीखा दिया 
बहकी हुई बहार ने पीना सीखा दिया 
पीता हूँ इसलिए मुझे जीना है चार दिन 
मरने के इंतजार ने पीना सीखा दिया 


आप बैठें हैं बाली पे मेरी 
मौत का ज़ोर चलता नहीं हैं 
मौत मुझको गवारा है लेकिन 
क्या करूं दम निकलता नहीं है 

ये अदा ये नज़ाकत बरासिल 
मेरा दिल तुम पे कुर्बान लेकिन 
क्या संभालोगे तुम मेरे दिल को  
जब यें आँचल संभलता नहीं है 

मेरे नालों की सुनकर ज़ुबाने 
हो गई मोम कितनी चट्टानें 
मैंने  पिगला दिया पत्थरों को 
इक तेरा दिल पिघलता नहीं है 

शेख जी की नसीयत भी अच्छी 
बात वाइज़ की भी खूब लेकिन 
जब भी छातीं हैं काली घटाएं 
बिन पीये काम चलता नहीं हैं 

देखले मेरी  मैयत का मंज़र 
लोग कांधा  बदलते चले हैं 
इक तेरी भी डोली चली है 
कोई कांधा  बदलता नहीं है 

मयकदे के सभी पीनेवाले 
लड़खड़ाकर सँभलते है लेकिन 
तेरी नज़रों का जो जाम पी ले 
उम्र भर वो संभलता नहीं है 

आप बैठें हैं बाली पे मेरी 
मौत का ज़ोर चलता नहीं हैं 

..... 

ये जो हल्का हल्का सुरूर (Short)

ये जो हल्का हल्का सुरूर है - नुसरत 

शेर-
साक़ी की हर निगाह पे बल खा के पी गया
लहरों से खेलता हुआ लहरा के पी गया
ऐ रहमत-ए-तमाम  मेरी हर ख़ता मुआफ़
मैं इन्तहा-ए-शौक़ में घबरा के पी गया
पीता बग़ैर इज़्न ये कब थी मेरी मजाल
दर पर्दाह चश्म-ए-यार की शह पा के पी गया
जाहीद ये मेरी शोखी-ए-ज़िंदा न देखना 
रहमत को बातों बातों में बहलाके पी गया 

शेर-
ऊधी-ऊधी घटाएं आती हैं  
मुतरिबों की नवायें आती हैं 
किसके  केसु  खुले है सावन में 
महकी महकी हवाएं आती हैं 
आओ सहन-ए-चमन में रक्स करें 
साज़ लेकर घटायें आती है 
देखकर उनकी  अकनियों को अदम
मयकदों को ह्याएँ आती हैं  

शेर-
पास रहता है दूर रहता है
कोई दिल में ज़रूर रहता है
जब से देखा है उन की आंखों को
हल्का हल्का सुरूर रहता है
ऐसे रहते हैं वो मेरे दिल में
जैसे ज़ुल्मत में नूर रहता है
अब अदम का ये हाल है हर वक्त
मस्त रहता है चूर रहता है


ये जो हल्का हल्का सुरूर है
ये तेरी नज़र का कसूर है
के शराब पीना सिखा दिया

तेरे प्यार ने तेरी चाह ने
तेरी बहकी बहकी निगाह ने
मुझे इक शराबी बना दिया

शराब कैसी खुमार कैसा
ये सब तुम्हारी नवाज़िशें  हैं
पिलाई है किस नज़र से तू ने
के मुझको अपनी ख़बर नही है

तेरे प्यार ने तेरी चाह ने
तेरी बहकी बहकी निगाह ने
मुझे इक शराबी बना दिया

सारा जहान मस्त जहान का निज़ाम मस्त
दिन मस्त रात मस्त सहर मस्त शाम मस्त
दिल मस्त शीशा मस्त सुबू मस्त जाम मस्त
है तेरी चश्म-ए-मस्त से हर ख़ास-ओ-आम मस्त
यूँ तो साकी हर तरह की तेरे मयखाने में है
वो भी थोडी सी जो इन आँखों के पैमाने में है
सब समझता हूँ तेरी इशवागरी ऐ साकी
काम करती है नज़र नाम है पैमाने का

