असरार उल हक मजाज

असरार उल हक मजाज (19 अक्टूबर 1911 - 5 दिसंबर 1955)

  "मुसाफ़िर यूँही गीत गाए चला जा

    सर-ए-रहगुज़र कुछ सुनाए चला जा
    तिरी ज़िंदगी सोज़-ओ-साज़-ए-मोहब्बत
    हँसाए चला जा रुलाये चला जा "

मज़ाज़ का जन्म यूपी के रुदौली कस्बे में 1911 में हुआ। उन्हें मज़ाज़ लखनवी नाम से भी जाना जाता है मजाज़ के वालिद सिराज उल हक उस समय अपने इलाके में वकालत की डिग्री लेने वाले पहले आदमी थे। एक सरकारी मुलाज़िम होने के चलते वे चाहते थे कि बेटा इंजीनियर बने और इसलिए उन्होनें असरार को आगरा के सेंट जोंस कॉलेज पढ़ने भेज दिया। वहां असरार को जज़्बी, फानी और मैकश अकबराबादी जैसे लोगों की सोहबत मिली और वे ग़ज़लों में रुचि लेने लगे। 

मजाज़ का कवी वयक्तित्व फूल और आग का मिश्रण है। रोशन दुनिया के अंधेरों को देख मज़ाज़ का दिल ग़मों से भर गया था। नाकाम इश्क़ भी एक कारण था। 

       "शहर की रात और मैं नाशाद-ओ-नाकारा फिरूँ  
         जगमगाती जागती सड़कों पे आवारा फिरूँ "

1931 में बीए करने वह अलीगढ़ चले आए और इसी शहर में उनका राब्ता मंटो, चुगताई, अली सरदार ज़ाफ़री और जां निसार अख़्तर जैसों से हुआ। इससे उनकी शायरी पर भी प्रभाव पड़ा। मज़ाज ने अपने ग़मों को जनता के दुखों के साथ जोड़ दिया। वे प्रगतिशील लेखक आंदोलन के भी हिस्सा रहे। फैज़ भी मज़ाज़ को 'आवाम का मुतरिब' (गानेवाला) मानते थे।

1935 में वो ऑल इंडिया रेडियो में असिस्टेंट एडिटर होकर दिल्ली आ गए। 

इस तरह सिर्फ 44 साल जीने के बाद मज़ाज़ ने 5 दिसम्बर 1955 को आंखरी सांस ली। उनकीं तमाम नज़्मों और ग़ज़लों को पढ़कर यह जाना जा सकता है की मज़ाज़ जितने ग़मगीन मिज़ाज़ के शायर रहे , उससे कहीं ज़्यादा वे ज़िन्दगी को चाहने वाले व उससे प्रेम करने वाले शेयर रहे। 

        "तिरे माथे पे ये आँचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन
          तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था"

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