फैज़ अहमद फैज़

फैज़ अहमद फैज़ (13 फरवरी 1911 - 20 नवंबर 1984)


            "बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
             बोल ज़बाँ अब तक तेरी है"

फैज़ अहमद फैज़ का जन्म  हिन्दुस्तान के  बंटवारे से पहले के पंजाब के नारोवाल जिले में 13 फरवरी 1911 को हुआ। फैज़ एक ऐसे घर से आये थे जहां कवियों और  लेखकों का आना-जाना और महफ़िल सजना आम था। 

1941 में फैज़ की मुलाक़ात एलिस से हुई जो की ब्रिटेन की नागरिक थीं और गवर्नमेंट कॉलेज में पढ़ती थी। उस समय वहां उस कॉलेज में फैज़ पढ़ाया करते थे। एलिस ने बाद में चलकर पकिस्तान की राष्ट्रीयता ली। दोनो ने साथ ज़िन्दगी गुज़र करने की ठानी और उनकी दो बेटियां हुईं सलीमा और मोनीज़ा। फैज और एलिस के त्याग और दर्द को उन पत्रों में महसूस किया जा सकता है जो जेल जीवन के दरम्याँ एक-दूसरे को लिखे गये थे। ये पत्रा ‘सलीबें मेरे दरीचे की’ (प्रकाशन वर्ष 1971) में संकलित हैं। फैज़ ने क्या खूब लिखा-

          " चंद रोज़ और मिरी जान फ़क़त चंद ही रोज़ 
            ज़ुल्म की छाँव में दम लेने पे मजबूर हैं हम "

फैज़ ऐसे शायर थे जिन्होनें अपने लेखन में इश्क़ को और संघर्ष करने को एक साथ पेश किया। वे मानते थे कि कोई भी लेखक अगर अपनी ग़ज़ल या शायरी लिखते वे अपने आसपास के मौहौल को उससे न जोड़े तो वह कभी भी अच्छा नहीं लिख सकता। अपनी शायरी में  वे अपने आसपास के लोगों  की तकलीफों का ज़िक्र करते व एहसास कराते -    

          "आज के नाम 
           और 
           आज के ग़म के नाम 
           आज का ग़म कि है ज़िंदगी के भरे गुलसिताँ से ख़फ़ा"

पंजाब के किसानों के लिए पंजाबी में उन्होंने एक तराना लिखा है। फैज किसानों और मेहनतकश लोगों की ताकत को जानते हैं।  फैज उनको याद दिलाते हैं कि 'तू तो जगत का अन्नदाता है, धरती तेरी बाँदी और तू जगत को पालनेवाला है, इस बात को समझ और उठ। यदि तू बीज नहीं बोये, फसल नहीं उगाये और अपनी आँखें फेर ले तो सब भूखे मर जायेंगे। अपने सारे झगड़े भूल जाओ और एक हो जाओ। । उठ जट्टा और अपनी ताकत को पहचान -

          "उठ उतांह नूँ जट्टा
            मरदा क्यों जानै
            भुलियाँ, तूं जग दा अन्नदाता
            तेरी बाँदी धरती मा ता
            तूं जग  दा पालणहारा
            ते मरदा क्यूँ जानै
            उठ उतांह नूँ जट्टा
            मरदा क्यूँ जानै"

1936  में फैज़ ने हिन्दुस्तान और पकिस्तान के आजादपसन्द लेखकों के साथ प्रगतिशील लेखक आंदोलन में हिस्सा लिया। गौरतलब है कि अपनी कलम की वजह से उन्हें जेल भी जाना पड़ा लेकिन  वे तमाम  मुश्किलों से लड़ते रहे। उन्हें गद्दार और मुल्क का दुश्मन कहा गया। उनके परिवार का सोशल बाॅयकाॅट किया गया। बच्चों को अच्छे स्कूलों से निकाल दिया गया लेकिन फैज अपने निश्चय से पीछे नहीं हटे। बहुत सब्र और हिम्मत के साथ उन्होंने आतंक और जुल्म का सामना किया।

1947 में हिन्दुस्तान गोरों से आज़ाद हुआ और साथ ही साथ पाकिस्तान और भारत इन दो मुल्कों में  बंट गया। आज़ादी के वक्त शासकों दवारा मुल्क के दो टुकड़े करने से यह साफ़ ज़ाहिर था की अब भी चंद लोगों को छोड़कर बहुतायत मेहनत करने वाली जनता आज़ाद नहीं हुई है। इसपर फैज़ ने 1947 के अगस्त में यह नज़्म  लिखी  -      
   
         "ये दाग़ दाग़ उजाला ये शब.गज़ीदा सहर
          वो इंतिज़ार था जिस का ये वो सहर तो नहीं" 

फैज़ को सिर्फ हिन्दुस्तान में या पकिस्तान में ही नहीं पढा जाता है , बल्कि दुनिया के तमाम इंसाफ़पसन्द लोग चाहे वे कोई भी भाषा जानते हों , उनको अपने देश का ही शायर मानते हैं । फिर 20 नवंबर 1984 का वो दिन आया जब उर्दू शायरी का एक बड़ा सितारा इस जहां से परवाज कर गया। 

         "हम देखेंगे
          लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
          वो दिन कि जिसका वादा है
          जो लोह-ए-अज़ल में लिखा है
          हम देखेंगे,
          जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गरां,
          रुई की तरह उड़ जाएँगे"

( लाजिम = निश्चित, लौहे-अजल = पूर्व निर्धारित नियति,
   कोहे-गराँ = भारी पहाड़)



No comments:

Post a Comment