नाज़िम हिकमत ( 15 जनवरी 1902 - 3 जून 1963 )

"तुम बेचते हो अपनी आँखों का शुऊरए अपने हाथों की दृष्टि
तुम बनाते हो लोइयाँ दुनिया भर की चीज़ों की
बिना एक कौर चखे
अपनी महान आज़ादी के साथ तुम खट्टे हो गैरों के लिए
जो तुम्हारी अम्मा को कलपाते रुलाते हैंए उन्हें
धन्नासेठ बनाने की आज़ादी के साथ
तुम स्वतंत्र हो "
नाज़िम हिकमत का जन्म यूनान के सै लनिका शहर में हुआ। वह प्रसिद्ध तुर्की कवि, नाटककार, उपन्यासकार और याद.संस्मरण लेखक थे।
घर में होने वालीं महफिलों के चलते उनकी रूचि कविताओं की तरफ बढ़ी। इस्तांबुल शहर में उन्होंने पढ़ाई पूरी करी, साथ-साथ कविताये लिखीं और आन्दोलनों में हिस्सा लिया। उन की कविता में एक ख़ास रवानगी महसूस होती है।
किताबों, नाटकों, गीतों, में अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाने की वजह से उन्हें अपनी ज़िन्दगी के 18 साल जेल में काटने पड़े और 13 सालों तक वे एक से दूसरे देश निर्वासन में भटकते रहना पड़ा। जेल में भी वे कैदियों के साथ बात करते, कड़ाई और बुनाई का काम एक दूसरे को सीखते-सिखाते। हिकमत को विश्वास था की जेल के बाहर ये एक नई ज़िन्दगी शुरू कर सकेंगे। कैद में उनकी इब्राहिम बलबान नाम के युवा से मुलाकात हुई , हो की चित्र बनाने में अच्छा था। नाज़िम ने उसे प्रेरित किया की वे चित्र बनाता रहे और उनमें गहरी दोस्ती हो गई। कैद के बाहर आने पर भी निज़ाम ने उससे मिलना ज़ारी रखा और इब्राहिम एक नामी चित्रकार भी बना।
हिकमत की विषय-वस्तु का फलक बहुत ही व्यापक है तुर्की के आटोमन साम्राज्य के खिलाफ पंद्रहवीं सदी के ग्रामीणों के विद्रोह से लेकर तुर्की के स्वतंत्रता सग्राम के बारे में महाकाव्य तक, बर्बर तानाशाही की भर्त्स्ना से लेकर द्वितीय विश्वयुद्ध में परमाणु बमों के इस्तेमाल के प्रभाव तक और जेल में एकांत कारावास पर शोकगीत से लेकर प्रेम के उत्सव तक। हिकमत हमेशा ही ग्रामीणों, मजदूरों, आम आदमी और शोषितों के साथ खड़े रहे और उनके साथ एकजुटता बनाये रहे। तानाशाही, युद्ध और धार्मिक रूढ़िवाद के प्रति विरोध से शुरू करते हुए, अपने महबूब देश में गणतंत्रा के सुदृढीकरण से होते हुए, वर्तमान समय तक की यात्रा के विषय में, हिकमत एक भविष्यदृष्टा थे।
बजाय इसके की उनकी किताबों को गैर - कानूनी घोषित करा गया, उनके चाहने वालों में किताबें छुपकर पढ़ी जाती रहीं। अगर किसी के पास वो मिलती तो उसे गिरफ्तार कर लिया जाता। उनके कई कामों को तो नष्ट कर दिया गया।
हिकमत ने जेल में भूख हरताल भी की ,जिसका देश-दुनिया के लोगों ने समर्थन किया और वे कैद से रिहा हो सके, लेकिन बाहर आने के बाद भी उनपर सख्त पहरा रखा गया। चंद लोगों के मुनाफे के लिए विश्व-स्तर के विनाशकारी युद्धों का होना और उसमें आम जनता की ज़िन्दगी का तबह हो जाना, उन्हें हरगिज़ गवारा न था। निजाम, अल्बर्ट आइंस्टीन, पाब्लो नेरुदा जैसे लोगों ने अपने-अपने देशों में युद्ध और उसमें इस्तेमाल होने वाले घातक हतियारों का प्रबल विरोध किया।
बंगाली में सुभाष मुखोपाध्याय ने उनकी कविताओं का अनुवाद दो भागों में किया - 'निर्बाचिता नाज़िम हिक्मत' (1952) और 'नाज़िम हिकमत एर अरो कोबिता' (1974)
उन की रचना तुर्की के कुदरती नज़ारों, गाँवों, कस्बों और शहरों का सजीव चित्रण प्रकट करती है।
उस दौर ने फैज़ अहमद फैज़, पाब्लो नेरुदा , ब्रतोल्त ब्रेक्ट और हिकमत जैसे विश्व प्रसिद्ध जन - कलाकारों को जन्मा, जिन्हें दुनिया के हर कोने में पढ़ा गया। साहित्य जगत में इन सभी लेखकों को एक साथ रखकर देखा जाता है।
लम्बे अरसे से बीमार रहने के कारण 3 जून 1963 में हार्ट अटैक से उनकी मृत्यु हो गई। हिकमत हमेशा नौजवानों और संघर्ष में जुटे लोगों के लिए एक ऐसे प्रेरणा-स्त्रोत के रूप में याद रखें जायेंगे जिसने इतनी कठिनाइयों में भी जीवन से प्यार करना न छोड़ा और ताउम्र नाइंसाफी के खिलाफ संघर्ष किया।
"मैं और हमारे नुक्कड़ का वो दुकानदार
हम दोनों बेहद अज्ञात हैं अमरीका में
फिर भी
चीन से स्पेन, गुडहोप में अलास्का तक
सागर और धरती के हर कोने में है मेरे दोस्त
और दुश्मन
दोस्त ऐसे जो एक बार भी नहीं मिले
फिर भी हम मर सकते हैं साझा रोटी
साझा आज़ादी, साझा सपने के लिए
और शत्रु ऐसे जो प्यासे हैं मेरे खून के
मैं प्यासा हूँ उनके"
.....
No comments:
Post a Comment