हल्ला बोल

नुक्कड़ नाटक (प्रवाह कल्चरल टीम )

नाटक का नाम :- हल्ला बोल

( नाटककार सफ़दर हाशमी जी के प्रसिद्ध नाटक हल्ला बोल  से साभार )

एक पात्र नारे शुरू करता है। बाकी लोग बैनर व पोस्टर उठाएं जुलूस की शक्ल में उसके पीछे चलते हैं। और नारे लगाते हैं।

सूत्रधार – बोल रे साथी हल्ला बोल, हल्ला बोल- हल्ला बोल-2

गाना- "हर जोर जुल्म  के टक्कर में संघर्ष हमारा नारा हैअभी तो यह अंगड़ाई है आगे और लड़ाई है। दम है कितना दमन में तेरे , देख लिया और देखेंगे। जगह है कितनी जेल में तेरे, देख लिया और देखेंगे"

[एक अभिनेता उठकर उनका रास्ता रोकता है।  उसके सिर पर पुलिस कैप और हाथ में डंडा है।]

 पुलिस-    ठहरो !  ठहरो ! मैं कहता हूं चुप हो जाओ { सब चुप होते हैं। सूत्रधार पुलिस से बेखबर गाता रहता है। पुलिसवाला उसके पीछे चलता है।}

पुलिस- अबे  सुना नहीं ? मैं क्या कह रहा हूं । अबे ओ  क्रांतिकारी चुप हो  जा। ऐसे नहीं मानेगा ( डंडा रसीद करता है ) क्या बे  ये क्या हो रहा है?

 सूत्रधार- ड्रामा कर रहे हैं।

 पुलिस-   डिरामा !  साले हमें उल्लू समझता है?

 सूत्रधार- नहीं तो।

 पुलिस- फिर?

  सूत्रधार- फिर क्या?

 सब- फिर क्या?

 पुलिस- डिरामा ऐसे किया जाता है?( हाथ हिलाता है।) नारे लगा के  तख्ठिया उठाकर हाथ में पोस्टर लेके । भागो यहां से सालो, नहीं तो सबको हवालात में डाल दूंगा।

 सूत्रधार-( हंसता है) आप यकीन मानिए हम ड्रामा ही कर रहे हैं, आप पूछ लीजिए इन लोगों से। अरे हवलदार साहब हम सब कलाकार हैं प्रवाह कल्चरल टीम के कलाकार हैं।

 सब- हां  प्रवाह कल्चरल टीम।

[ सभी पात्र पुलिस वाले को समझाते हैं।

पुलिस-  अच्छा, अच्छा, तो  डिरामा कर रहे थे।

 सब- जी हां।

 पुलिस- तो करो, सवास। पर जरा बढ़िया सा|

सूत्रधार- तो आप एक तरफ हो जाइए। हम अभी शुरू करते हैं। चलो भाई( फिर नारा लगाओ) इंकलाब जिंदाबाद साम्राज्यवाद  मुर्दाबाद जो अमेरिका का  यार है  वो देश का गद्दार है।

 पुलिस- अरे-अरे  ये क्या इंकलाब जिंदाबाद साम्राज्यवाद मुर्दाबाद जो अमेरिका का  यार है, (का डिरामा कर डिरामा !)

 सूत्रधार- हवलदार साहब यह भगत सिंह का नारा है। और हम भगत सिंह जयंती मना रहे हैं  डिरामे में भगत सिंह का नारा तो होता ही है।

 पुलिस- तुम्हारे डिरामें में होता होगा। हमारे इलाके में नहीं होता। देश में मंदी का माहौल है, एसएसओ साहब का  डायरेक्ट ऑर्डर है ,  कि जो संगठन  वगठन का नाम लेता  देखें फौरन हवालात में डाल दो। बाद में पूछो कि क्या मांगता है।

सूत्रधार- पर हमारे ड्रामे में तो संगठन होगा ही भगत सिंह ने भी बोला है नौजवानों आगे आओ गली-गली संगठन बनाओ।

 पुलिस- (चिल्लाता है) ना ! कौन भगत सिंह, बोला होगा? पर यहां  ये सब नहीं चलेगा।

  सूत्रधार- फिर?

 पुलिस- फिर क्या?

  सूत्रधार- फिर हम ड्रामा कैसे करें?

 पुलिस- अबे जैसे  डिरामा किया जाता  है!.............. और कैसे?

 कोई प्यार मोहब्बत का, आशिक महबूबा का खेल दिखाओ, कुछ नाच गाना हो, हंसी मजाक हो , कुछ  ये हो, कुछ  वो हो|.. क्या समझे?

 सूत्रधार- समझ गया|

 पुलिस- क्या?

 सूत्रधार- आशिक महबूबा का नाटक?

 पुलिस- हां।

  सूत्रधार- नारे नहीं?

 पुलिस- हां।

  सूत्रधार- ना!

 पुलिस- ना क्यों  बे।

सूत्रधार- अरे साहब मंदी का दौर है हम ठहरे ग्रेजुएट छोरे और वह भी नौकरी नहीं, और नौकरी नहीं तो छोकरी नहीं इसलिए हमारे मंडली में छोरी नहीं तो आशिक माशूका का नाटक खेलें,  तो कैसे ?

 पुलिस- तो बना इन छोरो में से किसी को छोरी।

 सूत्रधार- अच्छा ठीक है, जैसा आपका हुकुम। आपको आशिक माशूका वाला ही नाटक दिखाएंगे तो साथियों हवलदार साहब नारे वाला भगत सिंह का इंकलाबी नाटक तो करने की इजाजत देते नहीं, इसलिए हम आपको प्यार मोहब्बत का नाटक दिखाते हैं|

[ सारे पात्र आपस में बात करते हैं फिर इधर-उधर फैल जाते हैं संगीत शुरू होता है  एक भाग में आशिक  माशूका नाच  खेलें रहे है]

कोरस- "दो दिल मिल रहे हैं, मगर चुपके-चुपके| हां सबको हो रही है, खबर चुपके चुपके……"(लय के साथ)

[ जोगी-पूजा आंख मिचौली  खेलते हैं।]

 जोगी(आशिक)- मैं आऊं?

 पूजा(माशूका)-  ना,ना!

 जोगी-  मैं आऊं?

 पूजा- ना,ना!

 जोगी-  मैं आऊं।

 पूजा- आजा।

 जोगी- चुप चुप खड़े हो, जरूर कोई बात है| पहली मुलाकात है, जी पहली मुलाकात है….

  कोरस- ए पकड़ी गई…

 पूजा-  जोगी$$$..

जोगी- हां पूजा

 पूजा- तू पिताजी से कब बात करेगा?

 जोगी- बस कुछ दिन और ठहर जा पूजा!

 पूजा- क्यों?  2 साल तो हो गए हमें  ग्रेजुएट हुए|

 जोगी- पूजा तुम समझती क्यों नहीं, अभी मेरे पास नौकरी नहीं है, तुम्हें  रखूंगा कैसे?

 पूजा- पर तेरी नौकरी कब लगेगी, पहले तू कहता था कि आंदोलन के बाद कुछ पता चलेगा| मुझसे और इंतजार नहीं होता।

 जोगी- देख पूजा, इतना बड़ा आंदोलन हुआ है, 13 लाख विद्यार्थी  ने 7 दिन से एन एच  58, रेलवे लाइन जाम कर रखा है, राज्य सरकार काप उठी है, संघर्ष और तेज करने की जरूरत है केंद्र सरकार भी घुटने  टेक देगी।

 पूजा- सच्ची..?

 जोगी- सच्ची!

 पूजा- ईमान से!

 जोगी- ईमान से!

  पूजा- खा मेरी कसम!

 जोगी- तेरी कसम!

 पूजा- बाई गॉड!

 जोगी- बाई गॉड!

 पुलिस- अबे ओए, यह क्या हो रहा है, सालों प्यार मोहब्बत के नाटक में भी संगठन और आंदोलन का प्रचार शुरू कर दिया|  ये सब नहीं चलेगा।

( पुलिस बोल के सामने खड़े  हो जाते हैं)

 सूत्रधार- ओ हो… हवलदार साहब, आप भी हद करते हैं अब हमारा हीरो बेरोजगार है, 7 दिन तक आंदोलन के झंडे तले इतनी बहादुरी से लड़ा है तो क्या आंदोलन का नाम नहीं लेगा। और आप किस किस का मुंह बंद करवाएंगे, आज तो  हर बेरोजगार की जुबान पर नौकरी के आंदोलन का ही नाम है।

पुलिस- ना, हमारे इलाके में नहीं चलेगा।

 सूत्रधार- मतलब?

