हबीब जालिब


हबीब जालिब  (24 मार्च 1928- 13 मार्च 1993)

       "शेर से शाइरी से डरते हैं 
         कम-नज़र रौशनी से डरते हैं"

शायर-ए-आवाम कहे जाने वाला 'हबीब जालिब' इस कदर बेबाक और सीधे लहजे में ज़ुल्म के खिलाफ शायरी करता कि उसकी नज़्मों से उस दौर के हुक्मरां खौफ खाया करते। मुशायरों में ज़ालिब जब अपना कलाम सुनाता, सुनने वालों को वह शब्द-दर-शब्द रट जाता। जुलूसों में वह बतौर नारा बन जाता। जालिब को अपनी राह काटों से भरी मिली।  उन्हें ज्यादातर ज़िन्दगी जेल में डाला रक्खा गया।  तमाम ज़ुल्म सहने के बाद भी जालिब ने इन्साफ का, आवाम का साथ कभी नहीं छोड़ा।
 
बात 1959 की है ,पाकिस्तान में  लोकतंत्र का खात्मा कर के जनरल अय्यूब ख़ान का मार्शल लॉ चल रहा था, सेंसरशिप जारी थी, तानाशाही अपने उरूज़ पर थी। रेडियो,अखबार सब वही ज़ुबान बोल रहे थे जो सत्ता को रास आये। ऐसे में हबीब आवाम के बीच जा ये नज़्म पढा करते-  

       "दीप जिसका महल्लात ही में जले
         चंद लोगों की ख़ुशियों को लेकर चले
         वो जो साए में हर मसलहत के पले
         ऐसे दस्तूर को सुब्हे-बेनूर को
         मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता"
         
        ( महल्लात - महलों )

कलमकारों को हुकुमत के सामने नतमस्तक होते देखना जालिब को सख्त नापसंद था। मशहूर शायर हफीज़ जलंधरी अय्यूब ख़ान के सलाहकार के तौर पर रखे गए। इसपर जालिब ने तंज कसते वे यह नज़्म बहुत खूब लिखी - 

                "जिनको था ज़बां पे नाज़
                  चुप हैं वो ज़बांदराज़
                  चैन है समाज में
                  बे-मिसाल फ़र्क है
                  कल में और आज में
                  अपने खर्च पर हैं क़ैद
                  लोग तेरे राज में"

अयूब खान के बाद येहया खान के हुकूमत में आने पर हॉल में जहाँ मुशायरा हुआ करता वहां जालिब ने जब अयूब खान की जगह येहया खान की तस्वीर लगी देखि तो उन्होंने भरी महफ़िल में ये नज़्म पढ़ी  -

"तुम से पहले वो जो इक शख़्स यहाँ तख़्त-नशीं था 
  उस को भी अपने ख़ुदा होने पे इतना ही यक़ीं था"

ना सिर्फ अय्यूब ख़ान या याहया ख़ान के राज में हबीब ने अपने अशआर लिखे, जनरल जिया उल हक़ के खिलाफ़ भी उन्होंने अपनी तेज कलम से प्रहार जारी रक्खा। जनरल ज़िआ-उल-हक़ के राज में जालिब लिखते हैं - 

"ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना 
  पत्थर को गुहर दीवार को दर कर्गस को हुमा क्या लिखना"

ये रंज और तंज है जालिब की कलम में। ढाका यूनिवर्सिटी में जब बच्चों पर गोली चली तो ग़ालिब ने नज़्म लिखी-

"बच्चों पे चली गोली 
 माँ देख के ये बोली  
 ये दिल के मिरे टुकड़े  
 यूँ रोए मिरे होते  
 मैं दूर खड़ी देखूँ  
 ये मुझ से नहीं होगा"
  
जालिब ने अपनी शायरी ही नहीं बल्कि तमाम ज़िन्दगी दुनिया के मेहनतकश व आज़ादपसंद लोगों के लिए  कुर्बान कर दी। उनका एक बच्चा मुनासिफ दवा-दारू के अभाव में बीमार होकर मर गया। अगली गिरफ्तारी के वक्त उनकी  दूसरी बच्ची बीमार थी लेकिन फिर भी जालिब ने न्याय का रुख न छोड़ा, वे जेल गए और उन्होनें जेल से लिखा -

            "मेरी बच्ची मैं आऊँ न आऊँ
              आने वाला ज़माना है तेरा"

जालिब ने 13 मार्च 1993 को आंखरी सांस ली। जालिब के अशआर हर दौर में मौजूं रहेंगे। कलम के एक सिपाही की इससे ज़्यादा इज्ज़त-अफज़ाई और किसी चीज़ से नहीं हो सकती। 

"कोई तो परचम ले कर निकले अपने गरेबाँ का जालिब  
 चारों जानिब सन्नाटा है दीवाने याद आते हैं "







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