तेरे प्यार ने तेरी चाह ने
तेरी बहकी बहकी निगाह ने
मुझे इक शराबी बना दिया

मेरा प्यार है तेरी ज़िन्दगी
बस मेरी ज़िन्दगी तेरा प्यार है 

शेर-
ना नमाज़ आती है मुझको न वजू आता है
सजदा कर लेता हूँ जब सामने तू आता है

बस मेरी ज़िन्दगी तेरा प्यार है 

मैं अज़ल से बन्दा-ए-इश्क हूँ
मुझे ज़ोह्द-ओ-कुफ्र का ग़म नहीं
मेरे सर को दर तेरा मिल गया
मुझे अब तलाश-ए-हरम  नहीं
मेरी बंदगी है वो बंदगी
जो बा-कैद-ए-दैर-ओ-हरम नहीं
मेरा इक नज़र तुम्हें देखना
बा खुदा नमाज़ से कम नहीं

बस मेरी ज़िन्दगी तेरा प्यार है

शेर-
ज़ुल्फ़ रुख से हटाके बात करों 
रात को दिन बना के बात करो 
मयकदे के चराग मद्धम हैं 
ज़रा आँखें उठा के बात करों 
फूल कुछ चाहिए हुजूर हमें 
तुम ज़रा मुस्कुरा के बात करों 
ये भी अंदाज़-ए-गुफ्तुगू है कोई 
जब करो दिल दुखाके बात करो 

बस मेरी ज़िन्दगी तेरा प्यार है
तेरा प्यार है मेरी ज़िन्दगी
तेरी याद है मेरी बंदगी
जो तेरी ख़ुशी वो मेरी ख़ुशी
यह मेरे जुनून का है मोजिज़ा
जहाँ अपने सर को झुका दिया
वहाँ मैंने काबा बना दिया

मेरे बाद किसको सताओगे

मैंने उन के सामने 
अव्वल का ख़ंजर रख दिया
फिर कलेजा रख दिया दिल रख दिया सर रख दिया
और अर्ज़ किया

मेरे बाद किसको सताओगे

दिल जलों से दिल्लगी अच्छी नहीं
रोने वालों से हँसी अच्छी नहीं
दिल्लगी ही दिल्लगी में दिल गया
दिल लगाने का नतीजा मिल गया
तुम क्यों हस्ते हो तुम्हे क्या मिल गया
मैं तो रोता हूँ के मेरा दिल गया

मेरे बाद किसको सताओगे 
मुझे किस तरह से मिटाओगे
कहाँ जा के जीड़ी चलाओगे
मेरी दोस्ती की बलायें लो 
मुझे हाथ उठा कर दुआएं दो 
तुम्हें एक कातिल बना दिया

ये जो हल्का हल्का सुरूर है
ये तेरी नज़र का कसूर है
के शराब पीना सिखा दिया

.... 

ये जो हल्का हल्का सुरूर (Full)

ये जो हल्का हल्का सुरूर है - नुसरत 

शेर-
साक़ी की हर निगाह पे बल खा के पी गया
लहरों से खेलता हुआ लहरा के पी गया
ऐ रहमत-ए-तमाम  मेरी हर ख़ता मुआफ़
मैं इन्तहा-ए-शौक़ में घबरा के पी गया
पीता बग़ैर इज़्न ये कब थी मेरी मजाल
दर पर्दाह चश्म-ए-यार की शह पा के पी गया
जाहीद ये मेरी शोखी-ए-ज़िंदा न देखना 
रहमत को बातों बातों में बहलाके पी गया 

शेर-
ऊधी-ऊधी घटाएं आती हैं  
मुतरिबों की नवायें आती हैं 
किसके  केसु  खुले है सावन में 
महकी महकी हवाएं आती हैं 
आओ सहन-ए-चमन में रक्स करें 
साज़ लेकर घटायें आती है 
देखकर उनकी  अकनियों को अदम
मयकदों को ह्याएँ आती हैं  

शेर-
पास रहता है दूर रहता है
कोई दिल में ज़रूर रहता है
जब से देखा है उन की आंखों को
हल्का हल्का सुरूर रहता है
ऐसे रहते हैं वो मेरे दिल में
जैसे ज़ुल्मत में नूर रहता है
अब अदम का ये हाल है हर वक्त
मस्त रहता है चूर रहता है


ये जो हल्का हल्का सुरूर है
ये तेरी नज़र का कसूर है
के शराब पीना सिखा दिया

तेरे प्यार ने तेरी चाह ने
तेरी बहकी बहकी निगाह ने
मुझे इक शराबी बना दिया

शराब कैसी खुमार कैसा
ये सब तुम्हारी नवाज़िशें  हैं
पिलाई है किस नज़र से तू ने
के मुझको अपनी ख़बर नही है

