फिल्म समीक्षा - पान सिंह तोमर
पान सिंह तोमर -‘‘हमरो जवाब पूरो ना भयो’’

तिग्मांशु धूलिया की फिल्म पान सिंह तोमर , स्टीपल चेज (बाधा दौड़) में सात बार राष्ट्रीय चैम्पियन रहे एक फौजी के जीवन पर आधारित है जिसे हालात ने चम्बल का बागी बना दिया था। (स्टीपल चेज एक बहुत ही कठिन और थकाउ खेल है जिसमें 3000 मीटर की दौड़ करते हुए 28 बाधाएँ और 8 पानी के गड्ढे पार करने होते हैं।)
तिग्मांशु धूलिया ने शेखर कपूर की फिल्म बैंडिट क्वीन में सह निर्देशन करते हुए जो तजुर्बा हासिल किया, उसका भरपूर इस्तेमाल किया और इसको एक उत्कृष्ट फिल्म का रूप दिया ।
चम्बल के बागियों पर अब तक न जाने कितनी मसालेदार हिन्दी फिल्में बनी लेकिन यह फिल्म उन सामाजिक परिस्थितियों पर रोशनी डालती है, जिनमें एक प्रतिभाशाली खिलाड़ी और अनुशासित फौजी को बागी बनने पर मजबूर कर दिया जाता है।
इरफान ने पान सिंह के व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं - फौजी, धावक, पति, बागी और पिता के चरित्र को भरपूर जिया है। उनके कुशल और सशक्त अभिनय का ही कमाल है कि पान सिंह की जीवन झाँकी हमें एक ही साथ तनावग्रस्त करती है, प्रफुल्लित करती है, बेचैन करती है और उत्साहित भी करती है।पत्राकार की भूमिका में विजेन्द्र काला और पान सिंह की पत्नी की भूमिका में माही गिल का अभिनय भी काफी सहज-स्वाभाविक है।
इस फिल्म में पान सिंह की जीवन झाँकी के माध्यम से बीहड़ के ग्रामीण अंचल की ही नहीं, बल्कि आजादी के बाद निर्मित समूचे भारतीय समाज की व्यथा-कथा कही गयी है।
फिल्म का खलनायक 'दद्दा' पान सिंह का चचेरा भाई है जो उसकी जमीन हड़प लेता है और उसके
परिवार का गाँव में रहना दूभर कर देता है। गाँव लौटने के बाद अपने विरोधियों का अत्याचार सहते हुए और बार-बार अपने करीबी लोगों के उकसाने पर भी सिंह बन्दूक उठाने को तैयार नहीं होता। वह कमिश्नर के जरिये पंचायत में जमीन का विवाद सुलझाने की कोशिश करता है, लेकिन न्याय दिलाने के बजाय कमिश्नर उसे अपने हाल पर छोड़ देता है। विरोधियों की मार-पिटाई से बेटे के बुरी तरह लहूलुहान हो जाने पर वह पुलिस से फरियाद करता है। यह बताने के बावजूद कि वह राष्ट्रीय खिलाड़ी और फौजी रहा है, थानेदार उसके मामले को गम्भीरता से नहीं लेता, उसका मजाक उड़ाता है और कहता है कि -
‘तुम्हारे बेटे की सांस तो चल रही है, मरा तो नहीं।
मुरैना पुलिस की इज्जत है। बिना दो-चार गिरे हम कहीं नहीं जाते।’
उधर दद्दा का परिवार उसके घर पर हमला करके उसकी बूढ़ी माँ को पीट-पीट कर मार डालता है। उसका परिवार गाँव छोड़ने पर मजबूर होता है। पान सिंह का न्याय से विश्वास उठ जाता है वह बंदूक उठा कर बीहड़ों की राह लेता है।
इस फिल्म की तारीफ तो सिर्फ इसी बात के लिए की जा सकती है कि मौजूदा दौर में, जहाँ क्रिकेट खेल का इतना वर्चस्व हो, और बाकी तमाम खेलों के राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय खिलाड़ियों की कोई पूछ न हो, वहाँ पान सिंह तोमर जैसे भूले-बिसरे धावक की कहानी को फिल्म का विषय बनाया गया। फिल्म के अन्त में ऐसे ही चार अन्य खिलाड़ियों को भी याद किया गया है जो राष्ट्रीय चैम्पियन होने के बावजूद कंगाली-बदहाली की हालत में इलाज के बिना गुमनाम मौत मरे और यहाँ तक कि अपना स्वर्ण पदक बेचने पर भी मजबूर हुए।
फिल्म के एक मार्मिम दृश्य में पान सिंह दद्दा को दौड़ाकर जमीन पर गिरा देता है और वह उसके आगे अपनी जान की भीख माँगते हुए गिड़गिड़ाता है। वह बड़ी ही आत्मीयता, तकलीफ और क्षोभ के साथ उससे यह सवाल पूछता है कि -
‘हम तो एथलीट हते, धावक, इन्टरनेशनल।
अरे हमसे ऐसी का गलती है गयी, का गलती है गयी
की तैने हमसे हमारो खेल को मैदान छीन लेयो।
और ते लोगों ने हमारे हाथ में जे बन्दूक पकड़ा दी।
अब हम भाग रए चम्बल के बीहड़ में।
जा बात को जवाब कौन दैगो,
जा बात को जवाब कौन दैगो?'