 पुलिस- मतलब यह कि हमारे इलाके के आशिक को आशिक की तरह रहना होगा, इधर उधर की  हांकेगा तो साले को हवालात में डाल दूंगा।

 सूत्रधार- ठीक है! हवलदार साहब आंदोलन का नाम नहीं लेगा, नौकरी की बात तो कर सकता है ?

 पुलिस-   अबे, यह आशिक है या भिखारी जो अपनी महबूबा से नौकरी की बात करता है, इसे कह की आशिकी करनी है, तो ठीक से करें और अगर नहीं होता तो मैं दिखाता हूं, कि इसक कैसे किया जाता  हैं।

 सूत्रधार- ना ना ना, आप तकलीफ ना करें! ओ कर लेगा। कर लेगा ना भाई?

 जोगी- हां हां क्यों नहीं।

  सूत्रधार- तो भाइयों बहनों! हम नाटक में थोड़ी परिवर्तन कर रहे हैं, यह तो हवलदार साहब की मेहरबानी से  सेंसर हो गया है, चलो भाई!  फिर से शुरू करो।

 जोगी- हां पूजा

 पूजा- तू, आज पिताजी से बात करेगा ना?

 जोगी- हां पूजा, तुझे जुबान दी है, तो जरूर करूंगा।

 पूजा- देख, घबराइओ नहीं, जरा डट के बात करियो जैसे क्रांतिकारी भगत सिंह अंग्रेजों से बात करते थे।

 पुलिस- क्या, क्या छोरी, यह क्रांतिकारी- व्रांतिकारी कहां से आ गया।

 पूजा- अच्छा जी!! गलती हो गई सॉरी…….

देख  घबराइयो नहीं जरा  डट के बात करियो जैसे भगवान राम राजा जनक से बात करते थे।

 (पूजा योगी को समझाते हुए)

 जोगी-  तू फिकर मत कर, मैं तेरे पिताजी यों यों अपने उंगलियों में लपेट लूंगा। बस तू देखती जा कि तेरा जोगी किस मिट्टी का बना है।

 पूजा- बाबा ओ बाबा………

 बाबा- आरी कौन मर गया क्यों गला फाड़ रही है।

 पूजा- तुमसे कोई मिलने आया है।

 बाबा- कोई लेनदार होगा कह दे, बाबा घर पर नहीं है।

 पूजा- लेनदार नहीं है कोई और है।

( बाबा का प्रवेश )

 बाबा- कौन है?

{ पूजा इशारा करती है बाबा जोगी की परिक्रमा करते हैं}

 बाबा- कौन है भाई? मैं तो तुझे पहचानता नहीं( जोगी चुप)। अबे क्या बात है?( जोगी चुप)। गूंगा है क्या?( जोगी चुप)। अबे कुछ बोलेगा भी या यूं ही सुमसा ही खड़ा रहेगा।

जोगी- ज ज ज..जोगी!

 बाबा- जोगी ?

 जोगी- जोगी, जोगी नाम है मेरा जी! नहीं माने जोगिंदर माने, नहीं माने जोगिंदर सिंह, माने जोगी, जोगिंदर जोगी जोगिंदर। ( हकलाते हुए )

 बाबा- क्या गोभी चुकंदर, गोभी चुकंदर लगा रखा है, बोल किस काम से आया है?

 जोगी- नहीं माने यूं ही, बस ऐसे ही, माने टेमपास, माने मैं चलता हूं।

 बाबा-(गिरेबान पकड़कर) अबे जाता कहां है? बोल किस मतलब से आया था? मुझे तो कोई चोर उचक्का  लग्गे।

[ पूजा जोर से  रोती है ]

 बाबा- चुप!  आरी तुझे क्या हो गया है,

 पूजा-( रोते-रोते) यह चोर नहीं है।

 बाबा- तू कैसे जानती है इसे?

 पूजा-[ रोते-रोते हिचकियां के बीच] ये माने जोगी. माने…. मेरे से माने तुमसे…, माने प्रेम माने प्यार……….

 बाबा- अरे क्या माने माने लगा रखी है, ठीक से बोल.

 पूजा- बाबा हम एक दूसरे से प्यार करते हैं और शादी करना चाहते हैं।

 बाबा-( जोगी से) अच्छा! तो यह चक्कर है। तो तू मेरी बेटी से शादी करना चाहता है।

 जोगी- जी मैं माने, माने वही कहने जा रहा था।

 बाबा- यह माने वाने छोड़ असली बात पर आ जा।

  जोगी- जी मैं इसे पलकों पर बिठा कर रखूंगा, रानी बनाऊंगा, दुनिया घुमाऊंगा।

 बाबा- यह डायलॉग बाजी रहने दे बता काम क्या करता है।

 जोगी- ग्रेजुएट हूं.

 बाबा- मैंने पूछा काम क्या करता है।

 जोगी- जी कोशिश करता हूं ।

 बाबा- काहे की कोशिश?

 जोगी- अच्छी नौकरी की.

 बाबा- सीधा बोल ना बेरोजगार है.

 जोगी- जी!

 सब- जी बेरोजगार [एक साथ जोर से]

 बाबा- मुझे पता था ऐसे ही गए गुजरे से आएगा रिश्ता मेरी बेटी के लिए।

[जोगी थोड़ा डटकर ]

 जोगी- तो जी मैं यह रिश्ता पक्का  समझू?

 बाबा-[ जूता हाथ में लेकर जोगी के पीछे दौड़ता है] आ मैं तेरा रिश्ता पक्का करूं। साले बेरोजगार, नालायक, फकीर की औलाद साले नौकरी है नहीं और सपने  देखता है शादी करने का!

 मुझे अपनी बिटिया को जीते जी नहीं मारना तेरे से शादी करा कर।

[ पूजा पीछे पीछे भागती है ]

 पूजा- बाबा उसे मत मारो! उसे छोड़ दो।

  बाबा- जूते मारूं?

 सब- 420

 बाबा- नून तेल का?

 सब- 420

 बाबा- भाव बता  दूं!

सब- 420

 जोगी- देखो देखो हाथ मत उठाना हां!

 बाबा- जरूर उठाऊंगा सौ बार उठाऊंगा! बार-बार उठाऊंगा।

 जोगी- बताना दे रहा हूं, पूजा रोक ले अपने बाप को नहीं तो खून पी जाऊंगा बढ़उ का।

 बाबा- साले तेरी ये मजाल तू मुझे धमकाता है, मैं तुझे गिन-गिन के जूते लगाऊंगा।

 पूजा- पहले मुझे मारो! बाद में जोगी पर हाथ उठाना और कान खोल कर सुन लो शादी करूंगी तो जोगी से, नहीं तो पूरी जिंदगी कुंवारी बैठी रहूंगी।

 बाबा-  हाय बेटी यह क्या कहती है ऐसी मनहूस बात क्यों जुबान पर लाती है इस बेरोजगार ग्रेजुएट से शादी का ख्याल मन से निकाल दें।

 पूजा- बाबा नून रोटी खाएंगे जिंदगी संग ही बिताएंगे, ठीक है।

 बाबा- देख बिटिया अकल से काम ले शादी-वादी का ख्याल छोड़ दे।

 पूजा- दिल एक है जान एक है उसके बिना हम मर जाएंगे।

  जोगी-[ उत्सुकता से] तो बाबा अब मैं रिश्ता पक्का समझू।

 बाबा- जोगी बेटा देख मुझे तेरे से कोई दुश्मनी नहीं है, तू शरीफ और मेहनती लड़का लगता है, पर मुझे बेटी के बारे में भी सोचना है बेटा।

जोगी- मैंने सब सोच लिया है जी! मैं बीड़ी-सिगरेट, चाय सब छोड़ दूंगा।

 बाबा- बचपने की बातें मत कर बेटा, मैंने भी जिंदगी देखी है बीड़ी चाय छोड़ देगा तो 8 घंटे नौकरी कैसे ढूंढेगा।

 जोगी- मैं बस में आना जाना छोड़ पैदल नौकरी की तलाश करूंगा और पूजा भी तो नौकरी करेगी।

 बाबा- ताकि तू दो-तीन साल में ही भगवान को प्यारा हो जाए। ताकि मेरी बेटी बेवा हो जाए। यह सब बेकार की बातें हैं, मैंने देख लिया है देश में कोई नौकरी-वाकरी नहीं है, बेरोजगारों की भारी भीड़ पड़ी है, आदमी तो दूर जानवर भी नहीं रह सकता यहां।

 जोगी- जी! वो आंदोलनकारी भी यही कहते हैं और यह भी कहते हैं कि इसके जिम्मेदार देसी-विदेशी पूजीपतियों की लुटेरी सरकारे हैं।

 बाबा- बिल्कुल सही कहते हैं तो बिटवा कोई ऐसा काम पकड़ जिसमें ये लुटेरी सरकार ख़त्म हो जाए और तुझे नौकरी मिल जाए फिर, मैं पूजा की शादी तुमसे खुशी-खुशी कर दूंगा।

पूजा- पर ऐसा होगा कैसे?

