नाटककार गुरुशरण सिंह (16 सितम्बर 1929 - 27 सितम्बर 2011)

गुरूशरण सिंह पंजाबी में नुक्कड़ नाटक करने वाले नाटककार थे। अपने 82 वर्ष के जीवन में गुरूशरण भ्राजी ने लगभग 6000 नुक्कड़ नाटकों की प्रस्तुति की, 170 नाटक, विभिन्न विषयों की 13 पुस्तकें, पंजाबी भाषा के दो अति लोकप्रिय सीरियल -'भाई मन्ना सिंह और दास्ताने पंजाब' तथा एक फिल्म मन जीत जग जीत की पटकथा लिखी। उनके अनेकानेक नाटकों का अनुवाद बहुतेरी भाषाओं में हुआ ( जैसे कि ' इन्कलाब जिन्दाबाद, हवाई गोले, गढ्ढा, तमाशा, ये लहू किसका है, बाबा बोलता है, जंगीराम की हवेली...')।
हमारे यहाँ नाटक जैसे सशक्त माध्यम को युगों-युगों तक विशुद्ध मनोरंजन तक सीमित रखा गया, जबकि लोगों से सीधे संवाद कायम करने की ऐसी ताकत किसी अन्य कला-विधा में नहीं है। अब से 57 साल पहले गुरुशरण भ्राजी ने सामाजिक बदलाव में नाट्य विधा की भूमिका को पहचाना और अंतिम साँस तक उसे व्यवहार में उतारते रहे। यह उस जमाने की बात है जब वे भाखड़ा नांगल परियोजना में बतौर इन्जीनियर काम करते थे। उन्होंने ‘लोहड़ी दी हड़ताल’ नाटक का प्रदर्शन किया जो वहाँ के मजदूरों को जागृत और आन्दोलित करने में काफी कारगर साबित हुआ। यह घटना 1954 की है। इसी के बाद उन्हें जनता से जुड़ने में नाटक के महत्त्व का गहरा अहसास हुआ।
गुरुशरण भ्राजी जिस दौर और जिस माहौल में पले-बढ़े, उसका उनके व्यक्तित्व पर स्पष्ट प्रभाव हुआ। भगत सिंह की शहादत के समय वे दो साल के थे। उनका बचपन और किशोरावस्था स्वाधीनता संघर्ष के
उत्कर्ष काल का प्रत्यक्षदर्शी रहा। नाटकों के जरिये वे जनता की पीड़ा-व्यथा, आशा-आकांक्षा, आक्रोश और प्रतिरोध को आवाज देते रहे। आपातकाल के दौरान उन्होंने ‘तख्त लाहौर’ नाटक किया, जिसके कारण उन्हें गिरफ्तार करके 48 दिनों तक जेल में रखा गया। लेकिन इस घटना के बाद वे और मजबूती से अपने अभियान में जुट गये। उनका कहना था कि ‘‘जनता की आवाज दबेगी नहीं।’’
पंजाब की मेहनतकश जनता के वे इतने करीब इतने अपने थे कि लोग उन्हें भाई मन्ना सिंह (उनके सीरियल के किरदार का नाम) कहा करते। पाँच साल पहले पंजाब के लोगों ने बरनाला के निकट कुस्सा गाँव में उनके कामों को सलाम करते हुए एक विराट जन-सभा का आयोजन किया। अपने प्रिय ‘भाई मन्ना सिंह’ के सम्मान में उमड़े 20,000 लोगों के समूह ने जब ‘युग-युग जिये गुरुशरण सिंह’ का नारा बुलन्द किया तो आकाश गूँज उठा। वे लोग पंजाब के दूर-दराज इलाकों से उस आवाज को सुनने और उस किरदार को देखने आये थे जिसने अपने अभिनय से न जाने कितनी बार उनकी आँखों को छलकाया था। उनके मन में हलचल पैदा की थी और भावनाओं के उतार-चढ़ाव के बीच बड़ी सहजता और आत्मीयता के साथ जिन्दगी के असली मायने और मकसद बताया था।
