व्यंग्य क्या है ?


व्यंग्य क्या है -
 
व्यंग्य साहित्य की एक विधा है जिसमें जीवन व समाज की विसंगतियों, खोखलेपन और पाखंड की आलोचना सीधे-सीधे न कर रचनात्मक तरीके से की जाती है और साथ ही साथ पाठक पर प्रहार करके उसे सोचने के लिए मजबूर करती है। 

व्यंग्य को रोचक बनाने के लिए व्यंग्यकार उसमें हास्य डालता है लेकिन यह ध्यान रखता है की उसकी रचना केवल हास्य के लिए न हो बल्कि उसमें आक्रामकता रहे और वह विसंगतियों की पूर्ण रूप  से आलोचना करें। जो व्यंग्य  निरुदेश्य हास्य के लिए बनाया गया हो , वह बेकार है।  

व्यंग्य में मारक क्षमता बहुत अधिक होती है। इसका इस्तेमाल कविता,उपन्यास, नाटक, चित्र, हर कला और हर जगह में किया जा सकता है।  

व्यंग्यकार का तर्कशील व वैज्ञानिक होना बेहद जरूरी है। हर एक नीति  या घटना का सही मूल्यांकन नहीं करने से वह विसंगतियों को ठीक करने की बजाय बिलकुल उल्टा कार्य करेगा।       


व्यंग्य का इतिहास -

मध्यकाल की सामाजिक विसंगतियों पर कबीर ने व्यंग्यपूर्ण शैली में प्रहार किया है। जाति-भेद,  हिंदू-मुस्लमानों के धर्माडंबर, गरीबी-अमीरी, रूढ़िवादिता आदि पर कबीर के व्यंग्य बड़े मारक हैं। उदहारण के लिए -

"कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लई चुनाय। ता चढ़ि मुल्ला बांगि दे क्या बहरा हुआ खुदाय"

कबीर ने किसी एक समुदाय पर ही व्यंग्य नहीं रचे, हिन्दुओं की मूर्तिपूजा एवं उनके अन्धविश्वासों पर व्यंग्य करते हुए उन्होनें लिखा - 

"पाथर पूजै हरि मिलै तो मैं पुजूँ पहाड़"     
   
युगीन समस्याओं पर व्यंग्य करने की प्रवृत्ति प्रेमचंद में भी बहुत मिलती है। इन्होंने अपनी कहानियों और उपन्यासों में आम आदमी और कृषक वर्ग की दैनंदिन कठिनाइयों पर करारा व्यंग्य किया है। प्रेमचंद के बाद के रचनाकारों में निराला साहित्य में इसे देखा जा सकता है।

निराला की तरह नागार्जुन ने भी व्यंग्य को शैली के रूप में इस्तेमाल किया है। मुक्तिबोध, धूमिल, दुष्यंत कुमार आदि के यहाँ आते-आते व्यंग्य अन्याय के खिलाफ संघर्ष करने का कारगर हथियार बन जाता है। धूमिल की "संसद से सड़क तक" की कविताएँ, मुक्तिबोध की 'काव्यकृति चाँद का मुँह टेढ़ा है' की कविता "अँधेरे में" एवं दुष्यंत कुमार की गज़लों में व्यंग्य एक विधा बनने के साथ-साथ विरोध जताने का एक असरदार माध्यम भी बन जाता है।

गुलाम भारत में होने वाला शोषण - अत्याचार आजादी के बाद कम होने के बजाय और अधिक बढ़ गया। व्यक्ति निजी स्वार्थ तक सीमित होकर रह गया है। ये विसंगतियाँ और जटिलताएँ व्यंग्य के लिए आधारभूमि बनीं।  स्वातंत्रयोत्तर हिन्दी साहित्य में व्यंग्य का पर्याप्त सृजन हुआ है। हिन्दी में हरिशंकर परसाई इस विधा के प्रमुख हस्ताक्षर हैं।


व्यंग्य का भविष्य -

वास्तव में जब तक समाज देश और राजनीति में भ्रष्टाचार, विसंगतियॉं, मूल्यहीनता एवं विद्रूपताएँ विद्यमान रहेंगी इन पर चोट एवं इनका विरोध व्यंग्य द्वारा ही कारगर रूप से हो सकेगा। क्योंकि व्यंग्य जो गलत है उस पर तल्ख चोट तो करता ही है साथ में जो सही होना चाहिए उस की ओर इशारा भी करता है।  





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