फिल्म पान सिंह तोमर- अंतर्वस्तु और रूप में एकता

तिग्मांशु धूलिया ने शेखर कपूर की फिल्म बैंडिट क्वीन में सह निर्देशन करते हुए जो तजुर्बा हासिल किया, उसका भरपूर इस्तेमाल किया और वह पान सिंह तोमर को एक उत्कृष्ट फिल्म बनाने में पूरी तरह कामयाब रहे। संजय चैहान ने पटकथा पर काफी मेहनत की है और तिग्मांशु के संवाद ने उसे एकदम जीवन्त बना दिया है।
चम्बल के बागियों पर अब तक न जाने कितनी मसालेदार हिन्दी फिल्में बनी, जिनमें कुछ तयशुदा कथासूत्र या फिल्मी फारमूले हुआ करते थे। उन फिल्मों की एक खासियत यह भी होती थी कि छद्म-व्यक्तित्व वाले या निर्वैयक्तित्व डाकुओं का किरदार निभाने वाले अभिनेताओं का व्यक्तित्व इतना उभरता था कि वे दर्शकों के दिलोदिमाग पर और साथ ही फिल्मी दुनिया में भी छा जाते थे। कुछ क्लासिकीय उदाहरण रजा मुराद, जोगिन्दर और अमजद खान हैं। लेकिन पान सिंह तोमर इस मायने में उनसे एकदम अलग है कि इसमें लूट-पाट, हत्या, बदले की आग और क्रूरता का सनसनीखेज, ग्राफिक चित्रण नहीं है। इसमें डाकू के किरदार का गौरवगान या दूसरे छोर पर जाकर दानव के रूप चित्रण भी नहीं है।
बागियों की बहादुरी और उनके अतिमानवीय चरित्र का बखान करने के बजाय यह फिल्म उन सामाजिक परिस्थितियों पर रोशनी डालती है, जिनमें एक प्रतिभाशाली खिलाड़ी और अनुशासित फौजी को बागी बनने पर मजबूर कर दिया जाता है।
यह फिल्म आज़ादी के बाद के भारत में आये बदलाव को बखूभी दर्शाती है की कैसे गाँव की नयी सामाजिक संरचना के उपरी पायदान पर कुलकों, भूस्वामियों, फार्मरों, धनी किसानों, ठेकेदारों, परजीवियों के छोटे से तबके का ग्रामीण क्षेत्रों में वर्चस्व कायम हुआ।
चम्बल की घाटी, नदी, बीहड़ और ग्रामीण अंचल के अब तक अनछुए, अनोखे भूदृश्यों को बखूबी कैमरे में कैद किया गया है। यह फिल्म अपने देश के उपेक्षित और गुमनाम खिलाड़ियों को श्रसुमन अर्पित करने से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है। इसकी सबसे बड़ी खूबसूरती और कामयाबी यही है कि यह किसी एक बागी की कहानी मात्र नहीं रह जाती। इस फिल्म में नायक के चरित्र के साथ उसका सम्पूर्ण सामाजिक परिवेश पूरी तरह नज़र आता है। इसलिए इस फिल्म का अनेक स्तरों पर रसास्वादन किया जा सकता है। पान सिंह को गढ़ने वाला सामाजिक यथार्थ उसकी कहानी के साथ अन्तर्धारा की तरह प्रवाहित होता रहता है और उसके जीवन के समानान्तर चल रहा भारतीय समाज का विकृत चेहरा हमारे सामने सजीव रूप में आ उपस्थित होता है। किसी उत्कृष्ट कलाकृति की खासियत भी यही है और इसीलिए तिग्मांशु धूलिया की यह फिल्म भारतीय सिनेमा की प्रवीणता और प्रौढ़ता की ओर बढ़ते जाने का एक सुखद संकेत है।
कथानक और माहौल के अनुरूप फिल्म के संवाद भिंड-मुरैना की ठेठ बोली में हैं जो डाक्यूमेंट्री फिल्मों में ही देखने को मिलते हैं। यथार्थ चित्राण के लिए निर्देशक ने यह जोखिम उठाया। फिर भी दर्शकों को इससे कोई परेशानी नहीं होती, क्योंकि संवाद के अलावा सिनेमा के दूसरे रूप विधान-अभिनय, दृश्यबंध और फिल्मांकन अपनी पूरी कलात्मकता के साथ दर्शकों को बाँधें रहते हैं। संगीत का अतिरेक नहीं है, इसलिए फिल्म के कथानक पर यह हावी नहीं होता। कुल मिलाकर इस फिल्म में अन्तर्वस्तु और रूप की एकता गजब है।