पंजाब में नाट्य विधा को लोकप्रिय बनाने और ऊँचा उठाने के लिए 80 के दशक में उन्होंने चंडीगढ़
स्कूल ऑफ ड्रामा की स्थापना की। हर साल वहाँ उनके नाम पर नाट्य उत्सव होता है। साथ ही उन्होंने चंडीगढ में ही प्राचीन कला केन्द्र नाम से एक मंडली का भी गठन और संचालन किया। ग्रामीण कलाकारों को प्रशिक्षित करने के लिए पंजाब के गाँवों में उन्होंने कुल 35 नाट्य केन्द्रों की स्थापना की। इतना ही नहीं, उन्होंने एक नयी नाट्य विधा के रूप में पिण्डू नाटक (ग्रामीण नाटक) को भी काफी लोकप्रिय बनाया, जिसका उद्देश्य आधुनिक विचारों और संवेदनाओं के साथ ग्रामीण यथार्थ की प्रस्तुति करना है। उनके कथानक और संवाद में हँसी-मजाक और तीखे व्यंग्य इतने सहज रूप में घुले-मिले होते हैं कि दर्शक को अपनी ही जिन्दगी का हिस्सा लगते हैं। लेकिन साथ ही उनमें गहरे अर्थ छिपे होते हैं, जिनको दर्शक आसानी से पकड़ सकते हैं।
मुल्लनपुर में भी उनके नाम से एक रंगशाला का निर्माण किया गया। अनीता शब्दीश ने उनके जीवन और कार्यों पर आधारित एक डोक्यूमेन्ट्री फिल्म भी बनायी।
27 सितम्बर 2011 को गुरुशरण भ्राजी ने आंखरी सांस ली। जनता का यह सच्चा कलाकार हमें रास्ता दिखाता, खुद उस पर चलता हुआ,हमेशा नए कलाकारों के लिए एक मिसाल बना रहेगा।

गुरूशरण सिंह पंजाबी में नुक्कड़ नाटक करने वाले नाटककार थे। अपने 82 वर्ष के जीवन में गुरूशरण भ्राजी ने लगभग 6000 नुक्कड़ नाटकों की प्रस्तुति की, 170 नाटक, विभिन्न विषयों की 13 पुस्तकें, पंजाबी भाषा के दो अति लोकप्रिय सीरियल -'भाई मन्ना सिंह और दास्ताने पंजाब' तथा एक फिल्म मन जीत जग जीत की पटकथा लिखी। उनके अनेकानेक नाटकों का अनुवाद बहुतेरी भाषाओं में हुआ ( जैसे कि ' इन्कलाब जिन्दाबाद, हवाई गोले, गढ्ढा, तमाशा, ये लहू किसका है, बाबा बोलता है, जंगीराम की हवेली...')।
हमारे यहाँ नाटक जैसे सशक्त माध्यम को युगों-युगों तक विशुद्ध मनोरंजन तक सीमित रखा गया, जबकि लोगों से सीधे संवाद कायम करने की ऐसी ताकत किसी अन्य कला-विधा में नहीं है। अब से 57 साल पहले गुरुशरण भ्राजी ने सामाजिक बदलाव में नाट्य विधा की भूमिका को पहचाना और अंतिम साँस तक उसे व्यवहार में उतारते रहे। यह उस जमाने की बात है जब वे भाखड़ा नांगल परियोजना में बतौर इन्जीनियर काम करते थे। उन्होंने ‘लोहड़ी दी हड़ताल’ नाटक का प्रदर्शन किया जो वहाँ के मजदूरों को जागृत और आन्दोलित करने में काफी कारगर साबित हुआ। यह घटना 1954 की है। इसी के बाद उन्हें जनता से जुड़ने में नाटक के महत्त्व का गहरा अहसास हुआ।