 जोगी- सब जगह लोग भगत सिंह के रास्ते पर चलने लगे हैं आंदोलन आगे बढ़ने लगा है।

 बाबा- तो बेटा आंदोलन का साथ देकर सरकार को उखाड़ फेंको और भगत सिंह का सपना पूरा कर दो।

 जोगी- हां बाबा!  70 सालों से भगतसिंह जैसे, क्रांतिकारियों के नाम पर इस लुटेरी सरकार ने खूब लूटपाट किया है बेरोजगारी खत्म करने के नाम पर बेरोजगारों का खून करा है। उनके सपनों को कुचला है। नौकरी देते भी है तो इतनी, कम तनख्वाह कि आदमी मर जाए।

 बाबा- बेटा हाथ पर हाथ धर के मत बैठो अपनी लड़ाई को और तेज करो।

 जोगी- वह तो आपके बताए बगैर ही कर रहे हैं। सारे बेरोजगार आंदोलन में भाग ले रहे हैं और उसका झंडा उठाकर लंबी लड़ाई लड़ रहे हैं।

[पुलिस वाला आता है]

पुलिस- फिर!  फिर से सालों, मैं कुछ कह नहीं रहा हूं तो तुम फैलते ही जा रहे हो। बहुत हो गया उठाओ अपना ताम तोबड़ा  और चलते फिरते नजर आओ।

 सूत्रधार-हवलदार साहब, आपने नारे लगाने झंडे उठाने को मना किया था, हमने उन्हें एक तरफ रख दिया अब क्या परेशानी है?

 पुलिस- अबे तो मुझे क्या पता कि तुम झंडे और नारे के बगैर ही नौजवानों को भड़का सकते हो। अब मैं कुछ नहीं सुनना चाहता तुम खिसक लो यहां से।

सूत्रधार-  लाठी सिंह साहेब आप की खोपड़ी में इतनी सी बात क्यों नहीं आती। बेरोजगारो की जिंदगी पर नाटक करेंगे तो झंडा उठाएं या ना उठाएं नारे लगाएं या ना लगाएं बात वही पहुंचती है जीना है तो लड़ना है।

सब- जीना है तो लड़ना होगा।

 जोगी- प्यार भी करना है तो लड़ना होगा।

 पुलिस- तो ऐसा नाटक करने के लिए भी तुम्हें मुझसे लड़ना होगा। है कोई जो आगे आए।

  सूत्रधार-भाड़ में जाओ नहीं करना हैं हमें, साले इमरजेंसी अभी लगी नहीं और सेंसरशिप पहले से ही शुरू हो गया।

 चलो साथियों हमें नहीं करना नाटक [सब सामान उठाने जाते हैं]

 एक अभिनेता! रुको एक मिनट (सब रुकते हैं। हवलदार से) आपने कहा कि नारे, झंडा, आंदोलन वगैरा का नाम नहीं आना  चाहिए। लेकिन हमारा नाटक उसके खिलाफ हो तो?

पुलिस- वैसे तो एस.एच.ओ साहब का आर्डर है कि आंदोलन का नाम भी नहीं आना चाहिए। लेकिन अगर तुम उसके खिलाफ नाटक करो तो हो सकता है मेरी प्रमोशन हो जाए और मैं सब- इंस्पेक्टर बन जाऊं फिर इंस्पेक्टर फिर उसके बाद ए.सी.पी और फिर डी.सी.पी तो हम बन ही जाएंगे… (सपने देखने लगता है)

एक अभिनेता- लाठी सिंह साहेब अपने हसीन सपनों की दुनिया से निकल कर जरा धरती पर लौट आइए। हां तो हम फिर अपना नाटक शुरू करें।

 हवलदार साहब जी, ए.स.पी साहब ओ डी.सी.पी साहब!

 पुलिस-(चौकीदार सपनों की दुनिया से बाहर आता है) हां, हां। (बैठ जाता है) तो शुरू करो।

[सब पात्र सलाह करते हैं और नाटक फिर शुरू होता है]

जोगी- रेंगकर मर मर के जीना ही नहीं है जिंदगी

         खून के आंसू को पीना ही नहीं है जिंदगी

          कुछ करो कि जिंदगी की डोर ना कमजोर हो

          तय करो किस ओर हो तुम तय करो किस ओर हो

          आदमी के पक्ष में हो या की आदमखोर हो!

  सब-रेंगकर मर मर….. [आंदोलन का झंडा उठाए लहराता लड़ता जोगी आता है। चार अभिनेता उसे घेरकर उसके इर्द-गिर्द घूमते हैं।]

        चारों - क्यों जोगी आ गए होश ठिकाने

1.       कैसी लगी पुलिस की मार?

2.        हवालात में ठुल्लो ने रोटी भी दिया या भूखे प्यासे ही पड़े रहे?

3.       आंदोलन में जेल में चक्की भी पीसवा दी बेचारे से।

4.       अरे यह किस खेत की मूली है। जेल में तो इसके साथियों तक की भी ठुकाई हो गई।

  चारों- हा! हा! हा! हा!

1-     हम तो पहले भी तुम्हें समझाते थे कि मत पढ़ो इनके चक्कर में!

2-     पर ना, उन्होंने तुम्हें भर्री दी और तुम कूद पड़े आंदोलन में!

3-      पर हाथ क्या आया?  कद्दू?

4-      अब ऊपर से एफ.आई.आर दर्ज हो गई सो अलग!

जोगी- एफ.आई.आर?

चारों- और नहीं तो क्या!

जोगी- पर वह आंदोलनकारी तो कहते थे कि आंदोलन करने से नौकरी, मिलेगी घर मिलेगा और लड़ाई जीत गए तो भगत सिंह के सपनों का समाज बनेगा। जिसमें ना गरीब होगा ना अमीर और सरकार होगी मां जैसी जो सबसे प्यार करेगी।

1-     बरगलाना इसी को कहते हैं। तुम्हारे जैसे भोले भाले नौजवानों को लालच दिखाकर अपना उल्लू सीधा किया है इन आंदोलन वालों ने!

2-      अब जाके उनसे पूछ क्या हुआ उन वादों का! नौकरी दिलाने चले थे मिल गई?

3-      घर दिला दे थे, औरतों को बराबरी का हक दिला रहे थे- मिला कुछ?

4-      अजी यह तो कुछ नहीं सीधे मजदूर विरोधी कानून रद्द करा रहे थे, बंद  फैक्ट्रियां खुलवा रहे थे, पुलिस दमन रुकवा रहे थे।

 चारों- हा हा हा! यूं कहो मुल्क में मेहनत करने वालों के लिए स्वर्ग बनवा रहे थे!

1-     जोगी अब भी वक्त है चेत जा और झाड़ ले पल्ला।

2-      हमारे साथ चल और  सत्ता के मजे ले। कम से कम रोटी नहीं तो रोटी का टुकड़ा ही मिल जाएगा।

 जोगी- बात रोटी की नहीं है, रोटी तो किसान उगाता है लेकिन आत्महत्या कर रहा है ना! बात है इस लुटेरी व्यवस्था की, बात है इसको बदलने की!

3-     ला दे  ये झंडा हमें दे। इसे फाड़ के फेंक देते हैं

चारों- ना रहेगा बांस ना बजेगी बांसुरी!