पान सिंह तोमर -‘‘हमरो जवाब पूरो ना भयो’’

तिग्मांशु धूलिया की फिल्म पान सिंह तोमर , स्टीपल चेज (बाधा दौड़) में सात बार राष्ट्रीय चैम्पियन रहे एक फौजी के जीवन पर आधारित है जिसे हालात ने चम्बल का बागी बना दिया था। (स्टीपल चेज एक बहुत ही कठिन और थकाउ खेल है जिसमें 3000 मीटर की दौड़ करते हुए 28 बाधाएँ और 8 पानी के गड्ढे पार करने होते हैं।)
तिग्मांशु धूलिया ने शेखर कपूर की फिल्म बैंडिट क्वीन में सह निर्देशन करते हुए जो तजुर्बा हासिल किया, उसका भरपूर इस्तेमाल किया और इसको एक उत्कृष्ट फिल्म का रूप दिया ।
चम्बल के बागियों पर अब तक न जाने कितनी मसालेदार हिन्दी फिल्में बनी लेकिन यह फिल्म उन सामाजिक परिस्थितियों पर रोशनी डालती है, जिनमें एक प्रतिभाशाली खिलाड़ी और अनुशासित फौजी को बागी बनने पर मजबूर कर दिया जाता है।
इरफान ने पान सिंह के व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं - फौजी, धावक, पति, बागी और पिता के चरित्र को भरपूर जिया है। उनके कुशल और सशक्त अभिनय का ही कमाल है कि पान सिंह की जीवन झाँकी हमें एक ही साथ तनावग्रस्त करती है, प्रफुल्लित करती है, बेचैन करती है और उत्साहित भी करती है।पत्राकार की भूमिका में विजेन्द्र काला और पान सिंह की पत्नी की भूमिका में माही गिल का अभिनय भी काफी सहज-स्वाभाविक है।
इस फिल्म में पान सिंह की जीवन झाँकी के माध्यम से बीहड़ के ग्रामीण अंचल की ही नहीं, बल्कि आजादी के बाद निर्मित समूचे भारतीय समाज की व्यथा-कथा कही गयी है।
फिल्म का खलनायक 'दद्दा' पान सिंह का चचेरा भाई है जो उसकी जमीन हड़प लेता है और उसके
परिवार का गाँव में रहना दूभर कर देता है। गाँव लौटने के बाद अपने विरोधियों का अत्याचार सहते हुए और बार-बार अपने करीबी लोगों के उकसाने पर भी सिंह बन्दूक उठाने को तैयार नहीं होता। वह कमिश्नर के जरिये पंचायत में जमीन का विवाद सुलझाने की कोशिश करता है, लेकिन न्याय दिलाने के बजाय कमिश्नर उसे अपने हाल पर छोड़ देता है। विरोधियों की मार-पिटाई से बेटे के बुरी तरह लहूलुहान हो जाने पर वह पुलिस से फरियाद करता है। यह बताने के बावजूद कि वह राष्ट्रीय खिलाड़ी और फौजी रहा है, थानेदार उसके मामले को गम्भीरता से नहीं लेता, उसका मजाक उड़ाता है और कहता है कि -
‘तुम्हारे बेटे की सांस तो चल रही है, मरा तो नहीं।
मुरैना पुलिस की इज्जत है। बिना दो-चार गिरे हम कहीं नहीं जाते।’
उधर दद्दा का परिवार उसके घर पर हमला करके उसकी बूढ़ी माँ को पीट-पीट कर मार डालता है। उसका परिवार गाँव छोड़ने पर मजबूर होता है। पान सिंह का न्याय से विश्वास उठ जाता है वह बंदूक उठा कर बीहड़ों की राह लेता है।
इस फिल्म की तारीफ तो सिर्फ इसी बात के लिए की जा सकती है कि मौजूदा दौर में, जहाँ क्रिकेट खेल का इतना वर्चस्व हो, और बाकी तमाम खेलों के राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय खिलाड़ियों की कोई पूछ न हो, वहाँ पान सिंह तोमर जैसे भूले-बिसरे धावक की कहानी को फिल्म का विषय बनाया गया। फिल्म के अन्त में ऐसे ही चार अन्य खिलाड़ियों को भी याद किया गया है जो राष्ट्रीय चैम्पियन होने के बावजूद कंगाली-बदहाली की हालत में इलाज के बिना गुमनाम मौत मरे और यहाँ तक कि अपना स्वर्ण पदक बेचने पर भी मजबूर हुए।
फिल्म के एक मार्मिम दृश्य में पान सिंह दद्दा को दौड़ाकर जमीन पर गिरा देता है और वह उसके आगे अपनी जान की भीख माँगते हुए गिड़गिड़ाता है। वह बड़ी ही आत्मीयता, तकलीफ और क्षोभ के साथ उससे यह सवाल पूछता है कि -
‘हम तो एथलीट हते, धावक, इन्टरनेशनल।
अरे हमसे ऐसी का गलती है गयी, का गलती है गयी
की तैने हमसे हमारो खेल को मैदान छीन लेयो।
और ते लोगों ने हमारे हाथ में जे बन्दूक पकड़ा दी।
अब हम भाग रए चम्बल के बीहड़ में।
जा बात को जवाब कौन दैगो,
जा बात को जवाब कौन दैगो?'
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