अदम गोंडवी (22 अक्टूबर 1947 - 18 दिसंबर 2011)
"घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है
बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है"
कवि सम्मेलनों और मुशायरों में अपनी ग़ज़लों के ज़रिये दर्शकों का दिल जीत लेने वाले लेखक अदम गोंडवी का जन्म 22 अक्टूबर 1947 को गोंडा जिले के अट्टा गाँव, उत्तर प्रदेश में हुआ। शायद ही कोई कवि ऐसा होगा जिसने उनकी ग़ज़ल सुनकर यह पता लगा लिया हो की अदम बहुत कम पढ़ेंवे थे। अदम अपनी ग़ज़ल रोज़-मर्रे में इस्तमाल आने वाली भाषा में ही लिखा करते और ये ही वजह थी की सामान्य से सामान्य आदमी भी उन्हें सुनकर उनसे दिली जुड़ाव महसूस करता था।
गाँव में पले-बड़े होने के कारण अदम ने गाँव और गाँव में रहने वाले लोगों की ज़िन्दगी को बहुत करीब से देखा था। भारत की अर्थव्यवस्था का बहुत बड़ा हिस्सा गाँव की खेती से पूर्ण होता है। आज़ादी के इतने साल बाद भी गांव में साफ़ पानी, स्कूल, हॉस्पिटल आदि के न होने पर अदम ने लिखा।
"तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है
भारतीय समाज में आज़ादी के बाद भी जाति भेदभाव के बने रहने और नीची जातियों के लोगों की ज़िंदगी का हाशिये पर पड़े रहने पर अदम लिखते हैं -
"वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं
वे अभागे आस्था विश्वास लेकर क्या करें
लोकरंजन हो जहां शम्बूक-वध की आड़ में
उस व्यवस्था का घृणित इतिहास लेकर क्या करें"
अपने वक्त के बिकाऊ नेता और उनकी जुमलेबाजी पे तंज कसते हुए अदम लिखते हैं -
"काजू भुने पलेट में, विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में"
हिन्दुस्तान की आज़ादी के लिए सभी कौमों के लोगों ने चाहे वो हिन्दू कौम के लोग हों या मुसलमान कौम के, मिलकर जंग लड़ी थी। नेताओं का अपनी कुर्सी के लिए हिन्दू-मुसलमान की एकता को तोड़ने और साम्प्रदायिकता की आग को फैलाने पर अदम ललकारते हुए कहते हैं -
"हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िय
अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िये"
18 दिसंबर 2011 को अदम ने आंखरी सांस ली। अदम जैसे लिखने वालों को जनता अपने सबसे ख़ास-ओ-ख़ास लेखकों में हमेशा याद रखेगी।
"भूख के एहसास को शेरो-सुख़न तक ले चलो
या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो"
"घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है

कवि सम्मेलनों और मुशायरों में अपनी ग़ज़लों के ज़रिये दर्शकों का दिल जीत लेने वाले लेखक अदम गोंडवी का जन्म 22 अक्टूबर 1947 को गोंडा जिले के अट्टा गाँव, उत्तर प्रदेश में हुआ। शायद ही कोई कवि ऐसा होगा जिसने उनकी ग़ज़ल सुनकर यह पता लगा लिया हो की अदम बहुत कम पढ़ेंवे थे। अदम अपनी ग़ज़ल रोज़-मर्रे में इस्तमाल आने वाली भाषा में ही लिखा करते और ये ही वजह थी की सामान्य से सामान्य आदमी भी उन्हें सुनकर उनसे दिली जुड़ाव महसूस करता था।
गाँव में पले-बड़े होने के कारण अदम ने गाँव और गाँव में रहने वाले लोगों की ज़िन्दगी को बहुत करीब से देखा था। भारत की अर्थव्यवस्था का बहुत बड़ा हिस्सा गाँव की खेती से पूर्ण होता है। आज़ादी के इतने साल बाद भी गांव में साफ़ पानी, स्कूल, हॉस्पिटल आदि के न होने पर अदम ने लिखा।
"तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है"
भारतीय समाज में आज़ादी के बाद भी जाति भेदभाव के बने रहने और नीची जातियों के लोगों की ज़िंदगी का हाशिये पर पड़े रहने पर अदम लिखते हैं -
"वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं
वे अभागे आस्था विश्वास लेकर क्या करें
लोकरंजन हो जहां शम्बूक-वध की आड़ में
उस व्यवस्था का घृणित इतिहास लेकर क्या करें"
अपने वक्त के बिकाऊ नेता और उनकी जुमलेबाजी पे तंज कसते हुए अदम लिखते हैं -
"काजू भुने पलेट में, विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में"
हिन्दुस्तान की आज़ादी के लिए सभी कौमों के लोगों ने चाहे वो हिन्दू कौम के लोग हों या मुसलमान कौम के, मिलकर जंग लड़ी थी। नेताओं का अपनी कुर्सी के लिए हिन्दू-मुसलमान की एकता को तोड़ने और साम्प्रदायिकता की आग को फैलाने पर अदम ललकारते हुए कहते हैं -
अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िये"
18 दिसंबर 2011 को अदम ने आंखरी सांस ली। अदम जैसे लिखने वालों को जनता अपने सबसे ख़ास-ओ-ख़ास लेखकों में हमेशा याद रखेगी।
"भूख के एहसास को शेरो-सुख़न तक ले चलो
या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो"
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