[जोगी से झंडा लेते हैं झंडा जोगी के हाथ में रह जाता है चारों झंडे को खींचते हैं। जोगी झंडा उठाता है और वापस खींच लेता है।]

 जोगी- खबरदार! छोड़ दो इसे, मालिकों के दलालों तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई क्रांतिकारियों  के परचम को अपने नापाक हाथों से छूने की..

[बाकी एक्टर भी खड़े होते हैं।

 सब एक्टर – ए जोगी क्या करते हो। हमें आंदोलन के खिलाफ नाटक करना था। हवलदार साहब बैठे हैं बेकार में तू सबको पिटवा आएगा।

 जोगी- नहीं, नहीं करूंगा मैं आंदोलन के खिलाफ नाटक। भगत सिंह का सपना आंदोलन का सपना है। आंदोलन का ये झंडा है, मैंने देख लिया है आंदोलन और संगठन ही है जो  ये लूट की व्यवस्था को बदल सकती है। इस 7 दिन की आंदोलन में अपने हक के लिए, इंसानी जिंदगी के लिए लड़ने का रास्ता मुझे भगत सिंह  के संगठन ने ही दिखाया है। कहां मुंह काला कर आ रहे थे यह तुम्हारे संगठन वाले जब हम पर पुलिस की लाठियां पड़ रही थी। क्यों घुसे बैठे थे  ये अपने बिलों में जब मैं हवालात में भूखा प्यासा पड़ा था। जब पुलिस वाले औरतों को पीट रहे थे, हमारे साथियों को गिरफ्तार कर रहे थे  तो क्या तुम्हें  सांप सूंघ गया था। नहीं! तब यह अखबारों में बयान जारी करके आंदोलन को बुरा भला कह रहे थे। नौजवानों को आंदोलन में उतरने से रोक रहे थे। इन मजदूरों को मैंने अच्छी तरह पहचान लिया है अब मेरा एक ही सपना है दुनिया में अमीरी-गरीबी खत्म हो। सबके पास सम्मानजनक रोजगार हो, अब मैं ही भगतसिंह हूं । बेरोजगारों की तरह मरने से अच्छा है भगत सिंह की तरह शहीद हो जाऊं। मैं आंदोलन के खिलाफ एक लफ्ज़ भी नहीं बोलूंगा। हवलदार तो क्या, चाहे मुल्क की सारी पुलिस मेरी छाती पर सवार हो जाए मेरी जुबान से एक ही आवाज निकलेगी।

 इंकलाब जिंदाबाद, साम्राज्यवाद मुर्दाबाद – 2

 ये सरकार वो सरकार पूजीपतियों की सरकार

 पुलिस- साले, तो फिर शुरू हो गया? 2-4 लाखिया मारूंगा तो होश ठिकाने आ जाएंगे!

 जोगी- एक नहीं हजार लाठी-डंडे बरसाओ, आज मैं चुप नहीं रहूंगा। इस देश का नौजवान आज चुप नहीं रहेगा, जो जान गवाने से नहीं डरता वो लाठी से क्या डरेगा?

 

 गाना- "जारी है जारी है,

            अभी लड़ाई जारी है………"

 

 नेता- यह कैसा शोर है?

 पुलिस- अच्छा हुआ आप आ गए। ये साला नौजवानों को भड़का रहा है मैंने मना किया तो मुझे ही आंख दिखाता है।

 नेता- सालों, कल तब तो हमें देख के कांपते थे। आंदोलन क्या कर लिया हमें आंख दिखाते हो। आज भगत सिंह के नाम से हमें धमकाते हो? भूलो मत, आज इस देश में तुम हमारी कृपा से रह रहे हो? और इतनी दिक्कत है, तो दूसरे देश चले जाओ, नहीं तो पुलिस और सेना के दम पर  नेस्तनाबूद करवा दूंगा। बड़ा आया आंदोलनकारी।

 जोगी- अरे, तुम क्या नेस्तनाबूद  करोगे। भगत सिंह को तो खत्म कर नहीं पाए।  उनके विचार, उनका सपना आज भी नौजवानों में खून की तरह दौड़ता है और तुम सब उनके विचारों से ही तो डरते  हो कि कहीं एक और भगत सिंह पैदा ना हो जाए और लुटेरे गोरों की तरह तुम जैसे लुटेरे   भूरो की सरकार  न उखाड़ दे।

 साथियों देख लो ये है तुम्हारे नेता जिसकी तुम गुलामी बजा रहे हो।

1-     जोगी ठीक कहता है 70 साल से गुलामी ही तो करवा रहे हैं ना इन्होंने सबको नौकरी दी।

2-      हां( जोर से) ना सबको घर दिया ।

3-      शिक्षा के नाम पर चोरी और दवाइयों के नाम पर लुटा और जहर दिया।

4-      गरीबी दिन पर दिन कैंसर की तरह बढ़ी, देश दंगों की आग में सुलगता रहा और यह लुटेरे मजे से काजू बादाम खाते रहे।

 जोगी- कई चुनाव आए और गए, देश में कितनी सरकारें आई और गई, अमीर और अमीर होता गया गरीब के मुंह से निवाला छिनता गया। यही है इनका लोकतंत्र। यही है इनका जनता का राज।

 सूत्रधार- जोगी ठीक कहता है, भगत सिंह ने भी कहा था, अगर सरकार जनता को उनके मूलभूत अधिकार यानी( रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, चिकित्सा और रोजगार) से वंचित रखती है, तो जनता का कर्तव्य ही नहीं पूरा अधिकार है कि ऐसी सरकार और  ऐसे लुटेरी व्यवस्था को उखाड़ दे।

 नारे- इंकलाब जिंदाबाद साम्राज्यवाद मुर्दाबाद ये सरकार वो सरकार पूजीपतियों की सरकार

गीत-  "ए भगत सिंह तू जिंदा है……."


 

 


गर्म हवा: खुद की ज़मीन पर अज़नबी

गर्म हवा: खुद की ज़मीन पर अज़नबी
''बड़ी गरम हवा है मियां... बड़ी गरम... इसमें जो उखड़ा नहीं वो सूख जावेगा।’’
- फिल्म से एक संवाद
                                                                                                                                                     

