हरिशंकर परसाई (22 अगस्त 1924 - 10 अगस्त 1995)
"कैसी अद्भुत एकता है। पंजाब का गेहूँ गुजरात के काला बाजार में बिकता है और मध्यप्रदेश का चावल कलकत्ता के मुनाफाखोर के गोदाम में भरा है। देश एक है। कानपुर का ठग मदुरई में ठगी करता है, हिन्दी भाषी जेबकतरा तमिलभाषी की जेब काटता है और रामेश्वरम का भक्त बद्रीनाथ का सोना चुराने चल पडा है। सब सीमायें टूट गयीं।"
इस तरह का व्यंग हरिशंकर परसाई ही लिख सकते हैं। ये हिंदी के पहले रचनाकार हैं जिन्होंने व्यंग्य को विधा का दर्जा दिलाया और उसे हल्के - फुल्के मनोरंजन की परंपरागत परिधि से उबारकर समाज के व्यापक प्रश्नों से जोड़ा। उनकी व्यंग्य रचनाएँ हमारे मन में गुदगुदी ही पैदा नहीं करतीं बल्कि हमें उन सामाजिक वास्तविकताओं के आमने-सामने खड़ा करती है जिनसे किसी भी व्यक्ति का अलग रह पाना लगभग असंभव है। लगातार खोखली होती जा रही समाज की सच्चाइयों को उन्होंने बहुत ही निकटता से पकड़ा। उन्होंने सदैव विवेक और विज्ञानसम्मत दृष्टि से समाज को देखा और उसका आलोचनात्मक रूप प्रस्तुत करते रहे।
सामाजिक पाखंड और रूढ़िवादी मूल्यमान्यताओ पर उनकी कलम खूब चली हैं। उनकी लेखनशैली साधारण और बहुत ही रोचक है जिससे पाठक यह महसूस करता है कि लेखक उसके सामने ही बैठा है। इसकी एक मिशाल "ठिठुरता हुआ गणतंत्र" की रचना परसाई जी ने ही की है।
व्यंग्य ही नही कहानी, उपन्यास एवं निबन्ध के माध्यम से भारतीय समाज के विरोधाभास पर खूब लिखा जो आज भी प्रासंगिक है। उन्होंने अपने व्यंगो के द्वारा बार-बार पाठको का ध्यान समाज की विसंगतियो की ओर आकृष्ट किया। उन्होंने भ्रष्टाचार एवं शोषण पर करारा व्यंग करते हुये लिखा -
"सरकार कहती है कि हमने चूहे पकड़ने के लिए चूहेदानियाँ रखी हैं। एक-आध चूहेदानी की हमने भी जाँच की। उसमें घुसने के छेद से बड़ा छेद पीछे से निकलने के लिए है। चूहा इधर फँसता है और उधर से निकल जाता है। पिंजडे बनाने वाले और चूहे पकड़ने वाले चूहों से मिले हैं। वे इधर हमें पिंजडा दिखाते हैं और चूहे को छेद दिखा देते हैं। हमारे माथे पर सिर्फ चूहेदानी का खर्च चढ़ रहा है।"
उनका मानना था कि सामाजिक अनुभव के बिना सच्चा और वास्तविक साहित्य लिखा ही नही जा सकता।उन्ही के शब्दो मे,
"स्वास्थ्य मंत्री कहता है-
"डॉक्टरों को निःस्वार्थ भाव से सेवा
करनी चाहिए।’’
हम हँसने लगते हैं ।
शिक्षा मंत्री कहता है -
‘‘ शिक्षा का उद्देश्य नौकरी नहीं,
चरित्र निर्माण है ।’’
हम हँसने लगते हैं।
कोई मंत्री कहता है--
‘‘शासकीय कर्मचारियों को जनता की
सेवा करनी चाहिए।’’
हम हँसने लगते हैं।
कितनी कड़ी और लगातार मेहनत की
है इन लोगों ने हर आदर्श को मजाक
बना देने के लिए।"
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