पेबलो नेरुदा

पेबलो नेरुदा (12 जुलाई 1904 - 23 सितम्बर 1973)

पाब्लो नेरूदा का जन्म मध्य चीली के एक छोटे से शहर पराल में हुआ था।

नेरुदा रचनात्मक, उत्कट और रोमानी कविता के लिए जाने जाते थे। जिनमें 1924 में प्रकाशित 'बीस प्रेम कविताएँ' और 'निराशा का एक गीत' सबसे प्रसिद्ध है। अन्याय के खिलाफ और संघर्ष और विरोध की प्रेरणा से पूर्ण  ये रचनाएँ देखते ही देखते पूरी दुनिया के आज़ादपसन्द  युवाओं, मज़दूरों और किसानो में  लोकप्रिय हो गयीं । नेरुदा लेखक होने के  साथ-साथ  राजनीतिज्ञ और  कूटनीतिज्ञ भी थे। 

1930 और 1940 के दशक में होने वाले  संघर्षों के दौरान , जान का खतरा होने के कारण उन्हें देश छोड़ना पड़ा। घोड़े पर सवार होकर उन्होंने इंडीज पर्वत पार किया और मेक्सिको पहुँचे, जहाँ उनके मित्रा पाब्लो पिकासो और डिएगो रिवेरा ने उनकी सहायता की।

नेरुदा ने स्पेन युद्ध के दौरान वहाँ की जनता के साथ मिलकर काम किया था। स्पेन युद्ध का उन पर बहुत प्रभाव पड़ा।

 "जब पहली गोलियों ने स्पेन के गिटार तोड़े, 
   जब उन गिटारों से संगीत की जगह खून निकला तब मेरी कविता 
   इंसानी परिताप की गलियों में प्रेत बनकर ठहर जाती है और 
   खून की धारा बहने लगती है। 
   मैं देखता हूँ कि अचानक एकाकीपन के दक्षिण से मैं उत्तर की तरफ चला गया हूँ,
   इंसानों की तरफ, जिनकी तलवार और रुमाल बनना चाहती है मेरी कविता। 
   जिनके ऊपर दुखों के पसीने को सुखाना चाहती है और रोटी की जद्दोजहद में जिनका हथियार बनना चाहती है। 
   और फिर आसमान खुल जाता है।
   गहरा और स्थाई बन जाता है। 
  ...स्पेन की यात्रा ने मुझे और ज्यादा हिम्मत और समझ दी थी।"

नेरुदा ने दुनिया के बहुत सारे देशों-- रूस, स्पेन, फ्रांस, श्रीलंका आदि की खूब यात्रा की। उनका आवारा घुमंतू जीवन भी उनकी कविताओं के लिए सहायक हुआ और उनकी कविताओं में लातिन अमेरिका के जीवन के साथ.साथ भिन्न देशों की प्रकृति और आंदोलन के चित्रण भी इसी कारण बड़े स्तर पर मिलते हैं। भारत की यात्रा उन्होंने दो बार की-- एक बार आजादी से पहले और दूसरी बार आजादी के बाद।

नेरुदा ने अपनी कविता में उन छोटी से छोटी चीजों को शामिल किया है जिस पर बहुत से कवियों का ध्यान ही नहीं जाता और जिन्हें तुच्छ समझकर नजरअंदाज कर देते हैं।

1971 में  उन्हें साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला। 

अक्सर ही उन्होंने उन आलोचकों का उपहास उड़ाया है जो मानते थे कि नेरुदा को अच्छी कविता लिखने के लिए यातना सहनी चाहिए। ऐसे लोगों की हिदायतों का मजाक उड़ाते हुए ही वह मजाकिया अंदाज में कहते थे कि-' इस हिसाब से तो पेट का दर्द और किडनी के रोग से ज्यादा महान कविता पैदा होनी चाहिए'। नेरुदा लिखते हैं -

'हम  कवियों को खुश रहने का पूरा अधिकार है जब तक कि हम अपने देश के लोगों से प्रतिबद्ध हैं और उनकी खुशी के लिए संघर्ष कर रहे हैं।'

पाब्लो नेरुदा की कविताओं के साथ-साथ उनका जीवन भी आज की पीढ़ी के लिए एक देदीप्यमान प्रकाश स्तम्भ है। ऐसे समय में जब दुनियाभर में सबसे ज़्यादा  मार मेहनतकश लोगों पर चैतरफा पड़ रही है, नेरुदा का जीवन हमें देश-राष्ट्र की सीमाओं को लाँघकर एकजुट होने, छोटी से छोटी चीजों को भी नजरअंदाज न करने, मेहनतकश जनता के साथ घुलने-मिलने और निरंतर संघर्ष करते रहने की प्रेरणा देता है।

नेरुदा की कविताओं के प्रशंसकों की बहुत बड़ी तादाद केवल चिली में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में थी और आज भी है। उनका जुड़ाव किस हद तक जन सामान्य के साथ था, यह उनके ही शब्दों में - 
 
"जनता का हजूम मेरी जिंदगी का सबसे बड़ा सबक रहा है। एक कवि के दब्बूपन सहित, किसी दब्बू के डर के साथ मैं जन साधारण में शामिल हो सकता हूँ, लेकिन एक बार उसमें घुस जाऊँ तो मेरा रूपांतरण हो जाता है। मैं सारतः बहुमत का हिस्सा हूँ विशाल मानवीय पेड़ का मैं एक और पत्ता हूँ।"






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