'गर्म हवा’ सिर्फ देश के विभाजन की नहीं बल्कि ऐतिहासिक फैसले की कहानी है। एक स्तर पर यह फिल्म के नायक सलीम मिर्ज़ा (बलराज साहनी) का नितांत निजी और जिद से भरा हुआ फैसला है। मगर इसी फैसले को जब हम सामूहिक चेतना के रूप मे देखते हैं तो गहरे निहितार्थ नजर आते हैं। यह फैसला इस भारतीय उप-महाद्वीप का भविष्य तय करता नजर आता है। यह सिर्फ आज़ादी बाद दुनिया के नक्शे पर उभरे देश में किसी एक कौम का भविष्य नहीं है बल्कि बहुत ही स्पष्ट राजनीतिक और वैचारिक धारा की स्थापना है। जहां आने वाली नस्लें किस आबो-हवा में सांस लेंगी यह भी तय होना है। उर्दू की लेखिका इसमत चुग़ताई एक $कौम या समुदाय के इसी फैसले को अपनी कहानी 'वहां’ का आधार बनाती हैं। कैफ़ी आज़मी और शमा ज़ैदी उस कहानी को पटकथा के माध्यम से विस्तार देते हैं और एमएस सथ्यु उसे एक पर्त-दर-पर्त खुलने वाली फिल्म में तब्दील करते हैं।
अधिकतर लोग यह जानते हैं कि 'गर्म हवा’ इसमत चुगताई की कहानी पर आधारित है, मगर बहुत कम लोगों को पता होगा कि उर्दू के एक और चर्चित कथाकार राजेंद्र सिंह बेदी की भी इस फिल्म में अप्रत्यक्ष रूप से बड़ी भूमिका है। फिल्म बनाने का सुझाव ही उनकी तरफ से आया था। उन दिनों शमा ज़ैदी बेदी के उपन्यास 'एक चादर मैली सी’ पर आधारित नाटक कर रही थीं। बेदी ने कहा, ''आप लोगों को एक फिल्म बनानी चाहिए, उन मुसलमानों पर जो पाकिस्तान नहीं गए और क्यों नहीं गए।’’ तीस्ता सीतलवाड़ को दिए इंटरव्यू (1) में शमा बताती हैं कि उन्होंने जब बेदी से कहा कि आप कुछ लिखकर हमें दीजिए तो वो बोले, ''मैं नहीं लिखूंगा, तुम लिखोगी और सथ्यु बनाएंगे।’’ बेदी ने जैसे पहले से सब कुछ तय कर लिया था। फिर शमा ने इसमत से इस विषय पर चर्चा की। इसमत को बात जंच गई। उन्होंने कहानी लिखी भी मगर वह गुम हो गई। इसमत ने दूसरी कहानी लिखी। शमा ने दूसरे वर्जन पर काम शुरू कर दिया। इसी बीच घर की सफाई में इसमत को पहली वाली कहानी भी मिल गई। शमा बताती हैं, ''अब हमारे पास दो कहानियां हो गई थीं। मैंने उनकी काहनी पर आधारित पटकथा लिखनी शुरू की। मैंने इसे नूरुल हसन को दिखाया। उन्होने कहा- कहानी तो सही है मगर पॉलिटिक्स गड़बड़ है। फिर मैं कैफी आजमी के पास गई। वे इप्टा के लिए काम करते थे। उन्होंने मूल कहानी से अलग अंदाज में इसकी पटकथा तैयार की। हालांकि ओरिजिनल किरदार और घटनाएं वही थीं। दिक्कत यह थी कि यह पटकथा बहुत लंबी थी।’’ शमा ज़ैदी कहती हैं कि उसे इस्तेमाल करते तो पांच घंटे की फिल्म बनती। फिर शमा ने उसका संक्षिप्तिकरण किया और इस तरह से फिल्म आरंभ हुई।
इतिहास की करवटों के पीछे जाने कितनी निजी मानवीय त्रासदियां होती हैं। दुनिया के श्रेष्ठ फिल्मकारों ने इतिहास की इन्हीं मानवीय त्रासदियों पर बेहतरीन फिल्में बनाई हैं। 'गर्म हवा’ को देखते हुए मुझे बार-बार रोमान पोलांस्की की फिल्म 'द पियानिस्ट’ याद आती है। पोलांस्की की इस फिल्म का नायक ब्लैडीस्लाव स्पीलमैन नाजीवाद की गहराती परछाइयों में अपनी दुनिया नष्ट होते देखता है मगर अंतिम समय तक आशा का दामन नहीं छोड़ता। 'लाइफ इज़ ब्यूटीफुल’ और 'शिंडलर्स लिस्ट’ से अलग यह फिल्म नायक के आशावाद पर केंद्रित है। विजय शर्मा 'सिनेमा और साहित्य: नाजी यातना शिविरों की त्रासद गाथा’ में लिखती हैं, ''अपनों को मरते देख जीवित रहना बहुत त्रासद होता है, लेकिन व्यक्ति की जिजीविषा उसे बुरी-से-बुरी परिस्थितियों में जीवित रखती है। पियानोवादक बहुत कुछ देख-सुनकर, सहकर भी जीवित रहता है।’’ (2) वे आगे लिखती हैं, ''फिल्म को देखने के बाद प्रतिकार की भावना नहीं जगती है, वरन मानवता पर विश्वास जमता है। संगीत की शक्ति और जिजीविषा को सलाम करने का मन करता है। यह फिल्म संगीत की शक्ति, जिजीविषा और दुष्टता-बुराई के समक्ष डटकर खड़े रहने का दस्तावेज है।’’ (3) ठीक उसी तरह 'गर्म हवा’ विभाजन के दौरान एक साधारण भारतीय मुसलमान के आसपास के संसार के आहिस्ता-आहिस्ता टूटकर बिखरने और और उसको फिर समेटने की कोशिशों का दस्तावेज है।
हिन्दुस्तान के विभाजन से जुड़ा विमर्श अक्सर अपने पीछे उत्तेजना और हिंसा की लपटें भी लेकर आता है। विभाजन पर लिखे गए साहित्य में भी यह हिंसा ख़ूब नज़र आती है। चाहे वह कृशन चंदर के विभाजन पर लिखे यादगार उपन्यास-कहानियां हों, चाहे डार्क ह्यूमर व एब्सर्डिटी से भरे मंटो के 'सियाह हाशिए’ हों या फिर यशपाल का वृहद उपन्यास 'झूठा सच’। विभाजन पर बनी फिल्मों ने भी अलग-अलग तरीके से इसी हिंसा को चित्रित किया है। गोविंद निहलाणी की 'तमस’, दीपा मेहता की 'अर्थ’ या व्यावसायिक फिल्म 'ग़दर- एक प्रेमकथा’ विभाजन को उसकी हिंसा के बैकड्राप में देखते हैं। 'अर्थ’ की हिंसा जरूर मनोवैज्ञानिक स्तर तक उतरती है मगर वह भी एक व्यापक हिंसा का मानवीय संबंधों के स्तर पर किया गया चित्रण है। लेकिन सथ्यु गर्म हवा को विभाजन पर बनी बाकी फिल्मों की तरह बाहरी हिंसा से दूर रखते हैं। फिल्ममेकर तथा पाकिस्तान में प्रजातांत्रिक अधिकारों के लिए सक्रिय फ़रयाल अली गौहर 'गर्म हवा’ पर लिखती हैं, ''नाज़ुक, बारीक, चरित्र चित्रण की गहराई में सम्मोहित कर देने वाली और अपनी चिंताओं में विस्तार लिए यह एक ऐसी फिल्म है जो उन कहानियों के बीच हमेशा याद रखी जाएगी जहां विभाजन की पृष्ठभूमि में इंसानी कहानी को बयान किया गया है। 1973 में लगभग 10 लाख रुपये की लागत से बनी 'गर्म हवा’ सिर्फ विभाजन के दौरान हुई उथल-पुथल, नरसंहार या महिलाओं के शरीर पर होने वाले अत्याचारों के बारे में नहीं है, बल्कि यह फिल्म एक परिवार के उस चयन के बारे में है जो मुस्लिम होने के बावजूद भारत में रहने का फैसला करता है।’’ (4)
विभाजन का संदर्भ लेकर आई ऋत्विक घटक की दो महान फिल्में 'मेघे ढाका तारा’ और 'सुबर्णरेखा’ से अलग यह शरणार्थियों के जीवन संघर्ष की गाथा भी नहीं थी। 'गर्म हवा’ मनोवैज्ञानिक स्तर पर उन लोगों की कहानी कहती है जो अपनी ही मातृभूमि में शरणार्थी बन गए हैं। अलग धर्म और समुदाय से वास्ता रखने की वजह से उन्हें उसी जगह पर जीने के लिए संघर्ष करना पड़ता है, जहां वे अब तक बड़े सुकून से अपना गुजारा करते आए थे। विभाजन पर आधारित किसी भी दूसरी फिल्म के मुकाबले इस फिल्म में बिना किसी मेलोड्रामा या भावुकता का सहारा लिए उस मनौवैज्ञानिक हिंसा को पकडऩे का प्रयास किया गया है, जिसका विभाजन के दौरान लाखों लोग शिकार हुए। यही वजह है कि 'गर्म हवा’ को हम बिना किसी दुविधा के भारतीय सिनेमा की कुछ सबसे महत्वपूर्ण फिल्मों में स्थान दे सकते है। सन् 1973 में इतने अंडरटोन वाली फिल्म बनाना, जब हिन्दी सिनेमा की शैली बहुत लाउड रही हो, यह अपने-आप में बहुत बड़ा प्रयोग था।
