"हज़ार साल पुराना है उनका गुस्सा
हज़ार साल पुरानी है उनकी नफरत
मैं तो सिर्फ उनके बिखरे हुए शब्दों को
लय और तुक के साथ लौटा रहा हूं।
मगर तुम्हें डर है कि आग भड़का रहा हूं। ( तुम्हें डर है )"
गोरख पांडेय का जन्म उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के मुड़ेरवा गांव में सन् 1945 में हुआ। अपनी किशोरावस्था से ही गोरख का किसान आन्दोंलन से प्रत्यक्ष जुड़ाव रहा।
अपनी पढ़ाई के दौरान भी वे आन्दोलनों में हिस्सा लेते रहे और हर तरह के अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाते रहे । आन्दोलनों के लिए ही उन्होनें कविताएं लिखनी शुरू की। उनकी कवितायें शोषण से पीड़ित किसानों , मज़दूरों व अन्य जन-समूहों के लिए संघर्ष की प्रबल आवाज़ बनीं।
"आएंगे अच्छे दिन आएंगे
गर्दिश के दिन ये कट जाएंगे
सूरज झोपड़ियों में चमकेगा
बच्चे सब दूध में नहाएंगे।"
गोरख ने भोजपुरी भाषा में भी गीत लिखे जिन्हें न सिर्फ उनके क्षेत्र में बल्कि शहर के छात्रों के बीच भी खूब लोकप्रियता मिली।
"झकझोर दुनिया, हो.....
झकझोर दुनिया
जनता की आवे पलटनियां
हिल्ले ले झकझोर दुनिया"
गोरख अपनी कविताओं में औरत की पीड़ा का चित्रण करने के साथ-साथ समाज के पुरुषवादी चरित्र को कटघरे में ला खड़ा कर डाला -
"घर-घर में दीवारें हैं
दीवारों में बंद खिड़कियाँ हैं
बंद खिड़कियों से टकराकर अपना सर
लहूलुहान गिर पड़ी है वह"
कविता लिखने वाले गोरख पहले कवि हैं जिन्होंने सड़कों, जुलूसों और युद्धों में औरतों के होने की आवश्यकता को महसूस किया है-
"अंधेरे कमरों और बंद दरवाज़ों से
बाहर सड़क पर जुलूस में और युद्ध में
तुम्हारे होने के दिन आ गये हैं,
तुम जहां कहीं भी हो"
खासकर छात्रों और नौजवानों के आंदोलनों में जितनी गोरख की कविताएं पढ़ी जाती हैं और गीत गाये जाते हैं शायद ही किसी अन्य लेखक की गयी जाती हो
गोरख के गाँव के लोग बताते हैं की गोरख गरीबों और दलितों की बस्ती में जाते, वहीं गीत गाते, वहां महिलाएं सब उनके लिए बहनें और भाभियां होतीं और उनके साथ गीत गातीं और गोरख उनकी झोपड़ियों में बैठ कर उन्हीं से मांग कर खाना खाते थे।
दिमागी बीमारी सिजोफ्रेनिया से परेशान होकर 29 जनवरी 1989 को जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में गोरख ने आत्महत्या कर ली ।
"यही वजह है, हमारी स्थिति सिर्फ ऊपर से फैले अंधकार के बीच नहीं है, हम नीचे से उत्पीड़ित लोगों की फूटती हुई रौशनी के बीच में भी जी रहे हैं और कविता सिर्फ अंधकार के बारे में नहीं, अंधकार को रौशनी के औज़ारों के बारे में भी लिखी जा रही है और लिखी जाएगी" जैसा आत्मविश्वास भरा दावा गोरख पाण्डेय जैसे जनता से जुड़े रचनाकार ही कर सकते हैं।
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