बर्तोल्त ब्रेख्त

बर्तोल्त ब्रेख्त ( 10 फ़रवरी 1898 - 14 अगस्त 1956 )

बर्तोल्त ब्रेख्त बीसवीं सदी के एक प्रसिद्ध जर्मन कवि, नाटककार और नाट्य निर्देशक थे । द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद ब्रेख्त ने अपनी पत्नी हेलेन विगेल के साथ मिलकर 'बर्लिन एन्सेंबल' नाम से एक नाट्य मंडली का गठन किया और यूरोप के विभिन्न देशों में अपने नाटकों का प्रदर्शन किया। ब्रेख्त ने पारंपरिक अरस्तू के नाट्य सिद्धांतों से सर्वथा भिन्न नाट्य सिद्धांत रचे।

 उन्होंने नाटकों का प्रचार प्रसार करने के लिये 'एपिक थिएटर' नाम से नाट्य मंडली का गठन किया। हिंदी में एपिक थियेटर को लोक नाटक के रूप में जाना जाता है।

ब्रेख्त का जन्म जर्मनी के औग्स्बुर्ग में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा उनके गृह कस्बे आग्सबुर्ग में ही हुई थी। 1917 में वह म्यूनिख विश्वविद्यालय में अध्ययन हेतु चले गये। यहाँ उन्होंने उच्च शिक्षा के लिए चिकित्साशास्त्र को चुना। लेकिन उनका मन इसमें नहीं रमा। म्यूनिख विश्वविद्यालय में अध्ययन के दौरान ही ब्रेख्त कविता तथा नाटक में दिलचस्पी लेने लगे थे।वहाँ के स्थानीय अखबारों में उनकी रचनायें प्रकाशित होने लगी थी। 

मेडिकल का छात्र रहते हुए उन्होंने आर्थर कुचर के थियेटर सेमिनार में भाग लिया और इसी क्रम में अपना पहला नाटक ' बाल ' लिखा। 

ब्रेख्त की उम्र महज 16 की थी जब पहला विश्व युद्ध शुरू हो गया। दो विश्वयुद्धों के बीच, उनका निजी जीवन और रचनात्मक जीवन उथल-पुथल से भरा हुआ रहा। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान मेडिकल सेवा करते हुए लिखा गया 'नाटक 'ड्रम्स इन द नाइट' उनका पहला मंचित नाटक था। 
 
 बर्तोल्त ब्रेख्त के सिद्धांतों और रंग प्रयोगों ने युरोप के रंगमंच का परिचय एक नवीन शैली से करवाया। बर्तोल्त ब्रेख्त ने महाकाव्यात्मक रंगमंच 'एपिक थियेटर' की नींव रखी और अभिनय की एक नई शैली विकसित की, जिसे 'ए-इफ़ैक्ट' कहा गया।  


अपराध, हत्या, वेश्यावृति, बलात्कार,हिंसा इत्यादि विषय उनके नाटकों में हैं।  उनके पात्र भी ऐसे समाज और वर्ग से संबंधित हैं जिनकी उपस्थिति मुख्यधारा के नाटकों में नहीं थी। 

1949 में इन्होंने 'बर्लिन एंसेबल थियेटर' की स्थापना की 1956 में देह त्यागने तक बर्लिन एंसबेल के साथ वे प्रयोगरत रहे।   

भारत के कुछ रंगकर्मियों को जर्मनी जाकर बर्लिन एंसेंबल थियेटर के काम को नजदीक से देखने का मौका मिला 

हबीब तनवीर ब्रेख्त से प्रभावित शुरुआती लोगों में से थे। हबीब तनवीर अपने युरोप प्रवास के दौरान ब्रेख्त से मिलने के लिये जर्मनी गये लेकिन वहां उनके पहुंचने से पुर्व ही ब्रेख्त की मृत्यु हो गई। हबीब तनवीर ने वहां बर्लिन एन्सेंबल की रंग प्रस्तुतियों को देखा और ब्रेख्त के सिद्धांतो को सीखा। कार्ल वेबर, फ़्रिट्ज़ बेनेवित्ज़ जैसे निर्देशकों ने भारत की यात्रा भी की और ब्रेख्त के सिद्धातों के आधार पर उन्होंने प्रस्तुतियां की। 

भारत में साठ और सत्तर के दशक में ब्रेख्त भारतीय रंगमंच के केन्द्र में आ गये। ब्रेख्त के नाटक 'गुड वुमन आफ़ सेत्ज़ुआन', 'मदर करेज', ' थ्री पैनी ओपेरा',  'पुंटिला एंड हिज मैन मैटी', 'गैलिलियो', 'काकेशियन चाक सर्किल' इत्यादि का भारतीय रंगमंच पर विविध भाषाओं और बोलियों में मंचन हुआ। इसी दौरान 'जड़ों के रंगमंच' का नारा बुलंद हुआ था और आधुनिक भारतीय रंगमंच पर भारतीय लोक परंपरा के रंग प्रयोग किये जाने लगे थे। यह प्रयोग नाट्य लेखन और मंचन दोनों क्षेत्र में हो रहा था। ऐसे समय में ब्रेख्त बहुत अनुकूल जान पड़े। गिरिश कर्नाड ने भी अपने लेखन पर ब्रेख्त के प्रभाव को स्वीकार किया है। गिरिश कर्नाड के हयवदन, विजय तेंदुलकर के घासीराम कोतवाल, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के बकरी आदि नाटकों पर ब्रेख्त का साफ प्रभाव देखा जा सकता है। 

हबीब तनवीर ने लिखा है कि ब्रेख्त आपको अपनी अस्मिता बनाये रखना सिखाते हैं, इसलिये अगर भारतीय नाटककार एक वास्तविक देशज रंगमंच विकसित करते हैं तो वह साथ ही साथ सचमुच ब्रेख्तियन थियेटर भी होगा। दुसरे शब्दों में वह ऐसा रंगमंच होगा जो न केवल भारत की शास्त्रीय और लोक परंपरा को आत्मसात करने वाला होगा, बल्कि साथ ही साथ जिसके मंचन में संगीत और नृत्य समाहित होंगे, और साथ साथ वह सार्वदेशिक भी होगा।    







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