सूक्ष्म कथा: महामंत्री

सूक्ष्म कथा: महामंत्री


जब सारे गुरुओं ने मुझे गंडा बाँधने से मना कर दिया तो झक मारकर मुझे मेरे पिता जी ने आचार्य प्रवर के गुरुकुल में भेज दिया।

आखिर जीविका-आजीविका के लिए कोई योग्यता तो अर्जित करनी ही थी।

उनका गुरुकुल भीतर से अत्यन्त आलीशान और सर्व विलास सम्पन्न था यद्यपि बाहर से बेहद दरिद्र और तपस्वी दिखायी देता।

यहाँ तक कि हमारी कक्षाएँ खुले मैदान में जमीन में लगतीं।

पहले साल उन्होंने बकुल ध्यान और स्वांग के साथ थूककर चाटने की कला सिखायी।

दूसरे साल गिरगिट की तरह रंग बदलने और नीम को बबूल सिद्ध करने की कला में दक्ष  किया। 

तीसरे साल कड़े अभ्ययास से खाल को गैंडे से भी मोटा बनाने और रंगा सियार बनकर गुर्राने में प्रवीण किया।

चैथा साल नूरा कुश्ती और घड़ियाली आँसू के नाम रहे।

अगले साल कम्बल ओढ़कर घी पीने और साबुत मछली नहीं मगरमच्छ निगल जाने की विद्या में पारंगत  किया।

पंचम वर्षीय शिक्षा के अन्त में गुरु दक्षिणा स्वरूप बची-खुची अधमरी आत्मा को अपने चरणों में  डलवाकर आशिर्वाद दिया ...अब तुम राजनीति के लिए पूरी तरह तैयार हो। ‘सफल भव’। और देखिये आज मैं चन्द्र लोक का  महामंत्री  हूँ।
                                                                                   
 -हनुमंत शर्मा




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