केदारनाथ अग्रवाल

केदारनाथ अग्रवाल ( 1 अप्रैल 1911 - 22 जून 2000 )

   ‘‘तेज धार का कर्मठ  पानी,
     चट्ट्टानों के उपर चढ़कर,
     मार रहा है
     घूँसे कसकर
     तोड़ रहा है तट चट्ट्टानी!’’

 1 अप्रैल 1911  को उत्तर प्रदेश, के ख्बांदा, जनपद के कमासिन गाँव में जन्मे केदारनाथ का इलाहबाद, से गहरा रिश्ता था। इलाहबाद विश्वविद्यालय, में अध्ययन के दौरान ही उन्होंने कविताएँ लिखने की शुरुआत की।

उनकी कविताओं में लोकजीवन एवं जातीय संस्कृति की गहरी पहचान,  जीवन का उल्लास,  ग्रामीण प्रकृति का सहज सौन्दर्य-सब जैसे एक आन्तरिक लय में मुखरित हो उठते हैं। उदाहरण के लिए दाम्पत्य-प्रेम के चित्राण में केदार अक्सर प्राकृतिक उपादानों का सहारा लेते हैं- 

     "तुम मिलती हो,जैसे मिलती धूप 
       आँचल खोले, सहज स्वरूप"

न सिर्फ सौंदर्य बल्कि समाज के प्रति गहरे  चिंतन के साथ  केदार लिखते हैं -

       "उड़ जाता है वेतन
         जैसे गंध कपूर"

आज किसान आत्महत्याएँ करते हैं इसलिए कि उनके पास जीने के लिए कुछ नहीं रह जाता। उनका अधिकार किसी चीज पर नहीं रहता। वह क़र्ज़ के जाल में ऐसा फँसता है कि उसे  आत्महत्या से ही मुक्ति दिखलाई पड़ती है। इस पर केदार के शब्द हैं-

       ‘‘नहीं कृष्ण की, नहीं राम की नहीं

         भीम सहदेव नकुल की नहीं पार्थ की नहीं
         राव की नहीं रंक की नहीं किसी की नहीं
        किसी की धरती है केवल किसान की।’’

केदार की कविता में एक बेहद अमानवीय संसार की तस्वीर उभरती है जिसमें एक तरफ मेहनत करने वाला और दूसरी तरफ उन्हीं के  खून-पसीने पर पलने वाले 

      "आदमी का बेटा
        गरमी की धूप में भाँजता है फडुआ
        हड्ड्डी को, देह को तोड़ता है
        खूब गहराई से धरती को खोदता है
        काँखता  है, हाँफता है, मिट्ट्टी को ढोता है
        गंदी आबादी के नाले को पाटता है"

इस तरह 22 जून 2000 को  इस  प्रगतिशील कवी ने आंखरी सांस ली।  

      "मैंने उसको जब-जब देखा
         लोहा देखा’
         लोहा  जैसा जलते देखा 
         गलते देखा, ढलते देखा
         मैंने उसको,
         गोली जैसा चलते देखा"


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