नाटककार गिरीश कार्नाड (19 मई 1938 - 10 जून 2019)

एक कोंकणी भाषी परिवार में जन्में कार्नाड ने 1958 में धारवाड़ स्थित कर्नाटक विश्वविद्यालय से स्नातक उपाधि ली। इसके पश्चात वे एक रोड्स स्कॉलर के रूप में इंग्लैंड चले गए जहां उन्होंने ऑक्सफोर्ड के लिंकॉन तथा मॅगडेलन महाविद्यालयों से दर्शनशास्त्र, राजनीतिशास्त्र तथा अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की। बचपन से ही गिरीश ने नौटंकी और नाटक मंडलियों को देखा था और उस दौर का जाना - माना मराठी गायक व रंगमंचकर्मी 'बाल गन्धर्व' उसको पसंद था।
अपने समय की बाहरी-भीतरी परतों को उधेड़ने के लिए गिरीश कार्नाड इतिहास और लोक-मिथकों की ओर गये। सिर्फ 26 वर्ष की उम्र में जब उन्होंने ‘तुगलक’ की रचना की थी। इस नाटक का उद्देश्य सिर्फ यह बतलाना नहीं था कि 14 सदी के सुलतान मुहम्मद बिन तुगलक के विचार किस तरह असल जीवन में नाकारा साबित हुए, बल्कि एक ऐतिहासिक प्रसंग के जरिये अपने वक्त की आलोचना पेश करना था। इस तरह ‘तुगलक’ एक राजनीतिक नाटक के तौर पर प्रतिष्ठित हुआ जिसके हजारों प्रदर्शन अब तक हो चुके हैं।
कार्नाड के कई दूसरे नाटक भी बहुत चर्चित रहे जिनमें 'हयवदन’, ‘ययाति’, ‘नागमंडल’, ‘रक्त-कल्याण’, ‘अंजु मल्लिगे’, ‘अग्नि और बरखा’, ‘टीपू सुलतान के ख्वाब’, ‘राक्षस तांगड़ी’ और ‘बाली’ बहुत सफल हुए।
नाटकों के अलावा फिल्म-निर्देशन, अभिनय और पटकथा लेखन से भी कार्नाड का गहरा लगाव था। उर अनंतमूर्ति के प्रसिद्ध उपन्यास ‘संस्कार’ में उन्होंने प्रमुख पात्रा प्रानेशाचार्य की भूमिका निभाई। उनके द्वारा निर्देशित कई कन्नड़ फिल्मों - ‘काडु’, ‘वंशवृक्ष’ और ‘ओंदानोंदु कालदल्ली’ के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ निर्देशन के राष्ट्रीय पुरस्कार और ‘आनन्द भैरवी’’ के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनय के पुरस्कार मिले। कन्नड़, तमिल, तेलुगु, मराठी के अलावा बहुत सी हिन्दी फिल्मों में काम करने के कारण वे उत्तर भारतीय दर्शकों के बीच भी जाने-पहचाने थे। ‘मंथन’ और ‘निशांत ‘जैसी कलात्मक फिल्मों के बाद उन्होंने व्यावसायिक बम्बईया सिनेमा (‘एक था टाइगर’ और ‘टाइगर जिन्दा है’, आदि) में भी काम करने से कोई परहेज नहीं किया। और यह एक विडंबना ही है कि आम हिन्दी भाषी के बीच उनकी छवि महत्वपूर्ण नाटकों के लेखक की बजाय फिल्मी अभिनेता की ज्यादा रही।
वे जीवन भर धार्मिक कट्टरता, घृणा और साम्प्रदायिकता का प्रतिरोध करते रहे। बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद वे ऐसी ताकतों के खिलाफ और भी मुखर हो गये थे। जब कट्टर हिन्दूवादियों ने कन्नड़ वचन साहित्य के विद्वान एमएम कलबुर्गी और पत्राकार गौरी लंकेश की हत्या की तो वे इसके विरोध में सड़क पर उतरे।
चाहे रंगमंच रहा हो या असल दुनिया , गिरीश हमेशा अन्याय के खिलाफ संघर्ष में लोगों के कन्धे से कन्धा मिलाकर चलते रहे।
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