साहिर लुधियानवी

साहिर लुधियानवी - (8 मार्च 1921-25 अक्टूबर 1980)

               "पोंछ कर अश्क अपनी आँखों से ,
                 मुस्कुराओ तो कोई बात बने
                 सर झुकाने से कुछ नहीं होता 
                 सर उठाओ तो कोई बात बने"

कुछ इस क़दर लिखा करते साहिर। अपनी इंसाफ़पसन्द -तरक्कीपसंद नज़्मों, गीतों, ग़ज़लों से साहिर ने लोगों के दिलों में अपनी ख़ास जगह बनायी। एक इंसान होने के नाते उन्हें यह गवारां न था कि एक तरफ रात-दिन मेहनत करने वाली बहुतायत जनता गरीबी में खटती रहे और दूसरी तरफ इन्हीं के दम पे कुछ चँद लोग ऐयाशी भरी ज़िन्दगी काटें। उन्होनें अपनी कलम जनता के हित में इस्तेमाल करी और वे उनकी आवाज़ बनके उभरे।  

ऐसा कुछ भी जो लोगों के बीच फूट डालने का काम करता और समाज को पीछे की ओर धकेलता, उसका  साहिर नज़्मों, ग़ज़लों से पुरजोर विरोध किया करते। साहिर के लिए वो मंदिर, मंदिर न था जिसमें क़ुरआन न हो और वो हरम, हरम नहीं जिसमें गीता न रखी  हो। उनकी कलम हिन्दू-मुस्लिम के भेदभाव पर हमेशा तीखा प्रहार करती रही-

           "तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा,
             इंसान की औलाद है इंसान बनेगा", 

औरतों के प्रति उनका संजीदा नज़ीरिया निचे ज़िक्र की गई नज़्म से साफ़ पता चलता है।

           "ये कूचे ये नीलाम घर दिलकशी के
             ये लुटते हुए कारवां ज़िन्दगी के
             जिन्हें नाज़ है हिन्द
             पर वो कहाँ है "

(फिल्म 'प्यासा' में एक वैश्यालय से गुज़रते हुए अभिनेता इस नज़्म को गाता है) 

साहिर लुधियाना के गवर्नमेंट कॉलेज से पड़े जहां पर वे अपनी ग़ज़ल व शायरी के चलते चर्चे में रहा करते।वहाँ उनकी दोस्ती अमृता प्रीतम से हुई , जो कि एक मशहूर लेखिका हुईं। अपनी रूहानी शायरी से उन्होंने अमृता के दिल में खास जगह बना ली थी लेकिन इन दोनों की मुहौब्बत मुकम्मिल न हो सकी। अमृता के घरवालों को साहिर के मुसलमान होने से ऐतराज़ था। इसका उनपर गहरा प्रभाव पड़ा और उन्हें पढ़ने पे यह साफ़ मालूम भी पड़ता है। कालान्तर में उसी कॉलेज के ऑडिटोरियम का नाम साहिर के नाम पर ही रखा गया।

साहिल ने जिंदगी का साथ कभी न छोड़ा, उन्होनें बेहतर कल के वास्ते सपने सजोये। एक ऐसे कल के सपने जहाँ प्यार पे बंदिशें न हों, जहाँ ख़ुशी पे सबका बराबर हक हो, जहां किसी को भी किसी मजबूरी तले न रहने पड़े। 

"आओ कि कोई ख़्वाब बुनें कल के वास्ते 
  वर्ना ये रात आज के संगीन दौर की 
  डस लेगी जान ओ दिल को कुछ ऐसे कि जान ओ दिल 
  ता-ऊम्र फिर न कोई हसीं ख़्वाब बुन सकीं"    
   
जुल्म करने वालों से उन्होनें बेबाक और सीधे सवाल पूछे -

 "धरती की सुलगती छाती से बेचैन शरारे पूछते हैं 
   तुम लोग जिन्हें अपना न सके वो ख़ून के धारे पूछते हैं 
   सड़कों की ज़बाँ चिल्लाती है, सागर के किनारे पूछते हैं 
   ये किस का लहू है कौन मरा, 
   ऐ रहबर-ए-मुलक-ओ-क़ौम बता"

साहिर प्रगतिशील लेखक आंदोलन का हिस्सा भी रहे। अपने गीतों व ग़ज़लों से उन्होंने नये समाज के संघर्ष को तेज़ किया।

कला के इस मशहूर गीतकार व ऊँचे दर्जे के फनकार ने 25 अक्टूबर 1980 को दुनिया से अलविदा कह दिया। साहिर की शायरियाँ, ग़ज़लें, गीत, नज्मे संघर्ष की राह पर अडिग रहकर चलने का हौसला भरती हैं और इन्साफ के परचम को थामे रखने व आगे बढ़ते जाने को प्रेरित करती हैं। ताउम्र खुद साहिर इसे थामे रहे। संघर्ष की आवाज़ को उन्होनें कभी दबने न दिया। दुनिया से हमेशा के लिए रुखसत होने के बाद भी साहिर लोगों के बीच हमेशा ज़िंदा रहेंगें और हर आज़ादपसन्द शख्स को समय-समय पर प्रेरित करते रहेंगे।

 साहिर की मशहूर नज़्म -

    "इन काली सदियों के सर से जब रात का आँचल ढलकेगा
      जब दुख के बादल पिघलेंगे जब सुख का सागर छलकेगा
      जब अम्बर झूम के नाचेगा जब धरती नग़्मे गाएगी
      वो सुब्ह कभी तो आएगी"




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