तिग्मांशु धूलिया ने शेखर कपूर की फिल्म बैंडिट क्वीन में सह निर्देशन करते हुए जो तजुर्बा हासिल किया, उसका भरपूर इस्तेमाल किया और वह पान सिंह तोमर को एक उत्कृष्ट फिल्म बनाने में पूरी तरह कामयाब रहे। संजय चैहान ने पटकथा पर काफी मेहनत की है और तिग्मांशु के संवाद ने उसे एकदम जीवन्त बना दिया है।
चम्बल के बागियों पर अब तक न जाने कितनी मसालेदार हिन्दी फिल्में बनी, जिनमें कुछ तयशुदा कथासूत्र या फिल्मी फारमूले हुआ करते थे। उन फिल्मों की एक खासियत यह भी होती थी कि छद्म-व्यक्तित्व वाले या निर्वैयक्तित्व डाकुओं का किरदार निभाने वाले अभिनेताओं का व्यक्तित्व इतना उभरता था कि वे दर्शकों के दिलोदिमाग पर और साथ ही फिल्मी दुनिया में भी छा जाते थे। कुछ क्लासिकीय उदाहरण रजा मुराद, जोगिन्दर और अमजद खान हैं। लेकिन पान सिंह तोमर इस मायने में उनसे एकदम अलग है कि इसमें लूट-पाट, हत्या, बदले की आग और क्रूरता का सनसनीखेज, ग्राफिक चित्रण नहीं है। इसमें डाकू के किरदार का गौरवगान या दूसरे छोर पर जाकर दानव के रूप चित्रण भी नहीं है।
बागियों की बहादुरी और उनके अतिमानवीय चरित्र का बखान करने के बजाय यह फिल्म उन सामाजिक परिस्थितियों पर रोशनी डालती है, जिनमें एक प्रतिभाशाली खिलाड़ी और अनुशासित फौजी को बागी बनने पर मजबूर कर दिया जाता है।
यह फिल्म आज़ादी के बाद के भारत में आये बदलाव को बखूभी दर्शाती है की कैसे गाँव की नयी सामाजिक संरचना के उपरी पायदान पर कुलकों, भूस्वामियों, फार्मरों, धनी किसानों, ठेकेदारों, परजीवियों के छोटे से तबके का ग्रामीण क्षेत्रों में वर्चस्व कायम हुआ।
चम्बल की घाटी, नदी, बीहड़ और ग्रामीण अंचल के अब तक अनछुए, अनोखे भूदृश्यों को बखूबी कैमरे में कैद किया गया है। यह फिल्म अपने देश के उपेक्षित और गुमनाम खिलाड़ियों को श्रसुमन अर्पित करने से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है। इसकी सबसे बड़ी खूबसूरती और कामयाबी यही है कि यह किसी एक बागी की कहानी मात्र नहीं रह जाती। इस फिल्म में नायक के चरित्र के साथ उसका सम्पूर्ण सामाजिक परिवेश पूरी तरह नज़र आता है। इसलिए इस फिल्म का अनेक स्तरों पर रसास्वादन किया जा सकता है। पान सिंह को गढ़ने वाला सामाजिक यथार्थ उसकी कहानी के साथ अन्तर्धारा की तरह प्रवाहित होता रहता है और उसके जीवन के समानान्तर चल रहा भारतीय समाज का विकृत चेहरा हमारे सामने सजीव रूप में आ उपस्थित होता है। किसी उत्कृष्ट कलाकृति की खासियत भी यही है और इसीलिए तिग्मांशु धूलिया की यह फिल्म भारतीय सिनेमा की प्रवीणता और प्रौढ़ता की ओर बढ़ते जाने का एक सुखद संकेत है।
कथानक और माहौल के अनुरूप फिल्म के संवाद भिंड-मुरैना की ठेठ बोली में हैं जो डाक्यूमेंट्री फिल्मों में ही देखने को मिलते हैं। यथार्थ चित्राण के लिए निर्देशक ने यह जोखिम उठाया। फिर भी दर्शकों को इससे कोई परेशानी नहीं होती, क्योंकि संवाद के अलावा सिनेमा के दूसरे रूप विधान-अभिनय, दृश्यबंध और फिल्मांकन अपनी पूरी कलात्मकता के साथ दर्शकों को बाँधें रहते हैं। संगीत का अतिरेक नहीं है, इसलिए फिल्म के कथानक पर यह हावी नहीं होता। कुल मिलाकर इस फिल्म में अन्तर्वस्तु और रूप की एकता गजब है।
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