फिल्म समीक्षा - आर्टिकल 15
फिल्म के नायक का नाम अयान है जसिकी भूमिका आयुष्मान खुराना ने निभाई है। अयान यूरोप से पढ़ा-लिखा, खुली सोच रखने वाला, एक नई पीड़ी का युवा है, जिसने अब तक गांव का ज़िक्र सिर्फ किताबों में ही सुना है। अपने बड़े अफसर को 'कूल सर' (Cool Sir) कह देने पर पनिशमेंट के तौर पर उसकी पोस्टिंग लालगांव कर दी जाती है जहां वह कुछ ही दिनों में एक ऐसे भारत को देखता है जो किताबों के भारत से कहीं दूर तक भी मेल नहीं खाता।

पोस्टिंग से कुछ ही दिनों में गाँव की तीन 10 से 12 साल कीं लड़कियां गायब हो जाती हैं। तीनों लड़कियां दलित थीं और गाँव में सड़क-निर्माण में मजदूरी किया करती थीं। वे प्रतिदिन दिहाड़ी का 25 रुपये पाती थीं। कांट्रैक्टर से दिहाड़ी में तीन रूपये बढ़ाने की मांग करने के कुछ दिन बाद से ही वे लापता हो गयीं थी। बाद में दो का शव गाँववालों को पेड़ से टंगा मिलता है। तीसरी लड़की गुमशुदा होती है और अयान और पुलिस उसकी खोज में लग जाते हैं।
कांट्रेक्टर ही दोनों लड़कियों का कई दिन तक सामूहिक बलात्कार करके पेड़ पर लटका देता है। ताकि पूरे दलित समुदाय को उनकी औकात याद दिला सके। अंत में पूजा नाम की तीसरी लड़की जंगल में मिल जाती है और बलात्कारियों पे आरोप भी साबित हो जाते हैं।
कहानी के अलावा फिल्म में कुछ अदभुद दृश्य हैं जो इसको विशेष बनाते हैं। जैसे की नाले में नंगा उतरते आदमी व पेड़ से लटकीं लड़कियों के शव का दृश्य। मूवी में दिखाई गई घटनाएं वास्तविक जगत में जैसे होता है उससे खूब मेल खाती हैं जैसे कि दलित लड़कियों के गुमशुदा होने को दर्ज करने में पुलिस का देरी लगाना, रेप की पोस्ट-मार्टम रिपोर्ट को बदलके लड़कियों के माँ-बाप से झूठा बयान लिखवा उन्हीं को दोषी करार करना। साथ ही कांट्रैक्टर, स्थानीय नेता, सीबीआई के अधिकारी का जुड़ा होना।
थोड़ी-थोड़ी देर पे आने वाले संवाद भी दर्शकों पे हल्का-हल्का प्रहार करते हैं जैसे - 'इनके हाथ का पानी पीना मना है सर ! और इनकी छाया का छूना भी ' या 'हमरी माई कहा करती थी सर की समाज में राजा, रैंक सब ईश्वर के बनाये हैं, हम कौन होते हैं जो ये संतुलन बिगाड़ें।' छुआ-छूत, छोटी जात-बड़ी जात के भेदभावों का फिल्म सटीक चित्रण पेश करती है। कुल मिलाके फिल्म समाज में व्याप्त जाती-व्यवस्था के जकड़नों को दिखाने में सफल हुई है।
मुख्य कमी ये रही कि फिल्म में शुरुआत में सही दिशा में होते वे भी अंत आते-आते समस्या का वर्गीय चरित्र धुँधला हो जाता है। अंत में कांट्रैक्टर के साथ-साथ दो पुलिसकर्मियों भी रेप में शामिल पाएं जाते हैं और जैसे ही पुलिसवाले को लगता है कि उसका भेद खुलने को है तो वो कांट्रैक्टर को गोली मार देता है। साथ ही फिल्म को निशाद (दलित युवाओं का नेता ) के स्थानीय नेताओं द्वारा क़त्ल कर छोड़ देना, शुरुआत में हड़ताल के वक्त दिखाई दलित एकता को उद्देश्यहीन छोड़ देता है।
फिल्म का एक डायलॉग -
"जितने लोग बार्डर पर शहीद होते
हैं उससे ज्यादा गटर साफ करते हुए हो
जाते हैं... पर उनके लिए तो कोई मौन
तक नहीं रखता... ”
जाते हैं... पर उनके लिए तो कोई मौन
तक नहीं रखता... ”
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