फिल्म आगरा के एक छोटे से कारोबारी की दिक्कतों को बयान करती है। देश का विभाजन हो चुका है। अब महात्मा गांधी भी नहीं रहे। माहौल खराब है। अफवाहों का बाज़ार गर्म है। मुसलमान पाकिस्तान में अपना भविष्य देख रहे हैं। मिर्ज़ा की चिंताएं बहुत छोटी-छोटी है। एक आम हिन्दुस्तानी की तरह वे अपने परिवार को और अपने कारोबार को बचाए रखना चाहते हैं। उनको यकीन है कि गांधी की शहादत बेकार नहीं जाएगी और उन्हें अपनी जमीन, अपना घर, अपने लोगों को छोड़कर मुसलमानों के लिए बने किसी और मुल्क में नहीं जाना होगा। बलराज साहनी ने सलीम मिर्ज़ा के किरदार में अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ काम किया है। यह त्रासदी का नायक है। जिसका परिवार उसके सामने बिखर रहा है। जिसके हर फैसले गलत साबित हो रहे हैं। जिसका साथ लोग छोड़ते जा रहे हैं। हर सदमे, हर झटके को जज़्ब करके उनका आगे बढऩा, जरुरत पडऩे पर थोड़ा झुक जाना, थोड़ी खुशामद कर लेना मगर ठीक उसी वक्त अपने स्वाभिमान को भी बनाए रखना-  इस चरित्र को अविस्मरणीय गहराई देता है।
इतिहासकार यास्मीन ख़ान लिखती हैं, ''आज़ादी का ख़ास ताना विभाजन के बाने से कुछ इस तरीके से गुंथ गया था कि इसने राष्ट्रीय पहचान का एक नया अवसर पैदा कर दिया था। जहां पहले हज़ारों स्थानीय स्वायत्त समूह होते थे वहां अब भारत या पाकिस्तान के प्रति राष्ट्रभक्ति आधिकारिक रूप से अनिवार्य हो गई थी। विश्वासघात के आरोप से कोई भी मुसलमान न बच सका और तमाम मुसलमानों को अपनी विश्वसनीयता साबित करने की कोशिशें करनी थीं।’’ (5) सलीम मिर्ज़ा को भी अपनी विश्वसनीयता साबित करने के लिए ये कोशिशें लगातार करनी पड़ती हैं। जब उन्हें अपने कारोबार के लिए रकम जुटानी होती है, जब वे बैंक के पास लोन के लिए जाते हैं, जब हवेली पर कस्टोडियन का कब्जा होने के बाद उन्हें अपने परिवार के लिए घर तलाशना होता है और जब जासूसी का आरोप लगाकर उन्हें हिरासत में ले लिया जाता है। यहां तक कि जब वे रिहा हो जाते हैं तब भी बहुत से लोग उन पर भरोसा नहीं करते हैं।
राजनीतिक मनोविश्लेषक आशीष नंदी कहते हैं, ''देश-प्रेम का मतलब प्रादेशिकता या क्षेत्रियता है जो मानव जाति का नैसर्गिक गुण है। इस तरह की प्रादेशिकता सभी जीवों में पाई जाती है। यहां तक कि कुत्ते और बिल्लियों में भी। दूसरे शब्दों में, देश-प्रेम मानव जाति के लिए प्राकृतिक चीज है। लेकिन राज्यवाद का विचार देश-प्रेम को पर्याप्त नहीं मानता।’’ (6) देश-प्रेम बनाम राज्यवाद के इसी द्वंद्व को गर्म हवा में बखूबी प्रस्तुत किया गया है। एक-एक करके सलीम के अपने उन्हें छोड़कर पाकिस्तान जाने लगते हैं। सबसे पहले बहन-बहनोई जाते हैं। उसके बाद बड़े भाई हलीम मिर्जा (दीनानाथ जुत्शी) जाते हैं। फैक्टरी के वर्कर भी काम छोड़ते जा रहे हैं। जब जूते के कारोबार में सहयोग करने वाला उनका बड़ा बेटा बाकऱ मिर्जा (अबु सिवानी) भी पाकिस्तान चला जाता है तो सलीम की बेगम (शौक़त क़ैफी) कहती हैं, ''आपको किसने रोक रक्खा है, यहां कौन सा खजाना गाड़कर रक्खा है, जो साथ नहीं ले जा सकते?’’ सलीम जवाब देते हैं, ''यह उम्र वतन छोड़कर जाने की नहीं, इस दुनिया से उस दुनिया में जाने की है।’’
सलीम मिर्ज़ा आसपास की जिस दुनिया से हमेशा रू-ब-रू होते आए हैं वे उसे ही वतन मानते हैं। अपनी जड़ों, अपने लोगों और अपनी जमीन से इस लगाव और विस्थापित होने की मनोवैज्ञानिक पीड़ा को छोटे-छोटे दृश्यों के माध्यम से बड़ी खूबसूरती से प्रस्तुत किया गया है। फिल्म के यादगार दृश्यों में से एक है, जब सलीम मिर्जा को हवेली छोडऩी पड़ती है और उनकी बूढ़ी मां लकडिय़ों के ढेर में छिप जाती हैं। उन्हें जबरन गोद में उठाकर ले जाना पड़ता है और वे बड़बड़ाती रहती हैं, ''मैं नहीं जाऊंगी, अपनी हवेली छोड़कर नहीं जाऊंगी।’’ यह दृश्य बहुत प्रतीकात्मक बन पड़ा है। यह राजनीतिक अवधारणाओं की बजाय अपनी जमीन, अपने लोगों को जुडऩे की भावना को बड़ी शिद्दत के साथ बयान करता है। चेक उपन्यासकार मिलान कुंदेरा ने सत्ता के ख़िलाफ़ आदमी के संघर्ष को 'भूलने के ख़िलाफ़ याद रखने’ के संघर्ष के रूप में परिभाषित किया है। जब सभी लोग किराए के नए घर में आते हैं तो पता लगता है कि अम्मा ने अपनी चारपाई ऊपर डलवा रखी है। सलीम मिर्जा पूछते हैं, ''ऊपर? सीढिय़ां चढऩे उतरने में उन्हें तकलीफ न होगी?’’ बड़े बेटे बाक़र की बेगम बोलती है, ''दादी अम्मा ने जिद करके अपनी चारपाई यहां बिछवाई, जंगले से हवेली जो नज़र आती है।’’
एक ही परिवार में स्त्रियों की कई पीढिय़ां नजर आती हैं। फिल्म विभाजन की छाया में इन स्त्रियों के संघर्ष, संतोष, खुशियों और उम्मीदों को बयान करती है। एक तरफ दादी अम्मा अपनी बेलौस टिप्णियों से फिल्म में हल्के-फुल्के क्षण लेकर आती हैं। वो वतन तो दूर अपनी हवेली भी नहीं छोडऩा चाहतीं। जबकि सलीम की बेगम जमीला के पास एक आम स्त्री की चिंताएं हैं। उसके पास सलीम मिर्ज़ा जैसा धीरज नहीं है। उसे उनकी जिद समझ में नहीं आती। जमीला को लगता है कि पाकिस्तान जाने से शायद हालात सुधर जाएंगे। वहीं सलीम की बेटी आमना (गीता सिद्धार्थ) छोटी-छोटी खुशियों और उम्मीदों के बीच जी रही है। पाकिस्तान के बनने से किस तरह मुसलिम परिवारों की शादियों और रिश्तों में दिक्कतें आने लगीं यह भी बखूबी दिखाया गया है। हालिम मिर्ज़ा के बेटे काजिम (जमाल हाशमी) से आमना के रिश्ते की बात चल रही है मगर सलीम मिर्जा के भाई हालिम पाकिस्तान चले जाते हैं। वे उसकी शादी भी कहीं और करना चाहते हैं। आमना की फूफी का बेटा शमशाद (जलाल आग़ा) आमना के चाहता है मगर आमना उसे पसंद नहीं करती। काजिम भागकर आता भी है तो पुलिस उसे गिरफ्तार करके पाकिस्तान भेज देती है। धीरे-धीरे आमना का रुख शमशाद के प्रति नरम होने लगता है। दोनों जिस्मानी तौर पर भी करीब आ जाते हैं मगर एक दिन पता चलता है कि शमशाद का रिश्ता कहीं और तय हो गया है। आमना कलाई की नसें काटकर आत्महत्या कर लेती है।