गुरुशरण भ्राजी जिस दौर और जिस माहौल में पले-बढ़े, उसका उनके व्यक्तित्व पर स्पष्ट प्रभाव हुआ। भगत सिंह की शहादत के समय वे दो साल के थे। उनका बचपन और किशोरावस्था स्वाधीनता संघर्ष के
उत्कर्ष काल का प्रत्यक्षदर्शी रहा। नाटकों के जरिये वे जनता की पीड़ा-व्यथा, आशा-आकांक्षा, आक्रोश और प्रतिरोध को आवाज देते रहे। आपातकाल के दौरान उन्होंने ‘तख्त लाहौर’ नाटक किया, जिसके कारण उन्हें गिरफ्तार करके 48 दिनों तक जेल में रखा गया। लेकिन इस घटना के बाद वे और मजबूती से अपने अभियान में जुट गये। उनका कहना था कि ‘‘जनता की आवाज दबेगी नहीं।’’
पंजाब की मेहनतकश जनता के वे इतने करीब इतने अपने थे कि लोग उन्हें भाई मन्ना सिंह (उनके सीरियल के किरदार का नाम) कहा करते। पाँच साल पहले पंजाब के लोगों ने बरनाला के निकट कुस्सा गाँव में उनके कामों को सलाम करते हुए एक विराट जन-सभा का आयोजन किया। अपने प्रिय ‘भाई मन्ना सिंह’ के सम्मान में उमड़े 20,000 लोगों के समूह ने जब ‘युग-युग जिये गुरुशरण सिंह’ का नारा बुलन्द किया तो आकाश गूँज उठा। वे लोग पंजाब के दूर-दराज इलाकों से उस आवाज को सुनने और उस किरदार को देखने आये थे जिसने अपने अभिनय से न जाने कितनी बार उनकी आँखों को छलकाया था। उनके मन में हलचल पैदा की थी और भावनाओं के उतार-चढ़ाव के बीच बड़ी सहजता और आत्मीयता के साथ जिन्दगी के असली मायने और मकसद बताया था।
पंजाब में नाट्य विधा को लोकप्रिय बनाने और ऊँचा उठाने के लिए 80 के दशक में उन्होंने चंडीगढ़
स्कूल ऑफ ड्रामा की स्थापना की। हर साल वहाँ उनके नाम पर नाट्य उत्सव होता है। साथ ही उन्होंने चंडीगढ में ही प्राचीन कला केन्द्र नाम से एक मंडली का भी गठन और संचालन किया। ग्रामीण कलाकारों को प्रशिक्षित करने के लिए पंजाब के गाँवों में उन्होंने कुल 35 नाट्य केन्द्रों की स्थापना की। इतना ही नहीं, उन्होंने एक नयी नाट्य विधा के रूप में पिण्डू नाटक (ग्रामीण नाटक) को भी काफी लोकप्रिय बनाया, जिसका उद्देश्य आधुनिक विचारों और संवेदनाओं के साथ ग्रामीण यथार्थ की प्रस्तुति करना है। उनके कथानक और संवाद में हँसी-मजाक और तीखे व्यंग्य इतने सहज रूप में घुले-मिले होते हैं कि दर्शक को अपनी ही जिन्दगी का हिस्सा लगते हैं। लेकिन साथ ही उनमें गहरे अर्थ छिपे होते हैं, जिनको दर्शक आसानी से पकड़ सकते हैं।
मुल्लनपुर में भी उनके नाम से एक रंगशाला का निर्माण किया गया। अनीता शब्दीश ने उनके जीवन और कार्यों पर आधारित एक डोक्यूमेन्ट्री फिल्म भी बनायी।
27 सितम्बर 2011 को गुरुशरण भ्राजी ने आंखरी सांस ली। जनता का यह सच्चा कलाकार हमें रास्ता दिखाता, खुद उस पर चलता हुआ,हमेशा नए कलाकारों के लिए एक मिसाल बना रहेगा।