तेरे प्यार ने तेरी चाह ने
तेरी बहकी बहकी निगाह ने
मुझे इक शराबी बना दिया

सारा जहान मस्त जहान का निज़ाम मस्त
दिन मस्त रात मस्त सहर मस्त शाम मस्त
दिल मस्त शीशा मस्त सुबू मस्त जाम मस्त
है तेरी चश्म-ए-मस्त से हर ख़ास-ओ-आम मस्त
यूँ तो साकी हर तरह की तेरे मयखाने में है
वो भी थोडी सी जो इन आँखों के पैमाने में है
सब समझता हूँ तेरी इशवागरी ऐ साकी
काम करती है नज़र नाम है पैमाने का

तेरे प्यार ने तेरी चाह ने
तेरी बहकी बहकी निगाह ने
मुझे इक शराबी बना दिया

शेर-
मैंने माना जनाब पीता हूँ 
ज़िन्दगी का अज़्ज़ाब पीता हूँ 
बनके खाना खराब पीता हूँ 
रोज़-ए-महशर हिसाब हो न सका 
इसलिए बेहिसाब पीता हूँ 

तेरे प्यार ने तेरी चाह ने
तेरी बहकी बहकी निगाह ने
मुझे इक शराबी बना दिया

शेर-
जाम है माहताब है साकी 
सारा मौसम शराब है साकी 
बाज़ लम्हात ऐसे होते हैं 
जिनमें पीना सवाब  है साकी 

तेरे प्यार ने तेरी चाह ने
तेरी बहकी बहकी निगाह ने
मुझे इक शराबी बना दिया

शेर-
अच्छी पीली खराब पीली 
थी आग मिसाल-ए-हबाब पीली 
आदत है अब तो नशा न कैफ़ 
पानी न पीया शराब पी ली 
नशा ईमान होता है सुराही दीन होती है 
जवानी की इबादत किस कदर रंगीन होती है 
तुम्हारा हुस्न अगर बेनकाब  हो जाये 
हर इक चेहरा खुदा की किताब हो जाये 
जो कायदे से न हो वो फिजूल है सजदा 
अदब के साथ खता भी सवाब हो जाये 
शराबियों को अक़ीदत है इस कदर तुमसे 
जो तुम पीला दो तो पानी शराब हो जाये 
दिल उसका नमाज़ी हो जाये 
आँख उसकी शराबी हो जाये 
जिसको तू मुहोब्बत से देखे 
साकी वो शराबी हो जाये 

तेरे प्यार ने तेरी चाह ने
तेरी बहकी बहकी निगाह ने
मुझे इक शराबी बना दिया

मेरा प्यार है तेरी ज़िन्दगी
बस मेरी ज़िन्दगी तेरा प्यार है 

शेर-
ना नमाज़ आती है मुझको न वजू आता है
सजदा कर लेता हूँ जब सामने तू आता है

बस मेरी ज़िन्दगी तेरा प्यार है 

मैं अज़ल से बन्दा-ए-इश्क हूँ
मुझे ज़ोह्द-ओ-कुफ्र का ग़म नहीं
मेरे सर को दर तेरा मिल गया
मुझे अब तलाश-ए-हरम  नहीं
मेरी बंदगी है वो बंदगी
जो बा-कैद-ए-दैर-ओ-हरम नहीं
मेरा इक नज़र तुम्हें देखना
बा खुदा नमाज़ से कम नहीं

बस मेरी ज़िन्दगी तेरा प्यार है

शेर-
तेरा नाम लूँ ज़ुबान से तेरे आगे सर झुका दूँ
मेरा इश्क कह रहा है मैं तुझे खुदा बना दूँ
तेरा नाम मेरे लब पर मेरा तज़करा है दर दर
मुझे भूल जाए दुनिया मैं अगर तुझे भुला दूँ
मेरे दिल में बस रहे हैं तेरे बेपनाह जलवे
न हो जिस में नूर तेरा वो चराग ही बुझा दूँ
तेरी दिल्लगी के सदके तेरे संग्दली के कुर्बान
मेरे ग़म पे हसने वाले तुम्हे कौन सी दुआ दूँ

बस मेरी ज़िन्दगी तेरा प्यार है

शेर-
ज़ुल्फ़ रुख से हटाके बात करों 
रात को दिन बना के बात करो 
मयकदे के चराग मद्धम हैं 
ज़रा आँखें उठा के बात करों 
फूल कुछ चाहिए हुजूर हमें 
तुम ज़रा मुस्कुरा के बात करों 
ये भी अंदाज़-ए-गुफ्तुगू है कोई 
जब करो दिल दुखाके बात करो 