यहां पर फिल्म अपनी त्रासदी के चरम पर पहुंच जाती है। आमना की मौत बताती है कि किस तरह से इतिहास के त्रासदी अंधेरों में ऐसे तमाम निर्दोष और मासूम लोग खो जाते हैं, जिनका सीधा वास्ता न तो धार्मिक बहसों से होता है और न ही राजनीति से। वे सिर्फ सामान्य जीवन और प्रेम तलाश रहे होते हैं। आमना की खुदकुशी का दृश्य जिस तरह फिल्माया गया है वह न सिर्फ स्तब्ध कर देता है बल्कि फिल्म खत्म होने के बाद भी लंबे समय तक जेहन में मौजूद रहता है। इस पूरे सीक्वेंस के दौरान बैकग्राउंड में वारसी ब्रदर्स की कव्वाली का इस्तेमाल किया गया है। यह कव्वाली सिचुएशन की विडंबना और उसके कंट्रास्ट को और गहरा कर देती है। अजीज अहमद खान वारसी की आवाज में कव्वाली के बोल भी इसी कंट्रास्ट को रच रहे हैं, ''भटके हुए मुसाफिर / मंजिल पर पहुंचे आखिर / उजड़े हुए चमन में / बेरंग पैरहन में / सौ रंग मुस्कुराए / सौ फूल लहलहाए’’। हम आमना के फ्लैश बैक में पानी हिलती हुई ताज की परछाईं और आमना और शमशाद की नज़दीकियां देखते हैं। बोल जारी हैं, ''आई नई बहारें / पडऩे लगी फुहारें / घूंघट की लाज रखना / इस सर पे ताज रखना / इस सर पे ताज रखना’’। आमना अपनी कलाई ब्लेड से काट देती है और खून की एक लकीर चादर को भिगोती हुई नीचे की तरफ बहती रहती है।
सलीम मिर्ज़ा की बेटी आमना और बेटा सिकंदर (फारुख़ शेख) इस फिल्म में उम्मीदों का चेहरा बनकर आते हैं। आमना बिखराव की इस प्रक्रिया में टूट जाती है। वहीं बेरोजगारी के बावजूद सिकंदर को अपनी एजुकेशन और देश के मुस्तक़बिल पर भरोसा है। वह इंटरव्यू देने जाता है तो अफसर कहता है, ''मिस्टर मिरजा... कीप माई एडवाइज़... यू आर वेस्टिंग योर टाइम इन दिस कंट्री, आप पाकिस्तान क्यों नहीं चले जाते? वहां आप लोगों के लिए आसान रहेगा।’’ वह चाय की दुकान पर अपने हिंदु, मुसलिम और सिख दोस्तों के साथ इकठ्ठा होता है तो उनकी चिंताओं में भारत-पाकिस्तान नहीं बल्कि रोजगार होता है। देश से बाहर जाने की चर्चा होती है तो एक नौजवान सिकंदर को जवाब देता है, ''सब जाते हैं यार! लेकिन जाएँ क्यों? हमे तो सारी नौकरी यहीं मिलनी चाहिए... यहीं चाहिए।’’
बहुत छोटे से रोल के बावजूद सिकंदर मिर्ज़ा इस फिल्म का दूसरा अहम किरदार है। गौरी मिश्रा अपने शोध में सलीम और उनके बेटे के किरदारों का विश्लेषण करते हुए कहती हैं, ''दो पात्र सलीम मिजऱ्ा और उसका बेटा सिकंदर फिल्म के कथ्य पर हावी हैं। पूरी फिल्म में सलीम मिर्ज़ा का नैरेटिव अतीत की ओर उन्मुख है। यह नए बदलावों को स्वीकार करने से इनकार करने, कारोबारी मामलों में परंपरागत तौर तरीकों और पुरानी जान-पहचान पर भरोसा रखने तथा समस्याओं से जूझते हुए लगातार ख़ुदा पर उनके भरोसे में परिलक्षित होता है। वहीं सिकंदर का नैरेटिव भविष्य की ओर उन्मुख है क्योंकि वह ग्रेजुएशन के बाद नौकरी की तलाश में है।’’ (7) गौरी फिल्म के दृश्यों की तरफ ध्यान आकृष्ट करती हैं, जिन्हें निर्देशक ने एक ही अंदाज में फिल्माया है। पहले दृश्य में सलीम मिर्ज़ा बैंक प्रबंधक के पास जाते हैं, जो उन्हें लोन देने से मना कर देता है, जबकि वह सलीम को अच्छी तरह से जानता है। दूसरे दृश्य में सिकंदर को एक साक्षात्कार के दौरान बताया जाता है कि जिस पद के लिए वह इंटरव्यू देने आया है वह पहले से ही भरा हुआ है। दोनों दृश्यों में बैंक मैनेजर और इंटरव्यू लेने वाले अफसर का चेहरा नहीं देखते। वे ऑफस्क्रीन हैं। गौरी लिखती हैं, ''ये दृश्य दर्शकों को उस वास्तविकता की ओर ले जाते हैं कि पुराना और नया, दोनों ही विघटना के कगार पर है। सिकंदर के जुलूस में शामिल होने की वजह उम्मीद है और सलीम मिर्ज़ा के लिए इस बात का एहसास कि वह अकेला नहीं है। यहां से फिल्म के नैरेटिव में एक मोड़ आता है और यह अतीत और भविष्य के बीच एक पुल बनाता है।’’ (8)
फिल्म में तांगेवाला एक सूत्रधार की भूमिका निभाता है। पहले दृश्य में ही वह सलीम मिर्ज़ा से पूछता है, ''आज किसे छोड़ आए मियां?’’ सलीम मिर्ज़ा बताते हैं, ''बड़ी बहन को’’ और एक ठंडी सांस लेते हुए कहते हैं, ''कैसे हरे-भरे दरख़्त कट रहे हैं इस हवा में...’’ जब सलीम बेटे बाकर को स्टेशन छोड़कर आते हैं तो तांगेवाला फिर वही सवाल पूछता है। सलीम बताते हैं, ''बाकर मिर्ज़ा को...’’ तांगेवाला कहता है, ''वाह मियां वाह, बड़ी हिम्मत है। जिगर के टुकड़ों को एक-एक करके छोड़ आए और खुद (हंसी) यहां डटे हो...’’ फिल्म के अंत में जब सलीम मिर्ज़ा खुद अपनी बेगम और बेटे के साथ रवाना होते हैं तो तांगेवाला कहता है, ''सच्ची कहूं मियां, घर वाले थोड़ी अरबी-फ़ारसी पढ़ा देते तो बोल ही देता... मेरा मन पहले ही कहता था कि आप जाओगे जरूर...’’ वहीं पर बेरोजगारी के खिलाफ निकल रहे जुलूस की वजह से उनका रास्ता रुक जाता है। सिकंदर के दोस्त उस जुलूस में हैं। सिकंदर भी शामिल होना चाहते हैं और सलीम मिर्जा कहते हैं, ''जा बेटे, अब मैं तुम्हें नहीं रोकुंगा... इंसान कब तक अकेला जी सकता है।’’ यही वक्त होता है जब सलीम मिर्ज़ा को भी फैसला करना है। सिकंदर की मुट्ठी हवा में लहरा रही है और वह पूरे जोश के साथ 'इनकलाब जिंदाबाद’ के नारे लगा रहा है। सलीम मिर्ज़ा भी तांगे से कूद पड़ते हैं। घर की चाभियां थमाते हुए कहते हैं, ''ज़मीला मैं भी अकेली जिंदगी की घुटन से तंग आ गया हूँ।’’ देखते-देखते सलीम मिर्जा भीड़ में खो जाते हैं।
हम कैफ़ी आज़मी की आवाज़ में वायस ओवर सुनते हैं, ''धारे में जो मिल जाओगे बन जाओगे धारा / ये वक़्त का ऐलान वहां भी है यहां भी।’’
'गर्म हवा’ फैसले की फिल्म तो है ही, यह पक्षधरता की फिल्म भी है। यह फिल्म पहली बार हिन्दी सिनेमा में मुसलमानों के स्टीरियोटाइप तोड़ती है और उनके समाज के भीतर चलने वाले घात-प्रतिघात और टूटन को बयान करती है। साथ ही यह भी बताती है कि अपनी कौम का वतन समझे जाने के बावजूद वहां पर रिफ्यूजी और खुद की जमीन पर अजनबी समझे जाने और संदेह के दायरे में आने की तमाम विडंबनाओं के बावजूद बड़ी संख्या में मुसलमानों ने देश की मुख्यधारा में शामिल होना चुना। उन्होंने मजहबी आधार पर गढ़े गए देशों की अवधारणा को मानने से इनकार कर दिया और एक ऐसी प्रजातांत्रिक व्यवस्था में आस्था दिखाई जहां वे अपनी ज़रूरतों और अपने हक के लिए आवाज उठा सकें।
संदर्भ
1.      एमएस सथ्यु एंड शमा ज़ैदी इन कन्वर्सेशन विद तीस्ता शीतलवाड़, Hillele TV, यूट्यूब
2.      सिनेमा और साहित्य: नाजी यातना शिविरों की त्रासद गाथा, विजय शर्मा, वाणी प्रकाशन नई दिल्ली
3.      (वही) सिनेमा और साहित्य: नाजी यातना शिविरों की त्रासद गाथा, विजय शर्मा, वाणी प्रकाशन नई दिल्ली
4.      बॉडी पॉलीटिक: वीमन इन द सिनेमा ऑफ पार्टीशन, फरयाल अली गौहर, हेराल्ड
5.      विभाजन: भारत और पाकिस्तान का उदय, पृ.180, यास्मीन ख़ान, पेंग्विन बुक्स
6.      एज़ाज़ अशरफ़ के साथ आशीष नंदी की बातचीत, कारवां पत्रिका,  16 जून 2019
7.      जेंडर एंड नेशनलिज़्म: अ स्टडी ऑफ पार्टीशन फिक्शन एंड सिनेमा, गौरी मिश्रा
8.      (वही) जेंडर एंड नेशनलिज़्म: अ स्टडी ऑफ पार्टीशन फिक्शन एंड सिनेमा, गौरी मिश्रा

--दिनेश श्रीनेत
पहल पत्रिका से साभार

ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा - दुष्यंत कुमार

ये सारा जिस्म झुक कर - दुष्यंत कुमार

ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा
मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा

यहाँ तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियाँ
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा

ग़ज़ब ये है कि अपनी मौत की आहट नहीं सुनते
वो सब के सब परीशाँ हैं वहाँ पर क्या हुआ होगा

तुम्हारे शहर में ये शोर सुन-सुन कर तो लगता है
कि इंसानों के जंगल में कोई हाँका हुआ होगा

कई फाकें [1 ], बिता कर मर गया जो उसके बारे में
वो सब कहते हैं अब ऐसा नहीं ऐसा हुआ होगा

यहाँ तो सिर्फ़ गूँगे और बहरे लोग बसते हैं
ख़ुदा जाने वहाँ पर किस तरह जलसा [2] , हुआ होगा

चलो अब यादगारों की अँधेरी कोठरी खोलें
कम-अज-कम एक वो चेहरा तो पहचाना हुआ होगा

[ 1. भोजन न मिलने पर भूखे रहने की स्थिति
 2. उत्सव ]





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जाग तुझको दूर जाना - महादेवी वर्मा

जाग तुझको दूर जाना - महादेवी वर्मा 

चिर सजग आँखें उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना!
जाग तुझको दूर जाना!

अचल हिमगिरि के हॄदय में आज चाहे कम्प हो ले!
या प्रलय के आँसुओं में मौन अलसित व्योम रो ले,
आज पी आलोक को ड़ोले तिमिर की घोर छाया
जाग या विद्युत शिखाओं में निठुर तूफान बोले!
पर तुझे है नाश पथ पर चिन्ह अपने छोड़ आना!
जाग तुझको दूर जाना!

बाँध लेंगे क्या तुझे यह मोम के बंधन सजीले?
पंथ की बाधा बनेंगे तितलियों के पर रंगीलेघ?
विश्व का क्रंदन भुला देगी मधुप की मधुर गुनगुन,
क्या डुबो देंगे तुझे यह फूल दे दल ओस गीले ?
तू न अपनी छाँह को अपने लिये कारा बनाना!
जाग तुझको दूर जाना!

वज्र का उर एक छोटे अश्रु कण में धो गलाया,
दे किसे जीवन.सुधा दो घँट मदिरा माँग लाया!
सो गई आँधी मलय की बात का उपधान ले क्या ?
विश्व का अभिशाप क्या अब नींद बनकर पास आया ?
अमरता सुत चाहता क्यों मृत्यु को उर में बसाना ?
जाग तुझको दूर जाना!

कह न ठंढी साँस में अब भूल वह जलती कहानी,
आग हो उर में तभी दृग में सजेगा आज पानी,
हार भी तेरी बनेगी माननी जय की पताका,
राख क्षणिक पतंग की है अमर दीपक की निशानी!
है तुझे अंगार.शय्या पर मृदुल कलियां बिछाना!
जाग तुझको दूर जाना!




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व्यंग्य क्या है ?


व्यंग्य क्या है -
 
व्यंग्य साहित्य की एक विधा है जिसमें जीवन व समाज की विसंगतियों, खोखलेपन और पाखंड की आलोचना सीधे-सीधे न कर रचनात्मक तरीके से की जाती है और साथ ही साथ पाठक पर प्रहार करके उसे सोचने के लिए मजबूर करती है। 

व्यंग्य को रोचक बनाने के लिए व्यंग्यकार उसमें हास्य डालता है लेकिन यह ध्यान रखता है की उसकी रचना केवल हास्य के लिए न हो बल्कि उसमें आक्रामकता रहे और वह विसंगतियों की पूर्ण रूप  से आलोचना करें। जो व्यंग्य  निरुदेश्य हास्य के लिए बनाया गया हो , वह बेकार है।  

व्यंग्य में मारक क्षमता बहुत अधिक होती है। इसका इस्तेमाल कविता,उपन्यास, नाटक, चित्र, हर कला और हर जगह में किया जा सकता है।  

व्यंग्यकार का तर्कशील व वैज्ञानिक होना बेहद जरूरी है। हर एक नीति  या घटना का सही मूल्यांकन नहीं करने से वह विसंगतियों को ठीक करने की बजाय बिलकुल उल्टा कार्य करेगा।       


व्यंग्य का इतिहास -

मध्यकाल की सामाजिक विसंगतियों पर कबीर ने व्यंग्यपूर्ण शैली में प्रहार किया है। जाति-भेद,  हिंदू-मुस्लमानों के धर्माडंबर, गरीबी-अमीरी, रूढ़िवादिता आदि पर कबीर के व्यंग्य बड़े मारक हैं। उदहारण के लिए -

"कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लई चुनाय। ता चढ़ि मुल्ला बांगि दे क्या बहरा हुआ खुदाय"

कबीर ने किसी एक समुदाय पर ही व्यंग्य नहीं रचे, हिन्दुओं की मूर्तिपूजा एवं उनके अन्धविश्वासों पर व्यंग्य करते हुए उन्होनें लिखा - 

"पाथर पूजै हरि मिलै तो मैं पुजूँ पहाड़"     
   
युगीन समस्याओं पर व्यंग्य करने की प्रवृत्ति प्रेमचंद में भी बहुत मिलती है। इन्होंने अपनी कहानियों और उपन्यासों में आम आदमी और कृषक वर्ग की दैनंदिन कठिनाइयों पर करारा व्यंग्य किया है। प्रेमचंद के बाद के रचनाकारों में निराला साहित्य में इसे देखा जा सकता है।

निराला की तरह नागार्जुन ने भी व्यंग्य को शैली के रूप में इस्तेमाल किया है। मुक्तिबोध, धूमिल, दुष्यंत कुमार आदि के यहाँ आते-आते व्यंग्य अन्याय के खिलाफ संघर्ष करने का कारगर हथियार बन जाता है। धूमिल की "संसद से सड़क तक" की कविताएँ, मुक्तिबोध की 'काव्यकृति चाँद का मुँह टेढ़ा है' की कविता "अँधेरे में" एवं दुष्यंत कुमार की गज़लों में व्यंग्य एक विधा बनने के साथ-साथ विरोध जताने का एक असरदार माध्यम भी बन जाता है।

गुलाम भारत में होने वाला शोषण - अत्याचार आजादी के बाद कम होने के बजाय और अधिक बढ़ गया। व्यक्ति निजी स्वार्थ तक सीमित होकर रह गया है। ये विसंगतियाँ और जटिलताएँ व्यंग्य के लिए आधारभूमि बनीं।  स्वातंत्रयोत्तर हिन्दी साहित्य में व्यंग्य का पर्याप्त सृजन हुआ है। हिन्दी में हरिशंकर परसाई इस विधा के प्रमुख हस्ताक्षर हैं।


व्यंग्य का भविष्य -

वास्तव में जब तक समाज देश और राजनीति में भ्रष्टाचार, विसंगतियॉं, मूल्यहीनता एवं विद्रूपताएँ विद्यमान रहेंगी इन पर चोट एवं इनका विरोध व्यंग्य द्वारा ही कारगर रूप से हो सकेगा। क्योंकि व्यंग्य जो गलत है उस पर तल्ख चोट तो करता ही है साथ में जो सही होना चाहिए उस की ओर इशारा भी करता है।  





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