बस मेरी ज़िन्दगी तेरा प्यार है

शेर-
दिल की तलब है और तमन्ना है जान की 
क्या मेहरबानियां है मेरे मेहरबान की 
नाजुक मिजाज हो न कोई यार की तरह 
खिंचता है बात बात पर तलवार की तरह 
दिल मुफ्त चाहता है मगर सबके सामने 
कीमत लगा रहा है खरीददार की तरह 

बस मेरी ज़िन्दगी तेरा प्यार है

शेर-
क़यामत में तेरा दाग-ए-मोहब्बत लेके उठूंगा
तेरी तस्वीर उस दम भी कलेजे से लगी होगी

क्यूँकि
बस मेरी ज़िन्दगी तेरा प्यार है
तेरा प्यार है मेरी ज़िन्दगी
तेरी याद है मेरी बंदगी
जो तेरी ख़ुशी वो मेरी ख़ुशी
यह मेरे जुनून का है मोजिज़ा
जहाँ अपने सर को झुका दिया
वहाँ मैंने काबा बना दिया

मेरे बाद किसको सताओगे

मैंने उन के सामने 
अव्वल का ख़ंजर रख दिया
फिर कलेजा रख दिया दिल रख दिया सर रख दिया
और अर्ज़ किया

मेरे बाद किसको सताओगे

शेर-
मैंने कहा मिजगान है ये 
उसने कहा  तीर है 
मैनें कहा अबरू है ये 
उसने कहा शमशीर हैं 
मैंने कहा चेहरे पे क्यूँ 
बल खाती हैं ज़ुल्फ़-ऐ-तोंहा 
उसने कहा ये आशिक़ों के 
वास्ते ज़ंजीर है 
मैंने कहा फुरकत में तेरी 
जान पर खेला  हूँ मैं 
उसने कहा ज़िंदा रहा 
ये भी तेरी तक़दीर है 
मैंने तुमको दिल दिया 
तुमने मुझको रुस्वा किया 
मैंने तुमसे क्या किया 
और तुमने मुझसे क्या किया 

मेरे बाद किसको सताओगे

दिल जलों से दिल्लगी अच्छी नहीं
रोने वालों से हँसी अच्छी नहीं
दिल्लगी ही दिल्लगी में दिल गया
दिल लगाने का नतीजा मिल गया
तुम क्यों हस्ते हो तुम्हे क्या मिल गया
मैं तो रोता हूँ के मेरा दिल गया

मेरे बाद किसको सताओगे

शेर-
जितना जी चाहे सताओ वक्त है 
बेकसम पर मुस्कुराओ वक्त है 
देखलेना मैं न तड़पूँगा जहीर 
शौक से खंजर चलाओ वक्त है 

मेरे बाद किसको सताओगे

शेर-
मेरी वफ़ाएं याद  करोगे 
रोवोगे फ़रियाद करोगे 
मुझको तो बर्बाद किया है 
और किसे बर्बाद करोगे 
आकर भी नाशाद किया है 
जाकर भी नाशाद करोगे 
तेरा ज़ुल्म नहीं है शामिल 
गर मेरी बर्बादी में 
तेरी आँखें भीग रहीं हैं 
क्यूँ मेरे अफसाने से 
पर ये तोह बता  दो 

मेरे बाद किसको सताओगे 

शेर-
जो पूछा के किस तरह होती है बारिश
जबीं से पसीने की बूँदें गिरा  दीं
जो पूछा के किस तरह गिरती है बिजली
निगाहें  मिलाईं मिला कर झुका दीं
जो पूछा शब-ओ-रोज़ मिलते हैं कैसे
तो चहरे पे अपने वो जुल्फें  गिरा दीं
जो पूछा के नगमों में जादू है कैसा 
तो मीठे तकल्लुम में बातें सुना दीं
जो अपनी तमन्नाओं का हाल पुछा  
तो जलती हुई चंद शम्में बुझा दीं
मैं कहता रह गया खता-ए-मोहब्बत की अच्छी सज़ा दी
मेरे दिल की दुनिया बना कर मिटा दी
 अच्छा ! मेरे बाद किसको सताओगे

मेरे बाद किसको सताओगे
मुझे किस तरह से मिटाओगे
कहाँ जा के जीड़ी चलाओगे
मेरी दोस्ती की बलायें लो 
मुझे हाथ उठा कर दुआएं दो 
तुम्हें एक कातिल बना दिया

ये जो हल्का हल्का सुरूर है
ये तेरी नज़र का कसूर है
के शराब पीना सिखा दिया

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